क्रम संख्या ३४९-३७१

३४९. जिज्ञासु:- गुरुदेव चरणों में सत्-सत् प्रणाम। गुरुदेव से एक प्रश्न पूछने जा रहा हूँ, वो है कि ईश्वर दर्शन, परमेश्वर दर्शन, जो गुरुदेव ने बताया अभी। उसके लिये शरण आवश्यक है कि या व्यक्ति घर-द्वार में रहकर भी ध्यान-मग्न हो के अपने कर्मो को करता हुआ भी, वो मोक्ष को प्राप्त कर सकता है?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय। सवाल ये उठता है कि जब परिवार ही में रहेंगे तो मोक्ष-मुक्ति माने, परिवार ही बन्धन है। परिवार में रहना है तो मुक्ति माने, परिवार माया का एक घेरा है और परिवार में रहेंगे। मुक्ति माने क्या एक धोखा? गुरु के शरण से मुक्ति नहीं मिलती है। इस धरती पर कोई भी गुरु में क्षमता-शक्ति नहीं है मुक्ति देने की। ये धूर्तबाज, धोखेबाज हैं सब। कोई भी मुक्ति नहीं दे सकता। धरती का कोई भी गुरु मुक्ति नहीं दे सकता। ये सब सतयुग से चला आ रहा है। ये ऋषि-महर्षि, ब्रह्मर्षि, ये योगी-यति जो है मतिभ्रष्ट अपने पास आने वालों के अपने में जुड़ाये रहे, परमेश्वर जानने के लिये, परमेश्वर के शरण में जाने ही नहीं दिया इन सबों ने और सब लटक-भटक कर के नाश में चले गये। किसी गुरु में क्षमता-शक्ति मुक्ति देने की नहिं है। अमरत्व देने की नहीं होती। वो क्षमता-शक्ति केवल भगवान् में होती है। परमात्मा-परमेश्वर में होती है। परमेश्वर-परमात्मा के शरण में रहिये, भगवान् के शरण में होइये। वो आपको मोक्ष देने का अधिकार रखता है। गुरुजी का क्षमता-शक्ति मुक्ति देने की, अमरता देने की नहीं है। ये तो धोखेबाज, धूर्तबाज हैं सब। भरमा-भटका करके आपका सब शोषित कर लेंगे और अपने मुँह फुलाकर के मौज-मस्ती छानेंगे। धरती के किसी भी गुरु में ये क्षमता-शक्ति नहीं होगी, ये मुक्ति-अमरता देने की। इसलिये अगर परिवार के शरण में रहना है याने गुरु के तब मुक्ति-अमरता कदापि सम्भव नहीं है। सीधे भगवान् के शरण में रहते हुये भक्ति-सेवा में रहना-चलना है, शरणागत भाव से तभी मुक्ति-अमरता सम्भव है।

३५०. जिज्ञासु:- जीव स्थूल शरीर, कारण शरीर के विषय में आपने जो बताया, वास्तव में अपने आप में बड़ा ही गहन अध्ययन का विषय है। आपकी कृपा होगी और आप जो विशेष कक्षा लेंगे उसमें समझायेंगे उसमें तो शायद कुछ समझ में आ जाय। किन्तु स्थूल रूप में जो हम जहाँ पर हैं, जिस रूप में आपने परिवार को त्याज्य करने की बात कही है। वह परिवार कब छोड़ा जाय? किस रूप में छोड़ा जाना चाहिए और क्यों छोड़ा जाना चाहिये। क्या परिवार को छोड़े जाने का औचित्य सामाजिक दृष्टि से, नैतिक दृष्टि से?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- एक निवेदन करूँ? एक विषय जरूरी लग रहा है। मैं आप लोगों के परिवार का बच्चा हूँ। मैं आप लोगों का छोटा भाई हूँ। इसलिये कि मैं आप लोगों का सेवक हूँ। इसलिये मैं निवेदन ही कर सकता हूँ। एक सच्चाई है ये। निवेदन मेरा यह है एक साथ आप दो चार प्रश्न न रखिये। एक कहें उसका उत्तर मैं एक दो मिनट में दे दूँगा। फिर दूसरा कहें। उसका उत्तर, फिर तीसरा कहें। आप दसियो कहें, लेकिन एक-एक का उत्तर लेते हुये कहें तो सबके पकड़ में आयेगा, सबके समझ में आयेगा। इसलिये एक कहकर चुप हो जायेंगे। मैं भी एक दो मिनट लेकर चुप हो जाऊँगा। फिर आप दूसरा रखेंगे, फिर तीसरा रखेंगे, ऐसे किया जाय तो शायद अच्छा रहेगा।

३५१. जिज्ञासु:- परिवार से हम सब लोगों की उत्पत्ति हुई है तो बालक के रूप में गर्भावस्था में शिशु नारकीय जीवन भोगते हुये, कष्ट सहते हुये अपने माता को कष्ट देते हुये जब बाहर आता है तो किस तरह से माता उसका पालन-पोषण करती है और कैसे उसका लालन-पालन करते हुये वो बढ़ता है, उसे सिखाती है और जो भी कुछ करती है तो क्या बड़े होने के बाद सक्षम होने के बाद परिवार से पालित-पोषित होने के बाद उसके अन्दर जब कुछ कार्यक्षमता आ जाय, चाहे बाह्य स्थिति से, चाहे प्रभुत्व स्थिति से, चाहे परिवार के द्वारा तो क्या परिवार को वो बालक त्याज्य करके और परिवार को घोर नारकीय जीवन स्वीकार करके, परिवार से अलग हो जाय अन्तः साधना में, अपने अन्तः शांति को प्राप्त करने के लिये। क्या ये उचित कर्तव्य माना जायेगा?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय। परमप्रभु परमेश्वर की जय। ये आपका प्रश्न निःसन्देह बहुत ही समय के अनुकूल हैं। आप जो पारिवारिक वर्णन कर गये। मेरे जो जानकारी में था मैंने उन पर जानकारी का वर्णन पहले रखा, अब सवाल है उचित या अनुचित का। परिवार छोड़ना उचित है या अनुचित है। परिवार छोड़ने का औचित्य क्या है? परिवार छोड़ना क्या उचित है या अनुचित है? ये आपका प्रश्न है। मैंने ये समझा है।

३५२. जिज्ञासु:- हमारा उचित, अनुचित की बात नहीं। परिवार को एकदम नारकीय अनुचित समझ के उसको त्याग दिया जाय। उससे एकदम स्नेह खत्म कर दिया जाय। क्या यह तर्क संगत अथवा.........

संत ज्ञानेश्वर जी:- अरे भइया ! यही तो सब होता है। यदि उचित नहीं है तो अनुचित है, उचित है तो उचित है, नहीं है तो अनुचित है। इसलिये दोनों शब्दों का प्रयोग अनिवार्य है। आप यह भूल गये या छोड़ दिया। मैं उसे जोड़कर बोल रहा हूँ। अनुचित, उचित दोनों शब्द नहीं बोलेंगे तो गलत हो जायेगा। यानी यदि कोई चीज उचित है, तो है, नहीं है तो अनुचित है। इसमें बोलना दोनों होगा कि उचित है या अनुचित। उचित नहीं होगा तो अनुचित होगा।
बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय । परमप्रभु परमेश्वर की जय। परमप्रभु परमेश्वर की जय। देखिये उचित या अनुचित के निर्णय को करने से पहले गलत सही अथवा झूठ और सच को जानना अनिवार्य है क्योंकि गलत करना अनुचित होता है। सही करना होगा, रहना उचित होता है। झूठ गलत होता है, अनुचित होता है, त्याज्य होता है। सच जो है, सही जो है, उचित होता है, गाह्य होता है, नीतिमूलक होता है। हमको उचित अनुचित निर्णय लेने से पहले गलत-सही निर्णय लेना होगा, झूठ-सच का निर्णय लेना होगा। कोई भी चीज एक झूठ के परिभाषा में आता है तो वो गलत है और त्याज्य है। कोई भी चीज यदि सत्य की परेभाषा में आता है तो सही है औ ग्राह्य है। अब परिवार का सम्बन्ध हमारे सामने आया। हमको उसमें पड़े रहना उचित है, अनुचित है अथवा उसको हमें छोड़कर के ऊपर उठना अनुचित है, उचित है। ये उनका विषय है। सबसे पहले तो हमको अपने हम को जानना होगा कि हम शरीर है कि हम जीव है कि हम आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-शिव है कि हम परमात्मा-परमब्रह्म-खुदा-गॉड-भगवान् है क्योंकि चार भागों में सारा ब्रह्माण्ड है-----स्थूल, सूक्ष्म, कारण और परमकारण। अब स्थूल में शरीर, संसार, परिवार आता है। सूक्ष्म में प्रेत योनि से लेकर, भूत योनि से लेकर के नर्क-स्वर्ग और देवलोक तक आता है। कारण शरीर में आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-शिव यानी ब्रह्म लोक, शिव लोक आता है। परम कारण में परमात्मा-परमेश्वर-खुदा-गॉड-भगवान् परमब्रह्म और परमधाम और अमरलोक आता है। ये चार श्रेणियाँ बनी हुई है पहले से। जब हम शरीर होगा तब पारिवारिक सम्बन्ध उचित है। जब हम शरीर होगा तो परिवार का त्यागना अनुचित है। उचित नहीं होगा। लेकिन जब हम शरीर हो ही नहीं, तो फिर हमारा परिवार कैसा? जब हम शरीर होगा तो परिवार में रहना हमारा कर्तव्य है। परिवार की देख–रेख, माता-पिता की देख-रेख हमारा कर्तव्य है।
सवाल ते उठ रहा है कि हम शरीर है कि नहीं? जब जानने-देखने को मिले कि हम शरीर तो है ही नहीं, परिवार तो शरीर का है और शरीर एक नाड़ी है। शरीर एक जड़वत् पदार्थ है, जड़ पिण्ड है और जड़वत् पिण्ड का कोई परिवार नहीं होता। जड़ पिण्ड का कोई परिवार नहीं होता, हम मिट्टी ले लें यानी बटवारा किया जाय तो धरती एक है और मिट्टी इस धरती की है। परिवार हम लोगों की धरती की सभी लोगों के हम परिवार जैसे हैं। क्यों? क्योंकि हम देख रहे हैं कि हम शरीर नहीं है। जब शरीर हम नहीं है तो हमारा परिवार कहाँ? जहाँ हम होंगे वहाँ हमारा परिवार होगा। जहाँ हम होंगे वहाँ मेरा परिवार होगा। शरीर है संसार से आयी है परिवार के माध्यम से, मैं इसे आपका मंजूर कर रहा हूँ। शरीर संसार से आयी है परिवार के माध्यम से लेकिन जीव नहीं। जीव आया है परमब्रह्म से, परमात्मा-परमेश्वर से, ब्रह्म-शक्ति के माध्यम से, शिव-शक्ति के माध्यम है। हम जीव का माता-पिता ब्रह्म-शक्ति, शिव-शक्ति है। हमारा ठहराव रहन-सहन परमात्मा-परमेश्वर है। शरीर आया है संसार में परिवार के माध्यम से। शरीर मेरे को मिला है साधन के रूप में। हम शरीर को नहीं मिला है, शरीर को परमेश्वर के विधान में माया ने संसार में इसे जानने-देखने-समझने, इसका लाभ लेने के लिये साधन के रूप में। हम गाड़ी खरीदे। हमने गाड़ी खरीदा मारुति स्टीम। अब मैं गाड़ी में बैठा हूँ, अब मैं कहूँ कि मैं गाड़ी हूँ और अब मैं मारुति परिवार का हूँ, मुझे मारुति परिवार में चला जाना चाहिए। ये उचित होगा? मैं मारुति गाड़ी लिया, मारुति गाड़ी में बैठ रहा हूँ, चला रहा हूँ, मालिक हूँ, चालक हूँ, मैं गाड़ी में बैठा हूँ। देखने वाला को ये दिखाई दे रहा है कि ये गाड़ी है, स्टीम है। अब मैं गाड़ी वाला, मारुति वाला के यहाँ जाकर मैं हरियाणा, गुड़गाँव में बैठ जाऊँ कि मैं इसी परिवार का हूँ, ये मेरा परिवार है, ये उचित होगा? गाड़ी मेरी साधन है, मेरे लिये। मुझे कहीं आना-जाना होगा तो गाड़ी मेरी सहायता करती है, झट से पहुँचा देती है, दो चार आदमी को साथ लेकर पहुँचा देती है। उसी तरह से शरीर तो हमारी गाड़ी है। गाड़ी हमने जिस खाना-परिवार से लिया है और मैं जाकर उस परिवार में बैठ जाऊँ कि मैं इसी परिवार का हूँ। यह गाड़ी तो मुझे मिली है, इसमें मैं अपने मंजिल साधन में लगाऊँ। क्या उचित होगा?

३५३. जिज्ञासु:- बात आप ठीक बोल रहे हैं महाराज जी। किन्तु

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- जब ठीक है एक मिनट, एक मिनट मैं बीच में काटूँगा। जब ठीक है तो किन्तु, परन्तु लेकिन नहीं और जब किन्तु, परन्तु, लेकिन है तो ठीक नहीं।

३५४. जिज्ञासु:- किन्तु, परन्तु उचित-अनुचित के विषय में नहीं। स्पष्टता के विषय में, उस बोधगम्यता के विषय में मैं कहना चाहता हूँ। वो बोधगम्यता के लिये इसलिये मैं कह रहा हूँ कि ठीक है। मैं शरीर हूँ तो क्या मैं अपने को शरीर ही समझ के उसी में रह जाऊँ लेकिन जहाँ से ये शरीर मिला है, जिस माध्यम से प्रभु की कृपा से माता-पिता को हित-मात्र बनाकर के परिवार में रहा, जहाँ संतोष मिला, प्यार मिला, ममत्व मिला, लालन-पालन-पोषण हुआ तो क्या उसको बड़े होने पर समर्थ होने पर हर दृष्टि से समक्ष होने पर उसे एकदम त्याज्य समझकर के त्याग दें या क्या यह कृतज्ञता ज्ञापित करना होगा। ये उचित होगा, जीव के लिये उस व्यक्ति के लिये परिवार के प्रति और अगर नहीं होगा तो उसे किस प्रकार से परिवार से सम्बंधित रह के अपने कृतज्ञता को ज्ञापित करना चाहिए और बाकी समाज के लिये अपने को समर्पित करना चाहिए।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय। सवाल ये है कि मैं किसी बूढ़ा-बूढ़ी को पकड़ लूँ हे माताजी ! आप मेरी माताजी हैं। किसी औरत को पकड़ लूँ, मैं शादीशुदा हूँ, मेरे पास पत्नी है। अब अपनी पत्नी का अता-पता नहीं किसी और औरत को पकड़-पकड़ कर के हे मेरी पत्नी जी ! आप मेरी प्राणप्रिया जी हैं तो वहाँ जानते हैं उचित-अनुचित कोई नहीं पूछेगा, पहले कूट-काट करेगा तो पहले हम कोई नकली गाड़ी वाला माता-पिता को पूछें तो कूट-पीट नहीं होगा, नाश नहीं होगा। हमको अपनी असली माता-पिता को पूछना है कि नकली। हम ड्राइवर हैं हम गाड़ी वाले कारखाना में जायें या हम जिस परिवार के हैं उसमें जायें। हमको अपने असली माता-पिता को देखना है कि नकली। हम गाड़ी वाले एजेन्ट के यहाँ जायें कि आप मेरा घर हो, मेरा परिवार हो, ये मेरी पत्नी है। जैसे पत्नी कहना शुरू करूँगा, वही पीट-पाट शुरू हो जायेगा। हम परिवार में आयेंगे तो अपनी पत्नी को पत्नी कहेंगे तो खुशयाली, प्यार खिलेगा। हम अपनी माताजी को माताजी कह करके और हम अपने घर में लाकर रख लें और हम उनके साथ रह लें, खुशियाली होगी, लेकिन दूसरी किसी वृद्ध महिला को घसीट कर ले चलें। चल तू कहाँ जा रही है, मेरी माताजी है, मेरे घर चल तब भी कूट-पीट शुरू हो जायेगा। तो सवाल है कि नकली असली पहचानना है कि नहीं, नकली असली पहचानना है कि नहीं। नकली को करना है, दूसरे वाले को करना है या अपने असली को करना है। हम मारुति गाड़ी वाले हैं, हम मारुति कम्पनी में जाकर कहें कि ये हमारा घर है, हम इसी में रहेंगे, कारखाना वाले हमको रहने देंगे। हम अपने असली घर में, गाड़ी हमारे घर में रहेगी तो ये गाड़ी हमको मिली, हम ईश्वर, परमेश्वर वाले माता-पिता के यहाँ शरण में रहें, गड़िया भी उसकी शरण में रहे। ये सिस्टम है कि हम अपने असली माता-पिता जो शिव-शक्ति है, ब्रह्म-शक्ति है जो को छोड़ दें और नकली मरण-धरण आज रहेंगे, कल नहीं रहेंगे। इनको फंसा कर रखेंगे तो नाश में ही तो जायेंगे। यमराज खूब कुटे-पीटेगा कि रे ! तो नकली को क्यों पकड़ा, असली को क्यों नहीं। जब नकली औरत को बनाकर पकड़कर रखूँगा तो दरोगाजी खूब कूटेंगे-पीटेंगे। नहीं पिटेंगे? तो दरोगा माने यमराज, यमराज माने दरोगा। अरबी में या उर्दू में यमराज को दरोगा तो कहते हैं तो दरोगा जी कूटे-पीटे बगैर छोड़ेंगे क्या? जब किसी के बेटा को बेटा कहकर गोदी में उठा दें तो कूटाई-पिटाई करने लगेंगे कि तू अपहरणकर्ता है। तो वही हाल है, जब तक हम अनजान थे, तब तक जो था, वही हमारा था, जब हम जान गये कि हम संसार-परिवार, परिवार के नहीं हैं, हम भगवान् और शिव-शक्ति परिवार के हैं, भगवान् और ब्रह्म-शक्ति परिवार के हैं, तब भी हम भगवान् ब्रह्म-शक्ति को छोड़कर के ये विनाशी, कूट-पीट वाले परिवार में जाऊँ। यही उचित होगा। फिर ये उचित होगा?
कि मैं भगवान् का, मेरा सब भगवान् का, ये लोग बेईमान नहीं होते तो मैं मैं अपने को मेरा नहीं कहते। देखिए सुरुचि उत्तम को अपना बनाई, राजकुमार घोषित कराई, उत्तानपाद राजा से। सुनीति एक बार कह दी कि बेटा ध्रुव ! तेरा पिता तो भगवान् है। एक बार सुना ध्रुव ने कि मेरा पिता भगवान् है तो कहा कि मैं अपने पिता से मिलूँगा। अब तो सुनीति के लिये आफत हो गया। कही कि भई भगवान् खोजा कि मालूम है उत्तम मारा गया और दुर्गति के साथ मारा गया। राज छीन गया। उत्तानपाद की दुर्गति हुई कि बाघ शेर नोंच-नोंच करके खाये और भगवान् भी मिला ध्रुव को, राज भी मिला ध्रुव को। भगवान् वाले को ही राज करने का अधिकार होता है। मैं मेरा वाला तो नाश को जाता है। क्या उचित होगा? भगवान् को अपनाना, परमेश्वर को अपनाना या परमेश्वर छोड़कर परिवार को अपनाना?

३५५. जिज्ञासु:- महाराज जी मैं अपनाने की बात नहीं कर रहा हूँ.......

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- मैं अपनाने की बात कर रहा हूँ, रहने की बात कर रहा हूँ।

३५६. जिज्ञासु:- मेरा प्रश्न केवल यही था..........

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- मेरा उत्तर ये है कि ऊपर उठेंगे, नीचे छूटेगा। आगे बढ़ेंगे, पीछे छूटेगा।

३५७. जिज्ञासु:- ये स्थिति कब होनी चाहिए? मेरा प्रश्न यही था।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- मेरे प्रश्न में आपका उत्तर है। परमेश्वर भी सामने हो, परिवार भी सामने हो।

३५८. जिज्ञासु:- ये नहीं प्रश्न था.............

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- मेरा तो यही जवाब है। नहीं, नहीं, नहीं। आप अधूरा प्रश्न मत करें। परिवार छोड़ना कहाँ हैं?

३५९. जिज्ञासु:- छोड़ने की बात नहीं मैं कर रहा।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- फिर बात क्या करते हैं?

३६०. जिज्ञासु:- न, न, न। परिवार के प्रति भी अपना कर्तव्य..........

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हम कह रहे हैं कि कर्तव्य, कर्तव्य ही तो मैं पढ़ा रहा हूँ। अपना कर्तव्य, अस्तित्व का जो मंजिल हो, उसी मार्ग पर चलना अपना कर्तव्य है। अस्तित्व का जो मंजिल हो, उसी मार्ग पर चलना अपना कर्तव्य है। अब हमें बताइये कि हमारा अस्तित्व मंजिल परमेश्वर है कि परिवार है? जब है तो परमेश्वर। तो हमें परमेश्वर के मार्ग में रहना-चलना चाहिये, परमेश्वर के शरण में रहना-चलना चाहिए या परिवार के।

३६१. जिज्ञासु:- नहीं परमेश्वर के।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- फिर और क्या?

३६२. जिज्ञासु:- केवल इसलिये..............

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- केवल माने क्या?

३६३. जिज्ञासु:- केवल इसलिये कि परिवार को।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अब सुन लीजिये। परिवार को छोड़कर हम नौकरी-चाकरी कर रहे हो, हम दूसरा परिवार बसा रहे हो, तब हम दोषी-अपराधी हैं लेकिन परिवार को छोड़कर हम ईश्वर-परमेश्वर शरण में जा रहे है तो मैं तो अपने गति में जा रहा हूँ, अपने कर्तव्य में जा रहा हूँ, यहाँ अनुचित क्या होगा? यही तो कर्तव्य है। मैं तो ईश्वर-परमेश्वर की शरण में ले जा रहा हूँ। मेरा यहाँ तो छोड़ना कहाँ है? अपने को कर्तव्य को जोड़ते हुये मंजिल को पाना है। परमेश्वर के शरण में जाना है। परिवार कहाँ रह जायेगा?

३६४. जिज्ञासु:- पूरे परिवार के साथ जाना है।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- परिवार अपना होगा तो पीछे आयेगा ही।

३६५. जिज्ञासु:- क्योंकि भगवान् तो सबका है।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं भईया ! एक बात कोई भी आदमी के पीछे नहीं चलता है। नौकरी वाले को कहिये की नौकरी छोड़ के परिवार के पीछे रहो। नौकरी के पीछे परिवार भले रहे, नौकरी परिवार में नहीं आयेगी। उसी तरह से परमेश्वर के पीछे भले परिवार भले रहे, नौकरी परिवार में नहीं आयेगी। उसी तरह से परमेश्वर के पीछे भले परिवार आय, परमेश्वर परिवार के पीछे नहीं चलता। परमेश्वर वर्जित नहीं किया है कि तेरे पीछे तेरा परिवार न आवे। यदि तेरे पीछे नहीं आ रहा है तो तेरा है ही नहीं। ये प्रश्न है और जब तेरा है ही नहीं तो रहे चाहे जाय। मैं तो यही बोल रहा हूँ, मैं तो यही कर रहा हूँ।

३६६. जिज्ञासु:- थोड़ा सा हमको समझने में हो सकता है भूल.............

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं, नहीं । यही बात है, ऐसा ही है।

३६७. जिज्ञासु:- इसलिये ये मैंने शंका-समाधान किया था.............

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- जब हम अपने माता-पिता घर-परिवार को छोड़कर दूसरा कोई परिवार बसायें नौकरी-चाकरी करते हुये, वहाँ मैं अपराधी हूँ और मेरा अपराध अक्षम्य होगा लेकिन जब मैं सांसारिकता-पारिवारिकता छोड़कर ईश्वर और परमेश्वर की तरफ बढ़ रहा हूँ, परमेश्वर के शरण में रहने लगा तो परिवार कहाँ?

३६८. जिज्ञासु:- फिर परिवार अगर बाधक है तो त्याज्य है परिवार।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बस वही बात तो मैं भी कह रहा हूँ। ऐसा ही है। भाई बन्धु।

३६९. जिज्ञासु:- बोलिये परमपिता परमेश्वर की जय। परमपिता परमेश्वर की जय। कल हमने प्रश्न पूछा था कि जो शरणागत हो गये हैं और शरणागत होकर ज्ञानवृष्टि ले लिए फिर वो यदि धोखा देकर माया की ओर चले गये तो उनकी गति क्या होगी। उसका उत्तर तो हमें मिल गया था। आज एक प्रश्न है कि जो प्रभु वचन देकर शरणागत हो गये। मान लो हम वचन देकर शरणागत हो गये आजीवन जब तक हमारा शरीर नहीं छूटेगा, हम प्रभु की शरण नहीं छोड़ेंगे, प्रभु की शरण में रहेंगे पर वहाँ रहते-रहते हमारे हाथ कोई बेईमानी अथवा असंयम हो जाता है अथवा और हम रहते तो शरीर से वहीं पर हैं प्रभु शरण में, बाहर माया में हम नहीं जाते पर हमारे हाथ कोई गलतियाँ होती है असंयम हो जाता है, बेईमानी होती है और एक दूसरा भी है वहाँ साधक जो कि प्रभु की शरण में एकदम रहता है ज्ञानदृष्टि ली हो अथवा न ली हो, वो तो रहता ही है प्रभु के शरण पर वो बेईमानी और छल-कपट नहीं करता है। हम भी नहीं चाहते कि हमारे हाथ नहीं हो पर फिर भी हो जाता है हमारे हाथ पर वो नहीं चाहता है और नहीं करता है, पूरी ईमानदारी और संयम से रहता है तो जब हमारे दोनों के शरीर छूटेंगे तो जो बेईमानियां वहाँ रहने के बाद भी बेईमानियां रहते हुये हो जाता है तो दोनों की जब शरीर छूटेगी तो कौन गति में जायेंगे दोनों लोग।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलो परमप्रभु परमेश्वर की जय। बड़ी पेचिदगी का प्रश्न है। उत्तर दूँ तो गाड़ी फँसे
, क्या गाड़ी फँसे कि ज्ञानी लोग इसका नाजायज लाभ लें कि हम गलतियाँ करते रहेंगे, शरण में रहेंगे तो मोक्ष मिल जायेगा। गाड़ी फँस जाय यानी गलत उत्प्रेरण मिले और न उत्तर दूँ ये उचित नहीं है। अब सवाल ये उठता है उत्तर तो देना ही है जब आप पूछे हैं तो। बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय ! देखिये चाहे वो लाख पापी-कुकर्मी हो यानी वो शरीर को परमेश्वर के शरण में बना रहा, शरीर छोड़ने के समय तक तो उसे मोक्ष ही मिलेगा। परमेश्वर किसी के पाप-कुकर्म को नहीं देखता है। बस शरण में है कि नहीं यही काफी है। जब उसकी सारी रिस्क (जिम्मेदारी) परमेश्वर अपने ऊपर ले लेता है।

३७०. जिज्ञासु:- दोनों की वही गति होगी तो शरण में रहेगा भी और

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं अब गति ये होगी ये जो पाप-कुकर्म करने वाला शरण में होगा। मनमाना चलने वाला होगा उसको सलोक्य मुक्ति मिलेगी। सुन लें मुक्ति चार प्रकार की होती है। सलोक्य मुक्ति, सामीप्य मुक्ति, सारूप्य मुक्ति, सायुज्य मुक्ति। तो सायुज्य मुक्ति तो विलीन हो जाना है। उसमें तो अलग अस्तित्व ही नहीं रहता है लेकिन तीन मुक्ति जो हैं अलग अस्तित्व वाली होती हैं कि एकत्व बोध होने के बाद भी स्थिति अलग दिखाई देती है। सालोक्य वाले की, सामीप्य मुक्ति वाले की, सारूप्य मुक्ति वाले की। अंतिम उपलब्धि है सायुज्य मुक्ति। जो नहीं अपना सुधार कर रहा है, दोष-दुर्गुण से ग्रसित है लेकिन शरण मे है तो मुक्ति तो मिलेगी ही लेकिन वहाँ जायेगा तो वहाँ भी उसकी दूरी वैसी ही बनी रहेगी। जैसे यहाँ सद्गुरु से क्योंकि कोई भी गलत करने वाला यदि शरण मे होगा तो सद्गुरु उससे कभी खुश नहीं होगा। सद्गुरु उससे कभी प्रसन्न नहीं होगा लेकिन उसे निकलेगा भी नहीं शरण से। जब सद्गुरु प्रसन्न नहीं होगा तो रखेगा, वो रहेगा लेकिन शरण का उसे कोई लाभ नहीं मिलेगा। मुक्त तो हो जायेगा जैसे यहाँ दूर रखेगा, वैसे ही वहाँ भी (परमधाम में भी) जाकर उसे सालोक्य मुक्ति में डाल देगा। पड़ा तो रहेगा मुक्ति में लेकिन परमेश्वर का सीधे उसको कोई लाभ नहीं मिलेगा और जो ईमान वाला होगा, जो संयम वाला होगा जो शरणागत में भक्ति-सेवा, ईमान से रह रहा होगा उसको यहीं पर प्रमोशन हो जायेगा। यानी सामीप्य मुक्ति मिल जायेगी यानी समीप रहने लगेगा। समीप रहने का मौका देगा। समीप में जो दोष रहित बनायेगा अपने को, जब बिल्कुल दोष रहित हो जायेगा, बिल्कुल दोष-पाप रहित हो जायेगा, अब गिरने की उसकी समस्या समाप्त हो जायेगी तब सारूप्य मुक्ति देता है, सारूप्य मुक्ति देगा, तब आप मंदिर के पात्र बनेंगे। जैसे हनुमान यानी पूज्यनीयता पाने का अधिकार आपको मिल जायेगा। नहीं गौर कर रहे हैं हम लोग देवी-देवता के पूजा को नकार सकते हैं लेकिन हनुमान के पुजा को नहीं नकार सकते इसलिये कि उन्होने अपनी भक्ति-सेवा को पूरा चरित्रार्थ किया, सफलतापूर्वक दोष रहित भाव में अपनी मंजिल को सेवा को किया। वो सारूप्यता अर्थात् पूज्यनीयता पाने का हकदार है। जब मंदिर बनेगा इस संस्था में जहाँ भी बनेगा, वहाँ गरूण भी रहेगा, वहाँ हनुमान भी रहेगा, वहाँ जितने शरणागत भक्त हैं कागभुशुंडि भी रहेगा, वहाँ जटायु भी रहेगा। जहाँ-जहाँ भी जो-जो भी भगवान् के प्रति समर्पित-शरणागत भक्त होंगे, पीछे किसी ने दिया नहीं दिया, वर्तमान में सबको पूज्यनीयता का अधिकार मिलेगा।

जिज्ञासु:- यानी प्रभु की शरण में जो ईमानदारी-सच्चाई से रहेगा, समर्पित-शरणागत होकर तो उसको सारूप्य मुक्ति मिल जाएगी?

संत ज्ञानेश्वर जी:- सारूप्य मुक्ति मिल जायेगी।

३७१. जिज्ञासु:- यहाँ पर एक प्रश्न पर लिखा है परमब्रह्म द्वारा शब्दब्रह्म का ज्ञान और शब्दब्रह्म द्वारा परमब्रह्म की पहचान।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- ये तो प्रेक्टिकल के समय दिखाई देगा। जब परमब्रह्म मिलेगा तब न पता चलेगा कि गलत है कि सही है। देखिए परमब्रह्म से शब्दब्रह्म का ज्ञान मिलता है और शब्दब्रह्म से परमब्रह्म का पहचान होता है। ऐसा ही मिलेगा जब दर्शन चार तारीख को परमब्रह्म का मिलेगा तो उस समय ऐसा ही दिखलाई देगा। ये मनवाने की चीज नहीं है। समझाने की चीज नहीं है। ये दिखाई देने की चीज है, चार तारीख को जो भाग ले रहे होंगे वो देखेंगे कि ऐसे ही होगा। 

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