१. जिज्ञासु
:- ये चार युगों में ये
चारों युग कभी-कभी इकट्ठा होता है कि रोज इकट्ठा होता है ?
सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी
सदानन्द जी परमहंस :- हुजूर ! अब बताइये न। शनिवार बुधवार इकट्ठा कैसे होगा? बृहस्पति, शुक्र बीच में है। इतवार
और बुधवार कैसे इकट्ठा होगा, सोमबार, मंगलवार दो गो बीच में है। तो सवाल है कि दो गो तो
इकट्ठा तीन गो तो लग रहा है पहला और अगला पिछला के साथ। चारों इकट्ठा कैसे होगा?
२. जिज्ञासु :- द्वापर
है, त्रेता है, कलयुग है, सतयुग है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- द्वापर
त्रेता नहीं, त्रेता द्वापर। सतयुग चार चरण
वाला धर्म का, त्रेता तीन चरण वाला,
द्वापर दो चरण वाला, कलयुग एक चरण। इसलिये सतयुग,
त्रेता, द्वापर;
द्वापर, त्रेता नहीं। एक दो तीन नहीं है,
चार तीन दो एक है। ये गणना एक दो तीन नहीं है,
चार तीन दो एक है। तो सतयुग, त्रेता,
द्वापर, कलयुग,
ऐसा है।
३. जिज्ञासु :- ऐसा है,
तो ये चारों कब-कब आते हैं एक दिन में?
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- कभी
नहीं। तीन मिलते रहते एक युग में। कलयुग है यानी सतयुग आ रहा है तो पीछे कलयुग जा
रहा है तो आगे त्रेता प्रतीक्षा में है। जब सतयुग पूर्ण हो जायेगा तो पीछे कलयुग
और आगे आने वाला है त्रेता, जब
त्रेता आयेगा तो पीछे सतयुग ओर आगे आने वाला द्वापर,
जब द्वापर जाने वाला होगा तो पीछे त्रेता और आगे आने वाला कलयुग,
जब कलयुग आने वाला होगा तो पीछे द्वापर, आगे आने
वाला सतयुग एक सर्किल है, इसी तरह
से क्रमशः आता रहता है।
४. जिज्ञासु :- इस समय
कौन युग चल रहा है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- इस समय
संगम युग है, कलयुग गया,
सतयुग आया। दोनों का एक-दूसरे में जो प्रभावित क्षेत्र है,
वहीं संगम कहलाता है। इस समय संगम युग है तो कलयुग गया,
सतयुग आया, अब दोनों के एक-दूसरे में जो
प्रभाव है वो प्रभावित समय है ये। संगम युग है। बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय sss
। और कोई भाई बन्धु। अभी पौने चार हो रहा है और छः बजे फिर आना है।
५. जिज्ञासु :-
नमस्कार सरकार! एक बात है ये जो बोलता है वो कौन है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- भइया ! अभी तो आप शरीर
बोल रही हो, दिखाई
दे रहा है। जब खोजने चलोगी तो पता चलेगा कि जीव है। अभी तो दिखाई दे रहा है शरीर
बोल रही है लेकिन शरीर बोलती नहीं है। जब खोजोगी, पाओगी तो दिखाई देने
लगेगा कि जो हम बोल रहा है न, ‘हम’ शरीर नहीं जीव है। यही तो देखना चाहिये कि ‘हम’ कौन हैं। जब जीव से आगे
बढ़ोगी कि जीव कहाँ से आ गया? तो पता चलेगा कि ये आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म था और माया
के क्षेत्र में जब आया तो दोष-गुण से आवृत्त करके माया ने ही ईश्वर को जीव बना
दिया। तो दोष-गुण से युक्त आत्मा जीव है और दोष-गुण से निवृत्त जीव आत्मा है। ये
जो बोल रहा है जीव है मइया। आप भाग लो न, सब दिखलायेंगे। आप इसमें शरीक हो तो तेरे को जीव भी
दिखलायेंगे और ईश्वर भी तुम्हें दिखलायेंगे। परमेश्वर तो तब तक नहीं दिखलायेंगे, जब तक समर्पण नहीं
करोगी। लेकिन जीव ईश्वर दिखला देंगे। अरे भाग लो हम तेरे को ही दिखा देंगे मइया।
तू क्या बकवास में पड़ी है। तू इसमें शरीक हो, हम तेरे को ईश्वर दिखा
देंगे। अभी पास कर दे रहे हैं, भाग लो तेरे को ईश्वर दिखा देंगे। अभी पास कर दे
रहे हैं, भाग
लो तेरे को ईश्वर दिखा देंगे। अभी पास कर दे रहे हैं, भाग लो तेरे को ईश्वर
दिखायेंगे। जीव भी तेरे को दिखायेंगे। जीव भी तेरे को दिखायेंगे।
६. जिज्ञासु:- महात्मा
जी वैसे तो एक बात मुझे बहुत अच्छी लगी आज कि चार युग होते हैं,
सभी जानते हैं लेकिन ये चौथा युग संगम युग है,
पाँचवा युग संगम है वो आपने आज बताया है। वास्तव में ये है भी है सही। ये मैं भी
मानता था। इसलिये इसका मुझे सहारा मिला आपका। मैं बड़ा प्रसन्न हुआ।
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- बोलिये
परमप्रभु परमेश्वर की जय sss ! ये
पाँचवा नहीं है। हर एक युग जाता है और दूसरा आता है तो दोनों का जो संधि समय है,
मिलन बिन्दु है तो दोनों एक दूसरे को कुछ प्रभावित करते हैं। पिछला अगले में अगला
पिछला में। वो जो प्रभावित समय है उसको संगम युग कहा जाता है इसी के दूसरे नाम को
संधि बेला कहते हैं। संधि बेला कह दीजिये। संगम युग कह दीजिये। तो ये हर किसी में
होता है। दो नदियाँ भी मिलेंगी, दो
नदियाँ मिलेंगी तो मिलन बिन्दु पर कुछ दूर दोनों एक दूसरे को प्रभावित करके आगे
जायेंगे तो संगम कहलायेगा। दो रेल लाइन मेलेंगे तो जंक्शन कहलायेगा। दोनों पटरियाँ
कुछ भिन्न किस्म की होंगी। मिलन बिन्दु पर पहले से कुछ आगे तक दो ही पटरी नहीं
होगी। तीन चार पटरियाँ होंगी कुछ दूर तक। फिर इसी तरह से रोडवेज मिला यानी हर लाइन
में। देखिये जब आत्मा मिलेगा शरीर से, आत्मा
और शरीर मिलेंगे तो आत्मा-चेतन, शरीर-जड़
दोनों कैसे क्रियाशील होंगे तो दोनों का जो मिलन बिन्दु होगा तो शरीर से रूप आकृति
और आत्मा से क्रियाशीलता दोनों मिलकर के एक थर्ड भाग क्रियेट करते हैं,
वो है जीव जो दोनों के बीच बीचौलिया का काम का काम करता है। इधर शरीर के और उधर
आत्मा के, आत्मा से शरीर के जैसे ज्वाइंट
है। इस माउथपीस और स्टैंड ये सुविधा के लिये ज्वाइंट न रहे तो ये दोनों कैसे
जुड़ेंगे? कहीं भी दो चीज जब मिलेगा तो एक
तीसरी वस्तु एक ज्वाइंट मिलेगा। वैसे ही दो युग मिल रहा है ये ज्वाइंट है। ज्वाइंट
माने संगम युग।
७. जिज्ञासु :- ये सही
है। ये संगम युग जो है आपने बताया जो उसमें ये हुआ कि कलयुग का अब अन्त और सतयुग
का प्रारम्भ यही युग चल रहा है लेकिन पंचांग वगैरह जो बताते हैं अभी कलयुग का ये
बताया जा रहा है कि बहुत समय बाकी है। वो कलयुग ही चल रहा है इसके बारे में।
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- बोलिये
परमप्रभु परमेश्वर की जय sss ! ऐसा
है इस पर बड़ा बढ़िया कार्यक्रम चला था और कई बार चल चुका है लेकिन शायद आप
अनुपस्थित रहे हो, इसमें देखिये सुनिश्चित गणना
सिन्धु घाटी के पहले का कोई सुनिश्चित गणना नहीं है। आप पंचांग को निकालिये तो
2059 चल रहा है इसक पूर्व का कोई आद्य नहीं मिलेगा। कोई वर्ष गणना नहीं मिलेगा।
सबसे प्राचीन ये संवत् है, संवत्
है सन् है। शक् संवत् है, हिजरी
सन् है, बंगला सन् है,
नेपाली सन् है, ऐसा करते-करते इन आर्य समाजियों
ने जो मतिभ्रष्ट हैं ये सब तो सृष्टि संवत् लिखते हैं। इन सब पैदाइशी ही है
दयानन्द, डेढ़ सौ वर्ष और लिखते हैं सब
सृष्टि संवत्। अब उनको क्या कहा जाय मूर्खों को?
अब ऐसे ही प्रचलन में जैनाद्य और बौध्दाद्य भी आ गया। तो खैर वो तो संस्थायें हैं।
जैनाद्य, बौध्दाद्य तो ये पकड़ की चीज है।
2600 वर्ष तो जैन महावीर का हुआ, पच्चीस
सौ वर्ष कुछ बुद्ध का हुआ। तो इस तरह से जो है सिन्धु घाटी से पूर्व का कोई
सुनिश्चित वर्ष नहीं है। जैसे कृष्ण जी का ले लीजिये। घड़ी बेला है आधी रात के बाद,
तिथि है अष्टमी, पक्ष है कृष्ण,
मास है भादो। रामजी का ले लीजिये, समय है
दोपहर का लगभग दो बजे के करीब में दोपहर के पश्चात्,
दिन है मंगलवार, कृष्ण जी का दिन है बुधवार। अब
आइये इधर तिथि है नवमीं, पक्ष है
शुक्ल, मास है चैत। विष्णु जी का आइये
तिथि है चतुर्दशी, पक्ष है शुक्ल,
मास है कुवार। आज पृथ्वीराज चौहान को ले लीजिये,
आल्हा, उद्दल को ले लीजिये बरस नदारद।
जबकि वो इधर के हैं। अब ये गणना के आधार पर ये लोग ले रहे हैं। हालांकि ये लोग
बहुत पुराने नहीं है। ये लोग इतिहास के अन्दर हैं।
बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय sss
! इसीलिये जो लिखित चीजें हैं, अपने आप
तो परिवर्तित नहीं हो जायेंगे, किसी न
किसी के द्वारा उसको परिवर्तित करना पड़ेगा। व्यास जी जिस समय ये सब लिख रहे थे,
कलयुग वगैरह के विषय में,
निःसन्देह कलयुग 4,32,000 का होता
है। द्वापर 8,64,000 वर्ष का होता है। त्रेता
12,96,000 वर्ष का होता है। सतयुग 17,28,000
का
होता है। ये लेकिन अब सवाल है कि ये वर्ष गणना पुराना कोई हो तब तो उसे आकलन किया
जाय। दूसरी चीज कि कलयुग प्रथम चरन व्यास जी ने लिखा था सही था। लेकिन वह अपने आप
बदलेगा? या किसी के द्वारा बदलवाना होगा?
चारों युग जाता रहेगा। कलयुगे कलि प्रथम चरण पण्डित जी लोग रटते रहेंगे। इसलिये
युग जानने की पद्धति है। श्रीमद् भगवत् महापुरण के एकादश स्कन्द के दूसरे अध्याय
में जाया जाय तो पता चल जायेगा कि यही अवतार बेला है। कल्कि अवतार का यही समय है।
वैसी ही परिस्थिति है और जैसे ही कल्कि अवतार लेगा उसके पीछे-पीछे सतयुग भी यहाँ आ
जायेगा। वो ग्रह नक्षत्रीय उसमें दिया है। जाँच कीजियेगा तो पता चलेगा कि सतयुग
चालू हो गया है। ग्रह नक्षत्र का गणना भी है।
८. जिज्ञासु:- जीव और ईश्वर दोनों एक ही है या थोड़ा सा
भिन्न ये है आपने अभी जैसे बताया है कि जब शरीर में आत्मा शुद्ध रहती है तो आत्मा
और थोड़ा सा जीव से सम्बन्ध हो जाती है तो जीव और परमेश्वर तो इनसे अलग है। ये बात
बिल्कुल सत्य है। इनका पिता परमेश्वर है यानी वो सब कुछ वही है। इनमें मेरा प्रश्न
वही है। मुझे जानना ये है प्रश्न नहीं है सिर्फ जानना है कि वो जीव शरीर के अन्दर
है, आत्मा भी शरीर के बाहर है.........
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- अन्दर-बाहर दोनों,
जीव शरीर के अन्दर, आत्मा भीतर-बाहर दोनों परमात्मा
परमधाम अथवा अवतारी पुरुष में।
९. जिज्ञासु:- वो परमात्मा बाहर है और परमधाम में है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- और अवतारी पुरुष में है।
१०. जिज्ञासु:- अवतारी पुरुष है लेकिन वह परमात्मा जो
है वो निराकार है या साकार है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- परमात्मा?
जब तक वो निराकार के रूप में रहेगा, इस
ब्रह्माण्ड में कोई भी उसको जानने-पकड़ने वाला नहीं है कोई भी। जब वह निराकार
परमात्मा इस भू मण्डल पर अवतरित होकर किसी सगुण साकार शरीर को धारण करता है तो उस
सगुण साकार शरीर के माध्यम से अपने निर्गुण निराकार परमात्मा का ज्ञान देता है और
निर्गुण निराकार परमात्मा का,
परमेश्वर का जब मिलन कराता है, दर्शन
कराता है, तो दर्शन कर्ता को दिखाई देता है
तो वह सगुण साकार परमात्मा का परिचय-पहचान प्राप्त करता है। तो एक निर्गुण मिल ही
नहीं सकता। सगुण पहचान में आ ही नहीं सकता। जब भी मिलेगा दोनों एक साथ मिलेगा। एक
मिल ही नहीं सकता।
११. जिज्ञासु:- निर्गुण को देख ही नहीं सकते,
सगुण जब आयेगा तो पहचान नहीं सकते?
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- सगुण को पहचान ही नहीं
सकते। निर्गुण को सगुण के बिना जान-देख ही
नहीं सकते और सगुण को निर्गुण के बिना पहचान-परख ही नहीं कर सकते। निर्गुण निराकार
को सगुण साकार के बगैर जान ही देख नहीं सकते और निर्गुण निराकार के बगैर सगुण
साकार को परख ही पहचान नहीं सकते। जब भी मिलेगा दोनों एक साथ मिलेगा। एक नहीं
मिलेंगे, नहीं मिलेगा।
१२.जिज्ञासु :- वह अवतार लेता है तो वह अपना परिचय
स्वयं देता है? ये बात तो है ही।
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- और दूसरा जानता ही कौन है कि
परिचय देगा।
१३. जिज्ञासु :- अवतार जो लेता है और जन्म जो होता है
तो अवतार और जन्म में कुछ अन्तर है या दोनों एक ही है?
अवतार लेता है वो परमेश्वर परमात्मा तो अपने बारे में बताता है,
निर्गुण के बारे में तो वो अवतार जो लेता है तो अवतार लेना और जन्म लेना जो कि
सगुण में आना है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- जन्म लेना उस पर लागू होगा
शब्द, शब्द अलग-अलग है जन्म-मरण,
प्रकट और विलय, मृत्यु,
अविनाशी, अमरत्व तीनों अलग-अलग है। वैसे
जन्म, प्रकट और विलीन और अवतार तीनों
अलग-अलग है। जो भोग के सिद्धान्त से, जो कर्म
और भोग के सिद्धान्त से जो जन्मने और मरने की केटीगिरी में होता है जैसे जीव,
इसका जन्म होता है। भगवत् दूत के रूप में अंशावतारी आते है,
अंशावतारी आते हैं वो आत्मा रेंज के, ईश्वर
रेंज के होते हैं। उनका भी दोनों उनपर लागू होगा,
जन्म भी लागू होगा और अवतार बोलेंगे तो अंश बोलना होगा,
अंशावतार और जब परमब्रह्म परमेश्वर आता है तो उसको पूर्णतः अवतार बोलते हैं।
अवतरण-परमधाम से भू-मण्डल पर उतरना। अवतरण,
अवतरित होना। इसलिए वो अवतार,
जन्म-मृत्यु के सीमा से, परिधि
के बाहर से है।
१४. जिज्ञासु :- मेरा यहीं पर ही यह जानना है कि भगवान्
राम जो हैं, भगवान् कृष्ण जो हैं ये परमेश्वर थे, या भगवान थे ?
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- भगवान राम परमेश्वर नहीं थे। भगवान कृष्ण, भगवान राम, भगवान विष्णु परमेश्वर नहीं थे, लेकिन इन शरीरों के माध्यम से जो अपना लीला कार्य सम्पादन कर रहा था, वो परमेश्वर था। इसलिये ये भी परमेश्वर कहलाये।
१४.१ जिज्ञासु :- परमेश्वर ही तो अवतरित हुये थे इनमें?
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- हाँ।
१४.२ जिज्ञासु :- फिर ये परमेश्वर क्यों नहीं हुये?
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- भगवान राम परमेश्वर नहीं थे। भगवान कृष्ण, भगवान राम, भगवान विष्णु परमेश्वर नहीं थे, लेकिन इन शरीरों के माध्यम से जो अपना लीला कार्य सम्पादन कर रहा था, वो परमेश्वर था। इसलिये ये भी परमेश्वर कहलाये।
१४.१ जिज्ञासु :- परमेश्वर ही तो अवतरित हुये थे इनमें?
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- हाँ।
१४.२ जिज्ञासु :- फिर ये परमेश्वर क्यों नहीं हुये?
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- 15
को दिखाऊँगा इनको। भगवान विष्णु को, भगवान् राम को, भगवान् राम को, भगवान् कृष्ण को। मूर्ति
फोटो नहीं, उसमें
जो परमेश्वर अवतरित हुआ था, उस परमेश्वर को भी दिखलाऊँगा कि देखिये ये विष्णु
वाले परमेश्वर हैं कि नहीं? देखिये ये राम जी वाले परमेश्वर हैं कि नहीं? ये वास्तविक विष्णु जी, भगवान वाला विष्णु जी है कि नहीं ? ये भगवान वाला राम है कि नहीं? ये भगवान् वाले कृष्ण है
कि नहीं? ये भी
दिखलाऊँगा और ये भ्रम दूर हो जायेगा कि कृष्ण आदमी थे कि कृष्ण जीव थे कि कृष्ण
महात्मा-आत्मा वाले थे या कृष्ण परमात्मा परमेश्वर वाले अवतारी थे, ये भ्रम दूर हो जायेगा, जब सामने दर्शन हो
जायेगा।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:-
बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की sssजय ! इस आँख को माध्यम बनाकर जो देखने वाला है न इन
सबसे बड़ा है। इस आँख से, आँख को माध्यम बनाकर देखने वाला है वो सबसे बड़ा है।
अब रही चीजें यह एक क्षमता-शक्ति है। हम जीव, आत्मा और परमात्मा ये सब
लिंक बद्ध है। जैसे आप बल्ब लगाएँ हैं ये बल्ब है न, ये माइक लगा है इसका
लिंक यहाँ से पावर हाउस तक है। कई कि॰मी॰ का पावर हाउस है। पावर हाउस से पूरा
संचालन चारों तरफ हो रहा है तो उसी तरह से परमधाम में बैठा परमेश्वर जो है अवतार
बेला में अवतारी शरीर में है। परमेश्वर हमेशा परमधाम-अमरलोक-पैराडाइज-विहिस्त में
रहता है। वहीं से एक जगह सारी सत्ता-शक्ति उसी की है, उसी से है, उसी द्वारा संचालित है।
तो ये जो देखने की क्षमता-शक्ति कैपासिटी परमेश्वर के तरफ से ईश्वर के माध्यम से
जीव को मिलती रहती है हर ४ सेकंड पर। और उसी क्षमता-शक्ति के माध्यम से जीव जो है ये सब देख रहा है। हमारी आपकी आँख को माध्यम बनाकर। हमारी आपके इस स्थूल
आँख को माध्यम बनाकर के, ये सब जीव जो है परमेश्वर की ईश्वरीय सत्ता-शक्ति के
माध्यम से देखते रहता है।
१५. जिज्ञासु :- ज्ञानार्जन के अन्तर्गत कर्म नहीं होता
है ?
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- कर्म में माध्यम बनती है
कामिनी और कांचन-स्त्री और धन-सम्पदा। माध्यम बनती है—परिवार और धन-सम्पदा। धर्म
का माध्यम सद्गुरु और भगवान् बनता है। धर्म का लक्ष्य है—मोक्ष,
जबकि कर्म का लक्ष्य है—भोग।
सिविल रूल और रेग्युलेशन मिलिट्री में लागू नहीं
होगा। ज्ञानार्जन धर्म क्षेत्र का विषय है। उस पर कर्म का विधान नहीं लागू होगा।
जानकारी नहीं होगी तो कैसे कर्म करेंगे?
जीविकोपार्जन हेतु जो करते हैं वह है कर्म।
हर जानकारी ‘ज्ञान’
का ही अंश है। जानकारी ही है जो बुरी नहीं है। बुरी चीज की भी जानकारी जरूरी है।
जानकारी ही ऐसी है जो बुरी होती ही नहीं है। परमेश्वर की जानकारी ही पूर्णज्ञान
है। जब तक आपकी जानकारी पूर्णता को प्राप्त नहीं होगी,
तब तक परमेश्वर की प्राप्ति नहीं होगी।
कर्म से ज्ञान नहीं,
ज्ञान से कर्म होता है। जब ज्ञानार्जन हो जाएगा और जब गृहस्थ में उतरेंगे,
तब रास्ता आपको दिखलाई देगा। तब कुछ नहीं बिगड़ेगा। सड़क पर चलते समय बगल में भी
देखते हुए भी चलेंगे तो भी कुछ नहीं बिगड़ेगा। वहाँ सच्चा धर्म है जो जानकारी के
अन्तर्गत होगा। हमको रोटी खानी है और उठाकर कान में डाल लें;
चाय पीनी है---जानकारी नहीं है और आँख में या कान में डालना शुरू कर दें। इसलिए
किसी भी प्रकार के कर्म के पहले जानकारी जरूरी है। संसार जो कुछ भी है जहाँ भी
है, सब अपूर्ण है---केवल
भगवान् ही पूर्ण है।
१६. जिज्ञासु:- भगवान् कौन है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- भगवान् शरीर नहीं है---वह
सर्वोच्च सत्ता शक्ति है। संपूर्ण ब्रह्माण्ड का अकेला मालिक है। नर और नारायण दो
हैं। वही नर और नारायण लक्ष्मण और श्री राम और अर्जुन और श्रीकृष्ण रूप में कहे
जाते हैं। आप नर हैं, नारायण नहीं। नारायण को खोजना
है। अर्जुन ने केवल नारायण को लिया, न कि
राज-सम्पदा या धन-सम्पदा या धन-सम्पदा और सफल हुआ। नारायणी नहीं लिया था। नर की
सफलता नारायण के साथ है।
तुलसी इस संसार में सबसे मिलिए धाय;
न जाने किस वेष में नारायण मिल जाय ।
गीता में अन्तिम उपदेश है----
त्वमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परा शान्ति स्थान प्राप्स्यसी शाश्वतम्
।।
(गीता १८/६२)
अर्थात् हे भारत ! सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही
अनन्य शरण को प्राप्त हो, उस
परमात्मा की कृपा से (ही) परमशान्ति को (और) सनातन परमधाम को प्राप्त होगा।
नर जीवन की सफलता नारायण के साथ रहने में है। आप
नारायण को जानें देखें और हर प्रकार उसके सेवा में लगें। श्री रामचन्द्र जी ने
लक्ष्मण से कहा था---
गुरु पितु मातु बंधु पति देवा।
सब मोहि कह जाने दृढ़ सेवा।।
वहाँ ‘राम’----शरीर
नहीं बोल रहा था---‘राम’
शरीर से ‘भगवत्तत्त्व’
बोल रहा था।
इसलिए नारायण को जानिए,
खोजिए उसका बनिए; जब जैसा जहाँ जरूरत पड़ेगी वह
नारायण पूरा करेगा। नारायणी सेना भी नारायण के विरोध में सहायता नहीं कर सकी।
अर्जुन कहे थे कि रथ की बागडोर देने नहीं आए हैं,
जीवन की बागडोर देने आए हैं। नारायण को पाकर उसको अपने जीवन की बागडोर दे
दीजिये---नारायण के साथ रहेंगे तो कहीं कुछ असम्भव नहीं---नहीं तो नारायणी सेना भी
कुछ नहीं सहायता कर सकेगी। गुरु भी साथ नहीं देगा यदि नारायण प्रतिकूल हो जाएगा।
नारायण के अनुसार रहने-चलने में, नारायण
के अनुकूल रहने पर सभी अनुकूल रहेंगे। इसलिए नारायण की खोज कीजिए। नारायण के हाथ
में अपने जीवन को दे दीजिए। लेकिन नारायण विहीन होने पर हर प्रकार से कष्ट-परेशानी
और अभाव है। हर किसी को नारायण के हाथ अपने जीवन का बागडोर दे देना चाहिए।
लक्ष्मण ने नारायण के लिए सब कुछ त्यागा---क्या
नहीं त्यागा ! आज जहाँ भी श्री राम की मूर्ति रहती है,
लक्ष्मण की भी मूर्ति जरूर रहेगी। नारायण स्वीकार कीजिए,
नारायणी सेना नहीं, नारायण जब सन्तुष्ट रहेंगे तब सब
कुछ मिल जाएगा। आप लोगो से सद्भाववश यह कहा जा रहा है।
एकहि साधे सब सधे और सब साधे सब जाय ।।
हम तो कहेंगे---भातृत्त्व-चाहे गुरुत्त्व के नाते
कहेंगे कि नारायणी सेना नहीं नारायण स्वीकार कीजिए। उसी को अपने जीवन का बागडोर दे
दीजिए।
यह ध्यान-ज्ञान भी ईश्वर-परमेश्वर का है। आप
प्राप्त कर रहे हैं या नहीं, ले रहे
हैं या नहीं---यह आपके ऊपर है। हम तो तैयार हैं-----हमारा जो कार्य बनता है,
वह कर्तव्य पालन में लगे हैं----अपने भाइयों को इससे युक्त करने के लिए,
देने के लिए ही आए हैं।
१७. जिज्ञासु:- खोजने का कार्य क्या कर्म नहीं है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- यदि नारायण के खोज में है तो
वह जिज्ञासा कहलाएगी। उसके लिए ‘कर्म’
नहीं कहा जाएगा। जिज्ञासा कहा जाएगा। आप किराना की दुकान पर चाय माँगेंगे तो चाय
पत्ती दे देगा किन्तु स्टाल पर माँगेंगे तो प्याले में दूध-पानी-चाय-चीनी सबसे
बनाया हुआ चाय देगा।
‘ज्ञान’
पूर्ण है। ध्यान उसमें का एक अंश है। शिक्षा,
स्वाध्याय और अध्यात्म उसमें है। जीव, ईश्वर
देखने की जो क्रिया करता है उस क्रिया का नाम है-----ध्यान। ‘ज्ञान’
के अनुसार थोड़ा सा रहने-चलने को रखा जाय तो गलती का चान्स ही नहीं रहेगा। ‘ज्ञान’
गलती करने से रोकेगा। धर्म उसकी रक्षा करता है जो धर्म की रक्षा करता है। देखिए,
जानिये; जाँच कीजिए और ‘सत्य’
ही हो तो स्वीकार कीजिए। सद्ग्रन्थ उत्प्रेरित करता है---वेद उत्प्रेरित करता है
कि तत्त्वदर्शी सत्पुरुष के पास जाओ। अन्ततः ‘ज्ञान’
मिलेगा तत्त्वदर्शी सत्पुरुष से; और वही ‘ज्ञान’
देगा, जिसमें भगवान् का साक्षात् दर्शन
होगा। सद्ग्रन्थ ‘ज्ञान’
नहीं देता है---सद्ग्रन्थ उत्प्रेरित करता है।
१८. जिज्ञासु :- ग्रन्थ में कर्म की प्रधानता है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- तुलसीदास ने कर्म के बारे
में अज्ञानता में कहा है कि-----
कर्म प्रधान विस्व करि राखा ।
और शंकर जी ने ‘ज्ञान’
के अन्तर्गत कहा है----
होइहि सोइ जो राम रचि राखा।
गीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं----
अर्थात् सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किए
हुए हैं (तो भी) अहंकार से मोहित हुए अन्त-करण----वाला पुरुष मैं कर्ता हूँ ऐसे
मान लेता है।
‘ज्ञान’
में तो कर्म ही समाप्त हो जाते हैं;
देखिए----
अर्थात् हे अर्जुन ! सांसारिक वस्तुओं से सिद्ध
होने वाले यज्ञ से ज्ञानरूप यज्ञ (सब प्रकार) श्रेष्ठ है (क्योंकि) हे पार्थ !
सम्पूर्ण यावन्मात्र कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं।
वास्तविकता तो यह है कि
सब कुछ प्रकृति द्वारा किया-कराया जा रहा है। ज्ञानी क्या देखता है कि मेरे द्वारा
कुछ भी नहीं किया जा रहा है-----सब परमेश्वर करवा रहा है।
१९. जिज्ञासु:- परमश्रद्धेय तत्त्ववेत्ता,
तपोनिष्ठ स्वामी जी के चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम। हम आपके चरणों में निवेदन करते
हुए पुछेंगे कि अंश की परिभाषा क्या है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की
जय sss । जैसे मान लीजिए कोई ठोस वस्तु है। बहुत बड़ा
वस्तु है उसमें से कोई बड़ा चीज टूट गया। उसको खण्ड कहते हैं और वही चीज जो टूटने
वाला नहीं है जैसे तरल पदार्थ है, दूध है,
पानी है, या कोई ऐसा चीज जो टूटने वाला
नहीं होता है लेकिन विभाग हो जाता है, छिटक कर
के वो अलग हो जाता है उसको अंश कहते हैं। जैसे समुद्र है जो भी जल जहाँ भी है धरती
पर समुद्र का अंश है जो भी जल धरती पर जहाँ कहीं भी है समुद्र से अलग वो समुद्र का
अंश है। ये जो किरणें हैं, ये
रोशनी जो बिखरी फैली है चारों तरफ ये सूरज की अंश है और इसका अंशी सूरज है। उसी
तरह से आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म भी परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म का अंश है। ये सारा
ब्रह्माण्ड जो है परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म का अंश है और
परमात्मा-परमब्रह्म-परमेश्वर जो है, खुदा-गॉड-भगवान्
जो है इसका अंशी है। यही अंश और अंशी है।
२०. जिज्ञासु:- स्वामीजी ने एक बात कहा था कि बिना पिता
जी के माँ शायद एक प्रश्न भी आया था बीच में तो ये तो प्रार्थना में भी कहा गया था
कि ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव’
जब वो सब कुछ है— गॉड सब कुछ है-वो ही पिता है-वो ही माँ है तो फिर अलग रूप कहाँ
से हो गया, द्वेतवाद कहाँ से आ गया?
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की
जय sss ! परमात्मा एक ऐसा शब्द है,
परमेश्वर एक ऐसा शब्द है,
परमब्रह्म खुदा-गॉड-भगवान् एक ऐसा शब्द है जहाँ द्वेत् दो शब्द नहीं है। अद्वेत्
है अद्वेत्त है। ‘ला अलाह’
यानी मात्र एकमात्र एक वही पूजनीय है अल्लाह,
दूसरा नहीं। अद्वेत् माने दूसरा नहीं, ‘एकोब्रहम
द्वितीयोनास्ति’। ‘वनली
वन यानी विदाउट सेकण्ड’ अद्वेत्,
वनली वन गॉड, एकॐकार सत्श्री अकाल शब्द,
एक ही एक-वनली वन-अद्वेत्, विदाउट
सेकण्ड, ला अलाह,
एक ही एक तो कह रहा है। तो जहाँ एकमात्र एकमेव एक ही एक है वो,
वहाँ तो सब कुछ है उसमें। उसको माता-पिता भाई-बन्धु जो चाहिए सो घोषित करके बोलिए,
वहाँ वो लागू होगा। लेकिन सत् संसार में बोलिएगा तो परमात्मा को माता जी नहीं कहा
जा सकता। माता कहेंगे तो पिता भी तुरन्त कह देना होगा। पिता कहते हैं तो परमेश्वर
मिलने पर माता खोजना नहीं पड़ेगा वो खुद माता-पिता दोनों रोल खुद वह ही करता है।
लेकिन जब माँ शब्द उच्चारण कीजिएगा तब वहाँ पिता की अनिवार्यता होगी। माँ शब्द जब
उच्चारित कीजिएगा तब वहाँ पिता की अनिवार्यता होगी। इसलिए और ये जो मन्त्र की बात
आ रही है माँ कहने की, जो भी शक्तियाँ हैं। जगत्
उत्पन्न करने वाली शक्तियाँ भी परमेश्वर से ही प्रकट होती हैं। जगत् को स्थित बनाए
रखने वाली शक्ति भी परमेश्वर से ही पैदा होती है। जगत् को नियंत्रित करने वाली,
लय-प्रलय, विलय करने वाली शक्ति भी
परमेश्वर से ही पैदा होती है। जब परमेश्वर का दर्शन कराऊँगा,
तो आप लोगो को आदिशक्ति का भी दर्शन होगा,
आदि उत्पन्न करने वाली शक्ति भी दर्शन में दिखाई देगी। यानी स्थित रखने वाली शक्ति
भी दर्शन में दिखाई मिलेगी। और लय-प्रलय, विलय
करने वाली शक्ति भी मिलेगी। ये तीनों शक्तियाँ,
उत्पत्ति-स्थिति-लय-प्रलय करने वाली तीनों शक्तियाँ है ये तीनों ही
परमात्मा-परमेश्वर से प्रकट होते हुए, उत्पन्न
होते हुए दिखलाई देगी। उन्हीं द्वारा संचालित दिखलाई और अन्ततः उन्हीं में अभिन्न
रूप से स्थित दिखलाई देगी। इसी का नाम विराट होगा और वही विराट दर्शन कहलाएगा। जो
आपके गीता अध्याय 13 के श्लोक 11, 12,
13 वें में आपको मिलेगा कि यही विराट है। वेद वाला विराट,
अर्जुन वाला विराट, कौशल्या वाला विराट,
कागभुशुण्डि वाला विराट, यशोदा
वाला विराट वहीं है। ये दिखाई देगा।
२१. जिज्ञासु :- 28 तारीख को समय कितने बजे राठ वालों
का भाग्योदय होगा? 28 तारीख को जो विराट रूप के
दर्शन परमात्मा के दर्शन, जीव के
दर्शन जो होंगे उस समय कितने बजे होगा?
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- जब आप इस सत्संग में भाग
लेते रहेंगे।
२२. जिज्ञासु :- तो समय क्या होगा?
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- जब नित्यप्रति 22 तारीख तक
11 से 1 बजे, 2 बजे तक सत्संग में भाग लेना,
शाम के 6 बजे से, 8-9 बजे 10 बजे तक सत्संग में
भाग लेना और लेता चलेगा। वो पात्रता परीक्षण में 23-24 तारीख को कि आप भगवत्
प्राप्ति के पात्र हैं कि नहीं हैं, दो दिन
उससे गुजरेगा और फिर 25-26 से शुरू हो जाएगा। तो जो उससे गुजरेगा तो
पात्रता-परीक्षण के अंतिम दिन बता दिया जाएगा कि कब और कहाँ दर्शन होगा?
और कोई भाई-बन्धु बड़े प्रेम से आइए हम लोगों को यहाँ टकराव की प्रतिस्पर्धा नहीं
है, जानना है,
जनाना है। प्रेम से आइए आप अपनी शंकाओं का समाधान लीजिए,
प्रेम से आइए अपनी शंकाओं का समाधान लीजिए कोई हर्ज नहीं। आइए ऐसे सुअवसर का लाभ
लीजिए आप बन्धुजन क्यों बैठे हैं? नाना
प्रकार की शंकायें आपके दिल-दिमाग में होंगी। नाना प्रकार की बातें होंगी। आप
बन्धुजन को आना चाहिए प्रेम से अपनी बातें रखनी चाहिए। ये चांसेस हर जगह नहीं
मिलेंगे, हर कहीं नहीं मिलेंगे की खुले
पण्डाल में सबके बीच में ऐसा बोलने, पूछने
का चांस। इस समय का लाभ लीजिए, बंधुजन।
(नोट: यह प्रश्न जिला-हमीरपुर,
राठ में दि॰ १४ दिसम्बर २००२ से २८ दिसम्बर २००२ तक जीव एवं आत्मा और परमात्मा
तीनों का साक्षात् दर्शन कार्यक्रम में किसी जिज्ञासु द्वारा पूछा गया है)
२३. जिज्ञासु:- महाराज जी आपको हार्दिक प्रणाम। मैं ये
पूछना चाहता हूँ आदमी की जो आँखें हैं और ये छोटा इतना सा है लेकिन वो इतना बड़ा
रूप कैसे देखता है। छोटी-छोटी आँखें है इतना सा,
लेकिन बहुत सारा दिखाई देता है ये क्या?
२४. जिज्ञासु:- एक कथन मेरा ये है अगर ये विराट रूप का
जो दर्शन है आदमी को जिस टाइम देखाई देगा,
उसी टाइम क्यों मृत्यु हो जाती है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं, अर्जुन मर गए थे विराट देखने के बाद ? कागभुसुंडी मर गए थे ?
जिज्ञासु :- भगवान की मृत्यु हुई या आत्म हत्या की भगवान ने ? आत्म हत्या की सरयू नदी में श्रीराम जी ने, श्री कृष्ण जी मरे।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- भगवान् तो नहीं मरा। राम जी वाली और कृष्ण वाली शरीर तो भगवान् जी थे ही नहीं। उस शरीर वाला भगवान् जी था जो न जन्मता है न मरता है। वो तो था, है, रहने वाला है। हम जिस भगवान का दर्शन करायेंगे उसमें ये सब जन्म-मृत्यु वाला ये सब विकार नहीं होगा। वो देश-काल परिस्थिति वाला दोष नहीं होगा उसमें, वो सृष्टि के पहले भी था, सृष्टि के बाद भी रहेगा, ये सृष्टि उसी से, उसी में, उसी द्वारा होने वाला एक खेल है। ऐसा दिखाई देगा।
जिज्ञासु :- भगवान की मृत्यु हुई या आत्म हत्या की भगवान ने ? आत्म हत्या की सरयू नदी में श्रीराम जी ने, श्री कृष्ण जी मरे।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- भगवान् तो नहीं मरा। राम जी वाली और कृष्ण वाली शरीर तो भगवान् जी थे ही नहीं। उस शरीर वाला भगवान् जी था जो न जन्मता है न मरता है। वो तो था, है, रहने वाला है। हम जिस भगवान का दर्शन करायेंगे उसमें ये सब जन्म-मृत्यु वाला ये सब विकार नहीं होगा। वो देश-काल परिस्थिति वाला दोष नहीं होगा उसमें, वो सृष्टि के पहले भी था, सृष्टि के बाद भी रहेगा, ये सृष्टि उसी से, उसी में, उसी द्वारा होने वाला एक खेल है। ऐसा दिखाई देगा।
२५. जिज्ञासु:- वो बात सत्य है ईश्वर तो पूर्ण है ही।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- ईश्वर पूर्ण नहीं है।
परमेश्वर पूर्ण है।
२६. जिज्ञासु:- परमेश्वर पूर्ण है। मान लो परमेश्वर न
मान कर के हम ईश्वर को भी पूर्ण मानते हैं।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अब मान लीजिए हम इसको चादर
मान लें। तो चादर थोड़े हो जाएगा। मान लीजिए हम इसको कम्बल मान लें,
रजाई मान लें, ये कम्बल-रजाई थोड़े होगा। ये तो
हैण्ड तौलिया है।
२७. जिज्ञासु:- तो हमें परमेश्वर की किस प्रकार पूजा
करनी चाहिए कि उसकी प्राप्ति हो।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बस पहले जिस रूप में परमेश्वर
हो उसको जानिए,देखिए। जब अपने पूजनीय को जानिएगा
नहीं तो पूजा आपका कैसे मंजूर होगा? पहले
जानिए देखिए-समझिए-परखिए जब लगे कि ये पूजनीय है और इसमें हमारी मंजिल
मुक्ति-अमरता है तो पूजा कीजिए। उसी समय पूजा की पद्धति का पता चल जाएगा।
२८. जिज्ञासु:- नहीं तो ऐसा फिर तो कई लोग शंकर के भक्त
हैं, कई लोग तो देवी के भक्त हैं,
कई लोग जो तो अपने आप के भक्त हैं। सोsहँ वाले
कई गुरुजी के भक्त हैं।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- एक मिनट। एकहि सब सधे,
सब साधे सब जाए। जो इस सृष्टि वृक्ष को जानता है वो मूल में खाद-पानी दिया जाता
है। फिर एक साथ शाखा को भी,
टेना-टहनी को भी, पत्तों को भी,
फूल को भी, फल को भी उसका रस चला जाता है।
जब परमेश्वर का पूजा कीजिएगा तो एकही साधे सब सधे और जब सबका पूजा करने लगिएगा तो
सब साधे सब जाए। तैतींस करोड़ देवी-देवता नाम लेने में ही जिन्दगी गुजरने लगेगी। तो
पूजा कहाँ से कर पाइएगा?
२९. जिज्ञासु:- नहीं ये जो भिन्नता.....
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- इसलिए देखिए। जब घर के
गार्जियन से आपको अपनत्व हो जाएगा तो घर के सारे लोग उस अपनत्व में आ जाएँगे।
लेकिन किसी लड़के-बच्चे से अपनत्व कीजिएगा तो घर वालों से भी अपनत्व बढ़ाना पड़ेगा।
जब एक परमात्मा से परमेश्वर से व खुदा-गॉड-भगवान् को जब अपना पूजनीय बना लीजिएगा
तो हर कोई आपको मान्यता देने के लिए मजबूर हो जाएगा। लेकिन जब दूसरे को मान्यता
दीजिएगा, दूसरे को इष्ट-अभीष्ट बनाइएगा तो
उससे बड़ा वाला उससे सुनने को तैयार नहीं होगा। जब एस॰पी॰ साहब आपको मान्यता देने
लगेंगे तो जिला के सब इंस्पेक्टर साहब जी लोग बिना कहे महत्ता देने लगेंगे। लेकिन
जब इंस्पेक्टर साहब जी से दोस्ती होगी तो कोई जरूरी नहीं है कि एस॰पी॰ साहब आपको
महत्ता, महत्व देने लगें। तो उसी तरह से
यदि प्रधानमंत्री जी से संबंध हो जाए तो हर कोई महत्ता,महत्व
देने लगेंगे लेकिन अब नीचे किसी से संबंध हो जाए तो प्रधानमंत्री जी महत्ता देंगे
कोई जरूरी नहीं है। तो परमेश्वर से जब संबंध हो जाएगा और उनसे जब पुजारी हो जाइएगा
तो ब्रह्माण्ड का हर कोई आपको महत्व, मर्यादा
देने के लिए मजबूर हो जाएगा और किसी का होइएगा तो परमेश्वर मजबूर नहीं होगा। कौन
राक्षस है जो शक्ति का पुजारी नहीं था? शक्ति
या शंकर का? एक भी राक्षस ऐसा न मिलेगा जो
शंकर-शक्ति का पुजारी न हो। पुजा किया, सिद्ध
हुआ, बल मिला राक्षस हो गया। जो भी शंकर-शक्ति के
पुजारी हैं सिद्ध होते ही असुर राक्षस होना ही है। सिद्ध होते ही,
बता दे कोई कि शंकर जी का चाहे शक्ति का कोई भक्त-पुजारी सिद्ध हुआ हो और असुर
राक्षस न हो गया हो। सिद्ध हुआ हो और असुर राक्षस न हुआ हो वर पाते ही। राम जी का
भक्त यदि किसी परिस्थितिवश असुर-राक्षस भी होगा न तो राम जी जिम्मेदारी ले लेते हैं उसको मुक्त करने के लिए। भगवान जी जिम्मेदार ले लेंगे । तो भगवान का भक्त ही जल्दी असुर राक्षस नहीं होता है। असुर-राक्षस में भी यदि
भगवान् का पुजारी होगा तो वो भी पूजनीय (मान्य) हो जाएगा सम्माननीय हो जाएगा।
देखिए प्रहलाद को। देखिए बलि को राक्षस परिवार में से तो हैं। देखिए विभीषण को।
देखिए रावण को। ‘उत्तम कुल पलस्त्य कर नाती।‘
कौन बड़ा है रावण से। भक्त शंकर जी को, अपना
दसों सिर चढ़ा दिया था। क्या रावण में भी भक्ति नहीं थी क्या?
लेकिन भक्ति गलत जगह शंकर जी के पास चली गई। अगर वही भक्ति राम जी के पास होती न
तो अमरत्व मिला होता। वही भक्ति राम जी की होती तो अमरत्व मिला होता। कौन ऐसा
राक्षस-असुर है जो शक्ति का भक्त नहीं है। शक्ति-सत्ता का चाहे शंकर का भक्त नहीं
है। कौन ऐसा भक्त है जो शंकर या शक्ति का हो जिसका कभी कलेण्डर में नमन-वंदन करने
वाला फोटो बना हो।
३०. जिज्ञासु:- किसी समय मैंने जब योग में देखा वहाँ न
राम हैं, न श्याम हैं,
न घनश्याम हैं, न ॐ है,
न शंकर हैं, वहाँ शून्य है और वो मुझे दिख
रहा है, प्रतीत हो रहा है। यहाँ शून्य है,
तो शून्य हो जाने वाला चेतन ही उसे ईश्वर मानू या ब्रह्म मानूँ या जीव मानूँ,
ये भ्रम हो गया है थोड़ा। इसे मैं आपके द्वारा जानना चाहूँगा।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की
जय ! ऐसा है कोई चीज जब लोक-लुकववा पाया जाता है तो इन झटका में पाया जाता है तो
उसकी जानकारी जब नहीं होती है तो तुलसीदास ने एक पंक्ति लिखा है। देखहिं रूप
नाम बिन जाने। करतल गत न परत पहचाने ।।
हाथ में ही हमारे वस्तु है हम इसको देख रहे हैं;
लेकिन इसकी जानकारी जब तक नहीं होती है तो इसका पहचान भी नहीं हो पता है और पहचान
नहीं होगा तो इसका लाभ नहीं मिलेगा। तो वही लोक-लुकवा कहीं से कुछ पायेंगे तो ऐसे
ही भ्रम होगा। इसके लिये विधान बना है और योग के विषय में,
योग-अध्यात्म के देखिये क्रिया के विषय में अब तक जहाँ भी जितना भी वर्णन है उसमें
पातंजल ऋषि वाला जो अष्टांग योग है वो सबसे बढ़िया तरीका है,
सबसे बढ़िया विधान है। अष्टांग योग उनका जो है यम,
नियम, आसन,
प्राणायाम, प्रत्याहार,
धारणा, ध्यान,
समाधि। ये आठों जो अंग हैं से शुरू होता है। यम जो है अब तो लम्बा समय ले लेगा ये
तो विषय बड़ा हो जाएगा। अब हम यम बतायें, तो पाँच
प्रकार का यम है, तो पाँच प्रकार का नियम है तो
चौरासी प्रकार का आसन है जिसमें कम से कम 10 तो महत्त्वपूर्ण है ही है। फिर इसके
बाद प्राणायाम है, तो प्राणायाम भी तीन प्रकार का
है। रेचक है, कुम्भक है,
पूरक है, कुम्भक है,
तो पूरक है, तो कुम्भक है तो रेचक है। तो फिर
प्रत्याहार पर चला जायेगा तो फिर वो धारणा,
ध्यान, समाधि भी दो प्रकार की होती है।
एक सबीज समाधि, दूसरे निर्बीज समाधि। एक सविकल्प
समाधि है, दूसरा निविकल्प समाधि,
एक सम्प्रज्ञात समाधि या दूसरी असम्प्रज्ञात समाधि। एक सविचार समाधि तो दूसरा
निर्विचार समाधि। इसलिए विषय थोड़ा लम्बा हो जायेगा। शार्टकट में बता रहे हैं,
पकड़ने का थोड़ा कोशिश कीजियेगा। बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय !
ये जो आप ध्यान करने बैठते हैं। ध्यान आपसे बढ़िया
हो ही नहीं पायेगा। क्योंकि जब तक हम पाँचवी मंजिल नहीं बनायेंगे। छठवीं मंजिल
कहाँ बनायेंगे? हम पाँचवी सीढ़ी नहीं बनाएँगे तो छटवी सीढ़ी को किस पर टिकाएंगे? यानि प्रत्याहार है पाँचवी सीढ़ी,
धारणा है छठवीं। जब हम प्रत्याहार वाला स्टेप नहीं बनायेंगे,
मंजिल नहीं बनायेंगे तो धारणा बनेगी ही नहीं और धारणा बनेगी ही नहीं,
तो हम ध्यान किसका करेंगे? जब
धारणा हमारे अंदर नहीं बनेगी तो ध्यान किसका करेंगे?
तो बगैर प्रत्याहार और धारणा के सीधे जब ध्यान करेंगे तो भइया आपके लिये क्षति हो
सकती है, नहीं करना चाहिये। आपके लिये
नुकसान देह हो सकता है। बिजली के तार में कटिया लगाकर बिजली नहीं लेना चाहिये।
थोड़ा सा लाभ मिलता-मिलता रहेगा, किसी
दिन कहीं घटना घट गई तो मरने से बच गये तो गिरफ्तारी हो जायेगी। कटिया से बिजली
कभी नहीं लेना चाहिये। वो जो रोज का छोटा-छोटा लाभ है न,
किसी दिन भारी घटना में बदल सकता है। यानी एक ऐसा विधान है जो ग्यारह हजार वोल्ट
में कटिया लगाकर बिजली लेंगे तो किसी दिन खतरा हो सकता है। नहीं भी खतरा होगा तो
जिस विभाग वाला बिजली विभाग वाला जानेगा न,
से एक बार दस-बीस हजार ठोंक देगा, एक
फाइन-जुर्माना देना ही पड़ जायेगा तो इसलिये जैसे कटिया से बिजली लेना है घर में
वैसा ही समझिये कि बिना प्रत्याहार और धारणा का ध्यान करना। इसलिये कभी भी ध्यान
को गुड्डा-गुड्डी का, ये बिजली जो है आपके घर में हम
देखते हैं, हम लोग भी कराते हैं। घर में
लड़का-बच्चा है और फट से जाकर के स्वीच लगा दिया तनिक इधर उधर बढ़ा दिया,
माता-पिता खुश हो गये। हमारा लड़का बिजली का काम कर लेता है और जिस दिन (झटका )
करेंट लगेगा, वो तो जइबे करेंगे आपकी गिरफ्तारी
भी हो जायेगी। आप लोगों की गिरफ्तारी भी हो जायेगी क्योंकि आपको ऐसा कराने का
अधिकार नहीं है। माता-पिता हैं आपकी जिम्मेदारी है बच्चे को बिजली से न सटने देना।
आप इलेक्ट्रीशियन बुलाइये, बुलाकर
के अपने वायर को कराइये, वायरिंग
कराइये, ठीक से कराइये,
सावधान रहिये। लाभ थोड़ा सा मिल रहा है तो बड़े खुश हो रहे हैं मशगूल हो रहे हैं
लेकिन जिस दिन कहीं कटा तार मिल गया और लड़के को झटका मार दिया तब। हम लोग पेपर में
आये दिन पढ़ते हैं। कपड़ा प्रेस करने में, करंट
मारा वो मर गया। लैम्प जलाने में, लैम्प
जला रहा है तार कटा मिल गया। मर गया। आये दिन झटका तो लगता ही रहता है लोगों को।
जो थोड़ा-बहुत करते हैं। तो सत्ता-शक्ति से खेल नहीं खेलना चाहिये। बिजली एक शक्ति
है। ये किसी की नहीं है, विधान
से रहिये तो सबके लिए है। विधान से रहिये तो सबको लाभ देगी। लेकिन मनमाना कीजिएगा,
जरा सा नंगा तार छूइएगा तो आपको झटका भी मारेगी। तो सटे रह जाइएगा तो जान भी ले
लेगी। शक्ति किसी का नहीं होती है। सत्ता किसी का नहीं होता है। उससे उसके विधान
से हो-रह कर के लाभ ले लीजिये। ठीक है, मनमाना
कीजियेगा ये कानून भारतीय है, ये
पुलिस और सरकारी आफिसरान है इनके अनुसार होकर के,
विधि अनुसार होकर के इनसे लाभ ले लीजिये। लेकिन विधि विरुद्ध चलकर के आप लाभ
चाहेंगे तो वो भी गलत होंगे तो लाभ देंगे अन्यथा वो लाभ आपको गलत तरीके से नहीं दे
सकते। तो इसी तरह से ध्यान यदि, ध्यान
माने क्या? ध्यान मतलब ईश्वरीय सत्ता-शक्ति
से सीधे सम्बन्ध जोड़ना, अपना
तार जोड़ना। ध्यान-क्रिया माने सीधे ईश्वरीय सत्ता-शक्ति से,
शिव-शक्ति से अपना तार जोड़ना। यदि कहीं सक्षम गुरु नहीं मिला और मनमाना यदि यदि आप
ध्यान-साधना करने लगे तो जिस दिन हाई वोल्टेज आ जायेगा,
विक्षिप्त हो जायेंगे, जिन्दगी बर्बाद हो जायेगी। इसलिये
पहले किसी सक्षम गुरु के अधीन रहकर के अभ्यास कीजिये वो आपको जना देगा,
करा देगा, विधि भी बता देगा,
ऐसा करना फिर वैसा करेंगे तो कोई गड़बड़ी नहीं होगी। लेकिन मनमाना ऐसी क्रिया नहीं
करनी चाहिये।
माता-पिता का प्यार बिजली
से बचाने को नहीं जायेगा। नंगा तर होगा तो करंट मारेगा ही और मनमाना करेंगे तो
सत्ता-शक्ति आपको विक्षिप्त उल्टा-सीधा कहीं रियेक्शन कर सकता है, इसमें गुरुजी की कृपा काम
नहीं करेगी। ये कुल बकवास है। ये कौन गुरु है ऐसा। कोई ऐसा गुरु बोलता है तो हम
लोगों के सामने पेश कीजिये न। क्या क्षमता रखता है वो आशीर्वाद देने का, श्राप देने का। अरे
आशीर्वाद-श्राप कुछ बना-बिगाड़ नहीं सकता है। आपकी भावना है उससे डरने की इसलिये
आपका बिगड़ जाता है। आप सानी बनिये न साहसी होइये। अपने ह्रदय को सही रखिये किसी के
द्वारा कुछ आपका नहीं बिगड़ेगा। आप अपने को पहले ईमान से सही रहने का कोशिश कीजिये
न। राजा अंबरीष को कहाँ, दुर्वासा जैसा सिद्ध ऋषि क्या बिगाड़ लिया अंबरीष को
श्राप देकर के। हालत बिगड़ गयी भागते-भागते अंत में क्षमा-याचना करना पड़ा अंबरीष
को। राजा अंबरीष के यहाँ जाकर। कोई सिद्ध-महात्मा जो होगा, जब किसी भक्त-सेवक को
दण्ड देना चाहेगा तो खुद परमेश्वर उसको दंडित करेगा। सिद्धि इसलिये नहीं मिली है
कि समाज को क्षति पहुंचाये। जब दुर्वासा अंबरीष को श्राप दिये नाराज होकर के तो
वहाँ से चक्र चला और दुर्वासा के पीछे और उसको चैन से रहने नहीं दिया और अंत में
आकर के दुर्वासा को अंबरीष के यहाँ क्षमा-माफी याचना करनी पड़ी, तब जाकर के चक्र-सुदर्शन
वापस गया। भगवान् इतनी गफलत वाला चीज का नाम नहीं है। बशर्ते आप अपनी थोड़ी भक्ति
से जोड़िये तो सही। भगवान् के भक्ति से जोड़िये, भगवान् के लिंक में
जोड़िये। आप सुरक्षित हैं। आप मनमाना कोई योग वगैरह की क्रिया मत कीजिये। मैं
निवेदन करूँगा वैसे आप करते हैं, आप जाने वो आपका काम जाने। यदि हमसे राय लीजियेगा तो
किसी सक्षम गुरु के देख-रेख में ही प्रारम्भिक स्तर पर योग-साधना को करने का ढंग
सीख लेना चाहिये। और वहाँ ॐ है कि नहीं? ब्रह्म शिव-शक्ति है कि नहीं, ये आपको पता ही क्या है
कि ॐ क्या है?
ब्रह्म-शक्ति क्या है? यदि
आप कोई छल-कपट न रखते हों, ईमान-संयम क्षमता हो आपकी स्वीकार करने की तो दिखा
दूँगा, करा
दूँगा,
योग-क्षमता क्या है?
साक्षात् ईश्वर को बुलाकर दिखला दूँगा और फिर आपके समझ में आ जायेगा कि
ईश्वर-ब्रह्म-शक्ति क्या होता है? कैसा होता है? शेष आप जाने और आपका कम
जानें। मैं ये नहीं कहूँगा कि बगैर सक्षम गुरु के सरंक्षण में आप जो है यानी ध्यान
क्रिया करें ये भइया विषय आपका है। बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय !
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