८१. जिज्ञासु:- वही तो देखना है,
वही तो ढूढ़ना है। कुछ वहाँ मिला तो कुछ और मिलेगा। पहले तो इनका ही लिया था सोsहँ
वालों का ही।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- ये पहले ले लो,
फिर चाहे जो ले लो। मत मानो उसकी बात। लेकिन कोई मिलना चाहे और मैं न मिलाऊँ,
ऐसा मेरे यहाँ सम्भव नहीं है। क्या हमको चोरी,
डकैती कराना है क्या जो हम छिपा कर रखें? हमको
सत्य पर चलाना है। शेर बनाकर ले चलना है। हम क्यों छल-कपट करें?
बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जयsss।
और कोई भाई-बन्धु कोई है।
८२. जिज्ञासु:- महाराज जी जैसा कि अभी आपने कहा कि
परमात्मा से ज्योतियाँ उत्पन्न होती है वो ज्योति आत्मा है,
वो ज्योति ही आत्मा है यानी कि आत्मा ही ज्योति है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- लेकिन सूरज भी ज्योति है,
सूरज से भी ज्योति छिटकती है। ये ज्योति आत्मा में नहीं है। लेकिन इन लोगों की तो
ज्योति भी आत्मा ही है। इन योगियों ने तो इसको भी आत्मा ही घोषित कर दिया है। इन
मूर्खो को पता ही नहीं है कि इस ज्योति और उस ज्योति में कितना बड़ा अन्तर है?
ये योगियों वाला जो है यानी चन्दा की ज्योति,
सूरज की ज्योति, तारा की ज्योति,
सब आत्मा ही है। तो फिर हमें ध्यान की क्या जरूरत?
सारे ग्रन्थ में इन सबों ने लिखकर-भरकर रख दिया है। क्या आपके यहाँ नहीं है?
कि सूरज की ज्योति भी आत्मा ही है। अरे उपनिषदों में भर दिये ये सब। उपनिषद् में
भी है........
एको हँसो भुवनास्यास्य मध्ये,
स एवाग्निः सलिले सन्निविष्ट:।
स एवाग्निः है यानी अग्नि वाला ज्योति भी आत्मा की
है। अग्नि में ज्योति आत्मा होती है? सूरज की
ज्योति आत्मा है? तब हमें ध्यान की क्या जरूरत?
अगर ये आत्मा है तो हम देख रहे हैं। तो ज्योति कह देना मात्र पर्याप्त नहीं है।
ज्योति कह देना पर्याप्त नहीं है। ज्योति,
ज्योति में बहुत अन्तर होता है। पञ्च भौतिक पदार्थ भी तो ज्योति रूपा है। धरती का
भी सूक्ष्म ज्योति रूप है। जल का भी सूक्ष्म ज्योति रूप है यानी अग्नि का भी
ज्योति रूप है। वायु भी है, आकाश भी
है। ये सब भी तो ज्योति रूप है। कौन ज्योति आत्मा वाली है ये तो जानना होगा इन
ज्योतियों में। क्या कोई दर्शन करने वाले बता देंगे कि आप जो दर्शन करते हैं वो
आत्मा वाला ज्योति है कि पञ्च पदार्थ वाली है,
ये निर्णय करके बता देंगे? क्यों
आप से पूछ रहे हैं? ये ज्योतियों का अन्तर पता है कि
कौन ज्योति पञ्च भौतिक पदार्थ वाली होगी? कौन
ज्योति आत्मा वाली होगी? वो भी
तो अन्तर जानना जरूरी होगा।
८३. जिज्ञासु:- महाराज जी मतलब मेरा थोड़ा सुन लीजिये।
मेरा प्रश्न ये है कि आपके अनुसार भी ज्योति आत्मा है,
आत्मा ज्योति है तो मेरा ये कहना है कि ये ज्योति है वो आत्मा नहीं होनी चाहिए,
ज्योति आत्मा की होनी चाहिये। ज्योति आत्मा नहीं है। ज्योति आत्मा की होनी चाहिये।
जो बल्ब प्रकाश जल रहा है तो बिजली का प्रकाश है नहीं वो प्रकाश ही बिजली है।
ज्योति आत्मा की हो सकती है लेकिन ज्योति ही आत्मा कैसे हो सकती है?
यही मेरा प्रश्न है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की
जयsss। प्रकाश बिजली का नहीं है। प्रकाश ही बिजली
है। लाईट इज फार्म आफ इनर्जी। यानी प्रकाश जो है ऊर्जा का रूप है। फार्म माने रूप।
इसका कोई दूसरा हिन्दी शब्द नहीं है। फार्म का एक ही हिन्दी शब्द रूप। यानी ऊर्जा
का जो रूप है, वो प्रकाश है और रूप ही प्रकाश
होता है, देखा जाता है। तो ज्योति मतलब,
प्रकाश मतलब वही बिजली है। उसी का नाम बिजली है। जैसे आपका क्या नाम है?
८४. जिज्ञासु:- वेदप्रकाश।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- वेद प्रकाश। तो नाम जो है
इसका रूप यही है न? वेदप्रकाश नाम का रूप तो यही है
न? अब इस रूप को देख लिए तो वेदप्रकाश को देख
लिये कि नहीं देख लिये। इस वेदप्रकाश वाले रूप को देख लिए तो वेदप्रकाश को देख लिए कि नहीं देख लिए? तो हम जब प्रकाश देख रहे हैं तो हम बिजली देख लिये। इस हवा
से बिजली नहीं देख लिये। ये पंखा में जो चल रहा है ये मान लिये कि बिजली है। माइक
बोल रहा है मान लिये कि बिजली है। और सब जगह मान लिये लेकिन बल्ब से यदि रोशनी आ
रही है तो जान लिये कि बिजली है, देख कि
ये बिजली है। वो रोशनी जो प्रकाश ज़ो है वह खुद अपने आप में बिजली है। वैसे ही
आत्मा अपने आप में एक चेतन दिव्य तेज है। वो दिव्य प्रकाश है।
८५. जिज्ञासु:- लेकिन महाराज जी जैसे कि बिजली जो जली,
वो जो प्रकाश जला हुआ, वो तो बिजली से हुआ जो
आत्मा..........
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बिजली माने?
हम जो पूछ रहे हैं वो पहले बता दीजिये। बिजली माने?
८६. जिज्ञासु:- बिजली शक्ति है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- तो शक्ति का ही तो रूप प्रकाश
है। प्रकाश ही तो शक्ति है और शक्ति प्रकाश है।
८७. जिज्ञासु:- मतलब जैसे कि मैंने प्रकाश को देखा वो
तो ठीक है, प्रकाश को मैंने देखा लेकिन ये
भी मैंने मूल में जाना-समझा कि प्रकाश क्या है?
क्यों और कैसे है? वो बिजली से है। मैंने ज्योति को
देख लिया।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- एक मिनट कोई भी प्रकाश चाहे
वो बिजली का हो, चाहे वो दीपक का हो,
चाहे वो पेट्रोमेक्स का हो, प्रकाश
एक शक्ति है। अब ये सब प्रकाश सीमित हैं और बिजली वाला प्रकाश थोड़ा फास्ट है।
शक्ति सब है। कोई भी प्रकाश है कहीं वो एक शक्ति है। वही प्रकाश यदि चेतन का है।
जैसे ये ज्योति प्रकाश जो है कांससलेस है, शक्ति कांससलेस होती है और दिव्य आत्मा प्योर कान्सस होता
है अन्तर दोनों में यही है कि ये जो फिजिकल जो लाइट है-ये भौतिक जो प्रकाश है,
ये कान्ससलेस है। ये चेतना विहीन है। ये जो भौतिक प्रकाश है,
ये चेतनाविहीन है, ये कान्ससलेस है। अब
आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म वाला जो ज्योति है, वो प्योर
कान्सस है। वो विशुद्धतः चेतन है। अन्तर ये है।
८८. जिज्ञासु:- महाराज जी,
मूलतः मेन जो चेतन का प्रकाश चेतन ज्योति है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- चेतन का प्रकाश नहीं,
चेतन अपने आप में प्रकाश है।
८९. जिज्ञासु:- परमात्मा से जो आत्मा निकला तो आत्मा का
प्रकाश तो हमने देख लिया जैसे बल्ब।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- आत्मा का प्रकाश नहीं,
आत्मा स्वयं में प्रकाश।
९०. जिज्ञासु:- वही मेरा मतलब है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- जैसे सूरज की किरण। किरण माने
प्रकाश सूरज माने प्रकाश नहीं। सूरज के गोले में जो प्रकाश है उसको प्रकाश नहीं कह
सकते वो सूरज है। लेकिन गोला से बाहर होते ही,
वो प्रकाश है, वो किरण है,
वो प्रकाश है, वो प्रकाश है। परमात्मा प्रकाश
से परे है प्रकाश नहीं होता उसमें। आत्मा प्रकाश है।
९१. जिज्ञासु:- तो परमात्मा से जो शक्ति निकलेगी उसको न
हम प्रकाश के रूप में देख सकते हैं इस तीसरे नेत्र से,
दिव्य दृष्टि से?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- भई ! हम कहाँ मना कर रहे हैं?
९२. जिज्ञासु:- वही मैं कह रहा हूँ तो मतलब कि अब उसको
ये न कहना होगा कि जैसे कि परमात्मा से शक्ति निकली और जो है कि
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- सत्ता ! परमात्मा से शक्ति
नहीं। परमात्मा से छिटक कर सत्ता,
आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म प्रकट-पृथक् हिता है और सत्ता जो जैसे ही पृथक् होगा,
वैसे ही ज्योतिर्मय शक्ति भी उसके साथ हो जायेगी। तो सत्ता शक्ति दोनों एक साथ
प्रकट होते हैं परमात्मा से। लेकिन जब परमात्मा से प्रकट होते समय जब देखियेगा तो
दिखलाई देगा कि शक्ति नहीं, सत्ता
प्रकट होता है, पृथक् होता है और जैसे ही सत्ता
परमात्मा से पृथक् होगा, वैसे ही
उसके साथ तुरन्त ज्योतिर्मय शक्ति भी प्रकट हो जायेगी। लेकिन जब तक वो सत्ता
परमात्मा में रहेगा, तब तक कोई ज्योति नहीं रहेगी।
जैसे वो पृथक् होगा, वो ज्योतिर्मय ज्योति उसके साथ
पृथक् हो जायेगी। ये परमात्मा से प्रकट कराया जायेगा,
आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-शिव को तो जब प्रकट होते समय देखेंगे तो प्रकट होते समय वो
शक्ति वहाँ नहीं रहेगी वो सत्ता प्रकट होगा लेकिन पृथक् होते ही,
शक्ति प्रकट हो जायेगी उसमें। यानी डबल रोल हो जायेगा उनका। सत्ता-शक्ति हो
जायेगी। ज्योतिर्मय शब्द हो जायेगा। ज्योतिर्मय शब्द हो जायेगा। परमात्मा
अंधकार-ज्योति से परे है। परमात्मा में ज्योति नहीं दिखाई देगा आपको। न अंधकार
दिखाई देगा, न प्रकाश दिखाई देगा।
अंधकार-प्रकाश दोनों से परे होता है परमात्मा,
विलक्षण होता है। ज्योति प्रकट होते हुये दिखाई देती है आत्मा से,
ईश्वर से। तो ये ज्योतिर्मय शब्द,
परमात्मा विशुद्धतः शब्द होगा। वह ऐसा शब्द है कि ब्रह्माण्ड के किसी विभाग में
उसका प्रयोग ही नहीं हो सकता। सारा ब्रह्माण्ड भी उसका एक अंश है। वह ऐसा शब्द रूप
परमात्मा है कि जिसके एक अंश मात्र से सारा ब्रह्माण्ड है। एक अंश मात्र में ही
सारा ब्रह्माण्ड है। यानी ज्योति भी उसी से है। आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म भी उसी से है।
सारा ब्रह्माण्ड भी उसी से है। सारा ब्रह्माण्ड एक ही अंश से है। दूसरे अंश से
ब्रह्माण्ड संचालित है और तीसरा अंश जो है गवर्नमेंट-कर्ता है। गवर्नमेंट बाडी है।
दोनों अंश में सारा ब्रह्माण्ड चल रहा है। पहले और दूसरे दो अंश में सारा
ब्रह्माण्ड है। तीसरा तो परमधाम अमरलोक में रहता है। जो बियाण्ड यूनिवर्स है। जो
इस ब्रह्माण्ड से भी परे है। वो सदा-सर्वदा परमधाम में रहता है। वही जब तीसरी ईकाई
आती है। तो उसको अवतार कहते हैं। वो तीसरी ईकाई जब आती है,
वो परमात्मा परमेश्वर कहलाती है।
९३. जिज्ञासु:- जैसा कि महाराज जी आप ने उदाहरण भी दिया
है बहुत सुंदर सूर्य को परमात्मा समझ लो। जो किरणें आ रही है वो आत्मा है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- सूरज जैसा परमात्मा,
किरणें जैसा आत्मा, प्रतिबिम्ब जो पानी में पड़ता है
जीव और पानी सहित जो बर्तन खून सहित बर्तन शरीर। जैसे पानी सहित बर्तन है वैसे खून
सहित बर्तन है। जैसे उस पानी के बर्तन में सूरज का प्रतिबिम्ब है वैसे हम जीव है
और जैसे उस पानी के तल और सूरज के बीच का लिंक है,
किरण वैसे जीव और परमात्मा के बीच का लिंक है आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म। और जैसे जहाँ से
आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म प्रकट पैदा होता है वह है परमात्मा परमेश्वर परमब्रह्म ।
९४. जिज्ञासु:- सोsहँ-हँसो
के विषय में पढ़ा है तो सोsहँ-हँसो
का जाप तो गलत है ऋषिमुनि ने.....
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं, गलत बोल रहे हैं। ऐसा नहीं पढ़ा है।
९५. जिज्ञासु:- नहीं,
मैं बोल रहा हूँ आपके किताब में नहीं है सोsहँ-हँसो
का जाप गलत है। सोsहँ-हँसो...........
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- यहाँ क्यों बोल रहे हो?
उस किताब का नाम लेकर कहो बोल रहे हो।
९६. जिज्ञासु:- किताब नहीं,
मैं जो बात बोलने जा रहा हूँ।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- आप बोलने के हकदार हैं। आप
कहो सब झूठ। कोई झगड़ा करेगा क्या? आप कहो
भगवान् झूठ तो हम झगड़ा करेंगे क्या?
९७. जिज्ञासु:- मेरा यही कहना है कि सोsहँ-हँसो
है जो जैसे आपने कहा है कि सोsहँ उल्टा
है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- उल्टा नहीं,
पतन-विनाशक। पतन-विनाश में ले जाने वाला।
९८. जिज्ञासु:- कहीं आपने शायद हँसो की प्रशंसा की है
की हँस सत्य है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हँस
तो उर्ध्वमुखी है। जीव को ईश्वर बनाने वाला है। जीव को आत्मा बनाने वाला है। जीव
को शिव बनाने वाला है। सोsहँ जो है शिव को जीव बना देने वाला है। और हँसो शिव
को जीव बनाने वाला है। अब अन्तर आप समझ लीजिय, समझ में आ रहा हो तब
दोनों एक ही लग रहा हो तो आपकी मति। शिव का जीव बनना ये पतन है कि नहीं? और जीव का शिव बनना
उत्थान है कि नहीं? किताब
में जहाँ भी पढ़े होंगे न तो पतनोन्मुखी सोsहँ, उर्ध्वमुखी हँसो। तो तो
दोनों एक कैसे हुआ? दोनों
गलत कैसे हो जायेगा? वेद
में हँस है,
उपनिषदों में हँस है, पुराण
में हँस है। ये सन्त महात्माओं ने घुसेड़ कर के सोsहँ कर दिया। इन मूढ़ों को
पता ही नहीं चला कि सोsहँ-हँसो में अन्तर क्या होता है? ज्ञान तो था नहीं इन
लोगो के पास। ज्ञान ही बतलायेगा कि सही गलत क्या है? असत्य और सत्य दोनों का
वास्तविक जानकारी तो तत्त्वज्ञान में होता है। ब्रह्माण्ड में और किसी विधान में
है नहीं और वो तत्त्वज्ञान इन ऋषि-महर्षि सन्त-महात्माओं के पास होता नहीं। वो तो भगवान
अपने लिये रिजर्व रख लेता है। जब आता है तो वही तत्त्वज्ञान देता है। सब सच्चाई
उसी में मिलती है। कोई सत्य जन ही नहीं सकता तत्त्वज्ञान के बगैर और वो
तत्त्वज्ञान परमात्मा के बगैर नहीं मिलेगा। परमात्मा के बगैर तत्त्वज्ञान
ब्रह्माण्ड में कोई दे ही नहीं सकता। दूसरे का आइडेंटिटी कार्ड (परिचय-पत्र) दिखा
देंगे क्या?
तत्त्वज्ञान परमात्मा का आइडेंटीफिकेशन तो है, आइडेंटिटी कार्ड तो है।
९९. जिज्ञासु:- प्रेम से बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय
sss। अनहद् नाद और इसका कुण्डलिनी से सम्बन्ध।
इसका कुण्डलिनी से किस प्रकार का सम्बन्ध है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अनहद् नाद कुण्डलिनी से कोई
मतलब नहीं। अनहद् नाद ब्रह्म क्षेत्र में,
ब्रह्म क्षेत्र में जो आनन्दमय होने रहने के लिये जो बाजे-गाजे रहते हैं,
उसको अनहद् नाद उसको सुनने की जो प्रक्रिया है वो अनहद् नाद की क्रिया है।
बिना बजाये निश दिन बाजे घण्टा शंख-नगारी रे।
बहरा सुन-सुन मस्त होत है,तन
की सुध बिसारी रे।।
तो ये अनहद् नाद आनन्द-मग्न
करने वाली, होने-रहने वाली एक स्थिति है,
क्रिया है। कुण्डलिनी से इससे कोई लेना-देना नहीं है। कुण्डलिनी से इससे कोई मतलब
नहीं। कुण्डलिनी तो मूलाधार में है। हाँ योग में,
योग की क्रिया में अनहद् नाद भी है और योग की क्रिया से कुण्डलिनी भी जागती है। उसी परिवार के हैं तो लेकिन दोनों का एक सीधा टर्म हो ऐसा नहीं है।
१००. जिज्ञासु:- उसके जगने के बाद।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हाँ,
जगेगी नहीं कुण्डलिनी तो अनहद् नाद सुनाई ही नहीं देगा। कुण्डलिनी नहीं जगेगी,
ब्रह्मक्षेत्र में आप पहुँचेंगे नहीं, संपर्क
नहीं करेंगे तो आप कैसे सुनेगें? रेडियो
स्टेशन में क्या आवाज आ रही है क्या ट्राजिस्टर आन नहीं करेंगे तो कैसे सुनेंगे?
ट्राजिस्टर को तो रखना पड़ेगा न सुनने के लिये?
क्यों कि आपकी वाणी को रेडियो स्टूडियो में यानी रेडियो वेब में परिवर्तित कर दिया
गया। आप जो बोल रहे है इस शब्द को रेडियो स्टूडियो में जो है यानी रेडियो वेब्ज
में, रेडियो तरंग में परिवर्तित कर दिया गया है।
अब रेडियो तरंग को पकड़ने वाला कोई ट्रांसफार्मर चाहिए,
वो रेडियो में लगाया गया। वो ट्रांसफार्मर जो है उस रेडियो वेब को पकड़ेगा और फिर
ट्रांसफार्म कर देगा आपके शब्द में और वो अब सुनाई देने लगेगा। तो जब तक ये
ट्रांसफार्मर वाला मशीन रेडियो वाला नहीं लेंगे तो आपकी आवाज तो रेडियो वेब बन
चुकी है, तरंग बन चुका है अब सुनेगें कैसे?
जब पुनः उस रेडियो तरंग को परिवर्तित-ट्रांसफर कर दिया जाय शब्द में,
तब सुना जायेगा और वही ट्रांसफार्मर रेडियो में है। उसी तरह से आपका रूप जो है इस
तरंग में तरंगित कर दिया गया। आप देख ही नहीं रहे हैं टेलीविजन करके आन कर दीजिये,
चैनल मिलाकर आप देख लीजिये। तो इसी तरह से जब तक कुण्डलिनी जगेगी नहीं,
ब्रह्मलोक की बातें आप पकड़ेंगे कैसे?
१०१. जिज्ञासु:- वो सम्बन्ध हुआ मैं यही जानना चाहता
हूँ।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- एक ही परिवार का है। सम्बन्ध
तो है ही है। लेकिन सीधा सम्बन्ध नहीं है। उससे कोई जरूरी नहीं है कि हम अनहद् नाद
सुनें तो हम जाने कि हमारी कुण्डलिनी कैसे जगी?
ये कोई जरूरत महीं है। अनहद् नाद बैठिए न दो सेकण्ड में सुना दे रहे हैं। वो सब
ऐसे सुनाई देने लगेगा। तो जब दो मिनट तो बहुत काफी है। दस-बीस सेकण्ड में सुनाई
देने लगेगा। लेकिन इसका मतलब थोड़े है कि कुण्डलिनी जागकर के अपना रूप ले लिया।
कुण्डलिनी जगने की अलग से पद्धति है।
१०२. जिज्ञासु:- हिन्दू समाज में जब शरीर से जीव निकल
जाता है और उसकी चार भाई लेकर चलते हैं तो बोलते हैं राम नाम सत्य है और सत्य बोले
होते हैं। उसी टाइम बोलते हैं उससे पहले क्यों नहीं बोलते हैं?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- उससे पहले यदि अपने बेटा को
बाप राम नाम सत्य है पढ़ा दें तो वो स्वार्थवा कैसे पूरा होगा?
अब तो जानते हैं कि पढ़ाने लायक नहीं रह गये,
अब जा ही रहे हैं तो अब राम नाम सत्य है लेते जायें। अब इनसे तो हमारा कोई स्वार्थ
तो सधना नहीं है। यदि वो जीवित रहते और तब हमें पढ़ाते तो ताला सथवे लेकर के चले
जाते लेकर के तो। इसलिये पहले नहीं पढ़ाया गया।
१०३. जिज्ञासु:- क्या ऐसा वो मुक्त हो जाता है उस टाइम?
जब बोलते हैं कि सब बोले मुक्त है, वो
मुक्त हो जाता है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- वो काहे लिये मुक्त। मुक्त होने
वाला तो गया यमराज के घर में। तो मुक्त होने वाला तो गया यमराज के यहाँ,
घसीट ले गया यमदूत। मुक्त कौन होगा? मुक्त
तो जीव को मुक्ति मिलती है। शरीर को थोड़े मिलती है। ये लोग तो जान देख लेंगे कि
जीववा (जीव) चला गया, जीव चला गया और अब सुनने वाला है
ही नहीं, तभी तो जीववा चला गया,
जीव चला गया और सुनने वाला है ही नहीं, तभी तो
सुना रहे हैं। जीव रहता तो सुनता तो हट जाता छोड़कर तो इनका स्वार्थ ही मर जाता। अब
जो है सुरेश। अब मोहनदास का रामनाम सत्य
है कहने लगे। तो सुरेश को गाइड कौन करेगा?
तो जब शरीर छूटेगा तब न राम नाम सत्य कहेंगे कि परमेश्वर का लाभ इनको मिलना नहीं
है। अब तो चले गये। जब जान जायेंगे राम नाम सत्य है तो कैसा माता-पिता?
कैसा पुत्तर-पुत्तरी जी? तो कैसा
पति-पत्नी जी लोग? वो तो राम नाम सत्य है तो वो
रामनाम रहेगा साथ में। इसलिये तो पहले नहीं सुनाया जाता है। इसीलिये पहले नहीं
सुनाया जाता है कि कहीं राम आ जायेगा। काम ही गड़बड़ हो जायेगा। तो घर-परिवार में
रहेगा? तो जब रामनाम सत्य रहेगा?
तो जब रामनाम सत्य रहेगा तो राम के पीछे चलेगा कि घर में रहेगा?
हनुमान जब जाने कि रामनाम सत्य है तो और दुनिया को छोड़ दिये और प्रधानमंत्री की
कुर्सी ही छोड़ दिया सुग्रीव का और रामजी का दास बनकर रहने लगा। क्यों भाई?
क्योंकि रामनाम सत्य है और बोलने लगा, जय श्री
राम, जय श्री राम। भगवान् वो है लवकुश का मंदिर
नहीं मिलेगा, हनुमान का मिलेगा। सतपाल वाला इस
धूर्तबाज का शिष्यों को लूटो और बेटे से अश्वत्थामा जोड़ो,
सब बेटा-बेटी को कर दो। राम ने सेवकों को महत्त्व दिया। बेटा-बेटी को नहीं।
लक्ष्मण को महत्त्व नहीं दिया, दोनों
बराबर तो थे। हनुमान से छोटा सेवक लक्ष्मण थे क्या?
लेकिन चूँकि लक्ष्मण भाई थे, माइनस
कर दिया, दर्जा दे दिया हनुमान को। आप
देखिये द्रोणाचार्य को अर्जुन और अश्वत्थामा का मार्क्स बराबर था,
दोनों एक बराबर थे, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कौन?
ये निर्णय लेना था, द्रोणाचार्य को। मुनि लोगों ने
ठहरा दिया अर्जुन को कि सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन। अब तो अश्वत्थामा जलने लगा,
उसके तो आग लग गया। सोचे कि वहाँ बोलूँ तो कैसे बोलूँ?
जब द्रोणाचार्य घर आ रहे हैं तो झगड़ा करने के लिये अश्वत्थामा कह रहा है कि आपने
निर्णय नहीं किया। पूछा द्रोणाचार्य ने क्या?
जब मैं बराबर अंक वाला था अर्जुन के तो आपके पिता होने के नाते मुझे इतना भी हक
नहीं था कि जब हम बराबर हैं तो वो डिग्री हमको मिले। अश्वत्थामा ने कहा क्या पुत्र
होने का मुझे इतना भी लाभ नहीं मिलना चाहिये। जब मैं नीचे-पीछे रहता तो आप उनको दे
देते, ठीक है। जब उनका भी अंक और हमारा
भी अंक बराबर था तो वो सर्वश्रेष्ठ की उपाधि हमको क्यों नहीं?
उनको क्यों? कहे पुत्र यही तो अफसोस है कि
मैं घर में नहीं बैठा था, आश्रम
में गुरुकुल में था। गुरुकुल में कोई पुत्र नहीं होता है। सब शिष्य पुत्र ही होते
हैं। तो कर लो बात। अफसोस इस बात का है कि तुम मेरा बेटा होकर के भी आगे नहीं
निकला। तू मेरा बेटा होकर के भी आगे नहीं निकला। यही तो तेरा माइनस पाइंट हो गया।
वो दूसरा है कि कोई तेरा बराबर कर लेगा। यही उसका प्लस पाइंट हो गया। इसलिये हमने
यह निर्णय अर्जुन के पक्ष में कर दिया। सच्चा गुरुत्व सही गुरुत्व का निर्णय ऐसा
ही होता है। यदि दोनों बराबर हो तो निर्णय शिष्य के पक्ष में जायेगा। शिष्यत्व
पक्ष में जायेगा। क्या राम जी के लवकुश नहीं थे? और सतपाल किसी शिष्य को गद्दी देंगे? क्या श्रीरामशर्मा ने किसी शिष्य को गद्दी दिया?
अब लड़के सिर्फ लड़के और दामाद को दे दिया। ये सतपाल गद्दी किसी को देगा?
हंस जी गद्दी किसी शिष्य को दिये? क्या
कोई शिष्य नहीं था? सेवकवानंद नहीं थे?
ज्ञान वैरागानन्द नहीं थे? ये
सतपाल को दिया, ये बालयोगेश्वर को दे दिया
उन्होने। सतपाल को दे दिया। यानी ये सब चीजें जो है बड़ी विचित्र स्थिति है। ये
हिजड़ा जो है बेटा-बेटी पैदा करेंगे। ये झगड़ा तो हंस लगा गया इस परिवार में।
कहानी बड़ी लम्बी है कहेंगे तो कहा जायेगा। ये घोर घृणित परिवार है। स्वरूपानन्द जी
भगवान् के अवतार हंस जी गाते रहे। हंस जी भगवान् के अवतार हंस जी का बेटा,
ये सतपाल भगवान् के अवतार। इनके पहले बालयोगेश्वर जी भगवान् के अवतार। अब इनका
बेटवा जो है वो भी भगवान् का अवतार हैं। इन अवतारियों में कौन असली है?
पूरा घर भर ही तो अवतार ही है। ये धूर्तबाज घर में तो अवतार ही हैं सब। अरे क्या
कहे अपने अनुगामी शिष्यों को इतना समझने कि जरूरत नहीं,
इतना भी जानने- समझने कि जरूरत नहीं। मुँह से बोल रहे हैं सब भगवान् एक होता है,
अवतार एक होता है। अवतार की कोई गद्दी होती है? कहीं विष्णु जी की गद्दी है?
कहीं राम जी की गद्दी है?कहीं
कृष्ण जी की गद्दी है?क्या इंका बेटा-बेटी राम बन
जायेंगे, कृष्णजी बन जायेंगे?
ये गद्दी पर गद्दी भगवान् जी ही हैं तो सब। ये कौन भगवान् का जलशा आ गया भाई?
गद्दी गुरुओं की होती है, गद्दी
भगवान् की नहीं होती है। भगवान् के बेटा, उनके
बेटा, उनके बेटा ये भगवान् होते हुये
भी सब भगवान् ही भगवान् रहेंगे। राम जी का बेटा लवकुश नहीं भगवान् कहलाये।
प्रद्युम्न भगवान् क्यों नहीं कहलाये? ये
भगवान् कहला गया? ये सब भगवान जी हो गये?
अब जब सोsहँ भगवान् हैं तो सब भगवान जी हैं
तो गुरुजी कैसा? ये बड़ी विचित्र है। सत्य को
जानना-समझना, इतना आसान-सहज नहीं है। जब तक
तत्त्वज्ञान सामने नहीं होगा,
ब्रह्माण्ड में कोई नहीं इस सत्य को जान सकता है और न कोई जना सकता है। एकमात्र असत्य-सत्य दोनों को अलग अलग
करके जानने और देखने की क्षमता-शक्ति किसी में है,
दिखाने की क्षमता-शक्ति किसी में है—एकमेव तत्त्वज्ञान में है---भगवत् ज्ञान में
है----परमसत्य ज्ञान में है। भगवान् भी यदि भगवान् दिखाना चाहे न भगवान् भी यदि
भगवान् दिखाना चाहेंगे तो तत्त्वज्ञान के बगैर नहीं दिखा सकते,
नहीं दिखा सकते। भगवान् भी भगवान् को बिना तत्त्वज्ञान के बगैर नहीं दिखा सकते।
लीला कर सकते हैं, चमत्कार दिखा सकते हैं। भगवान्
जनाना-दिखाना होगा तो तत्त्वज्ञान से गुजरना होगा। ऐसा स्थिर विधान है। इसमें कोई
परिवर्तन हो ही नहीं सकता। जो तत्त्वज्ञान,
जो परमतत्त्वम् सृष्टि के पहले था, वही
तत्त्वज्ञान वेद में है, वही
तत्त्वज्ञान विष्णुजी ने दिया, वही राम
जी ने दिया। एक अक्षर किसी ने मिला-घटा-बढ़ा नहीं सका और न हमारी हस्ती-शक्ति है जो
उस तत्त्वज्ञान में एक अक्षर घटा-बढ़ा दूँ। कोई हस्ती-शक्ति ब्रह्माण्ड में है नहीं,
जो तत्त्वज्ञान में एक अक्षर घटा-बड़ा दे। हम कौन होते हैं घटाने-बढाने वाले?
हमारी हस्ती-शक्ति क्या है घटाने-बढ़ाने की?
तत्त्वज्ञान देता हूँ साक्षात् भगवान् मिलता है उसमें। कौन भगवान्?
जिसका ब्रह्माण्ड है, जिसमें ब्रह्माण्ड है। जिसके
द्वारा द्वारा ब्रह्माण्ड अब भी संचालित हो रहा है। ये सब देखने को मिलेगा।
ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने वाली शक्ति कैसे पैदा हो रही है?
ब्रह्माण्ड कैसे उत्पन्न हो रहा है, देखने
को मिलेगा। आज इस समय ब्रह्माण्ड चलाया किसके द्वारा जा रहा है?
उसी के द्वारा चल रहा है। ये भी देखने को मिलेगा। अन्ततः ब्रह्माण्ड लय-विलय
किसमें हो जाता है, उसी में हो जाता है।
१०४. जिज्ञासु:- जिज्ञासा शान्त करने के लिये मैं कह रहा
हूँ और क्षमा कीजियेगा, मैं कोई
शास्त्रार्थ करने के लिये नहीं आया हूँ। मैं कोई बहुत समय नहीं लूँगा।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- एक मिनट,
क्षमा की बात कहाँ से आ गई?
जिज्ञासा करेंगे तब भी हमारा जवाब वही रहेगा और शास्त्रार्थ करेंगे तो भी जवाब वही
रहेगा। बारिश बरसती है, होती है
तो पनिया तो सब जगह बराबर होता है। टीला पर ठहरता नहीं है,लुढ़क
जाता है, गड्ढा में ठहर जाता है। अहंकारी
होंगे लाभ नहीं मिलेगा। जिज्ञासु होंगे,
श्रद्धालु होंगे, लाभ लुढक कर के मिल जायेगा। जवाब
तो हमारा एक ही रहेगा। चाहे आप शास्त्रार्थ के लिये पूछें या चाहे जिज्ञासु बनकर
पूछें।
१०५. जिज्ञासु:- क्षमा कीजिये।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- क्षमा की तो बात ही नहीं है,
यही तो मैं नहीं चाहता।
१०६. जिज्ञासु:- नहीं,
जो ऐसा मैं कह गया उसके लिये।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं,
नहीं कोई बात नहीं।
१०७. जिज्ञासु:- शास्त्रों में लिखी हुई बातें सत्य हैं,
ऐसी हिंदु मान्यता है। जब हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद के ऊपर तलवार चलायी थी बुलावो
भगवान् कहाँ है तुम्हारा? रक्षा
करें तो प्रहलाद ने कहा तुझमें, मुझमें
हर खम्भ में, घट-घट व्यापक राम और खम्भे से
निकले और या तो वो आपका कथन सही है, तो फिर
आपका कथन यहाँ झूठा हो जाता है। या तो ये बात सही है कि भगवान् नहीं निकले थे,
कपोल कल्पित बातें धर्मग्रन्थ में लिखी गयी हैं।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की
जयsss। ये प्रश्न कई बार आ चुका है। आप शायद उसमें
न रहे हो। निःसन्देह यही सब तो जहर घोला है। इन ऋषि-महर्षि,
सन्त-महात्माओं ने। ऐसा मीठा जहर घोल दिया इन तथाकथित योगी-यति,
सन्त-महात्माओं ने, जानकारी तो लेने की कोशिश नहीं
की। स्थिति-परिस्थिति को समझने का कोशिश नहीं किया। कण-कण में भगवान् घोषित कर
दिया तो भाई इस कण में भी तो भगवान् होंगे ? होंगे कि नहीं होंगे ? तब तो ये चुटकी में मसल रहे हैं भगवान जी को न?
भगवान् जी मसला रहे हैं न चुटकी में? तो
भगवान् जी उसी का नाम है जो मसला जाय चुटकी में?
भगवान् जी उसी का नाम है जो मसला जाय? भगवान्
जी तो रावण में भी होंगे न? रावण वाला भगवान जी मरने के लिए थे? और राम वाला भगवान जी मारने के लिए ? भगवान्
भी दो तरह के होते हैं? एक मरा जाने वाला और एक मारने के लिये?
भगवान् भी दो चार दो-चार तरह के होते हैं। एक हैं न,
तो राम वाला है कि रावण वाला? राम
वाली शरीर में भगवान् जी थे कि रावण वाला शरीर में?
या फिर दोनों के शरीर में? दोनों
के शरीर मे तो दो हो गया? रावण
वाला भगवान् जी मरने वाला हो गया और राम वाला भगवान् जी मारने वाला हो गया?
तो भगवान् भी दो तरह का हो गया न? एक हो
गया डाकू वाला भगवान् जी और एक हो गया इंस्पेक्टर साहब वाला भगवान् जी?
तो इंस्पेक्टर साहब वाला भगवान् जी, डाकू
वाले भगवान् जी की पिटाई-पिटाई-पिटाई जी हुजूर,
जी अब नहीं सर, अब नहीं सर,
अब नहीं सर। एक भगवान् जी तड़प रहे हैं और दूसरा भगवान् जी पिटाई कर रहे हैं?
ये भी भगवान् जी लोग हैं? कुछ
कहिये।
१०८. जिज्ञासु:- ईश्वरीय सत्ता विद्यमान है हर मनुष्य
में, लेकिन हर मनुष्य का स्वभाव अलग-अलग है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- यही तो जानना चाहिये। यही तो
जानने का विषय है कि हर शरीर में ईश्वर भी नहीं है।
१०९. जिज्ञासु:- नहीं है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- न,
परमेश्वर तो है ही नहीं। हाँ, ईश्वर
जो है जीव रूप में है हर शरीर में वो मायाकृत है,
वो दोष-गुण वाला हैं। अधिक दोषी है, तो
अपराधी है। अधिक गुणी है तो सात्त्विक है। सही है। ये दोष-गुण रूपी दो विधानों में
जीव होता है, ईश्वर नहीं। परमेश्वर तो होता ही
नहीं, ईश्वर भी नहीं। तो वो जीव है।
दोष-गुण वाला जीव है। दोष प्रधान दानव, गुण
प्रधान देव। दोष-गुण दोनों से युक्त है, वो है
मानव। दोष प्रधान दानव, गुण प्रधान देव, दोष-गुण दोनों जिनमें होता है वो बीच में है मानव। मानव ही यदि दोष प्रधान जीवन जीने लगेगा,
तो दानव की श्रेणी में जाने लगेगा। असुर-राक्षस कहलाने लगेगा,
अपराधी कहलाने लगेगा, पिटाई-तोड़ाई शुरू हो जायेगी और
यही मनुष्य शरीर दोष रहित गुण-प्रधान बनेगा तो सच्चा सही व्यक्ति कहलाने लगेगा।
सही मनुष्य कहलाने लगेगा,
अदरणीय-सम्माननीय होने लगेगा। यदि सत्य प्रधान हो जायेगा तो महापुरुष,
दिव्यपुरुष, सत्पुरुष कहलाने लगेगा। तो सब
चीज लक्षण तो मनुष्य में ही है। चाहे अपने जीवन को असुर-राक्षस बनाइये,
अपराधी, दोषी,
कुकर्मी बनाइये और चाहे अपने जीवन को सुकर्मी बनाइये,
शिष्ट सही नागरिक बनाइये और चाहे महापुरुष,
दिव्यपुरुष बनाइये। ये तो आप पर है। भगवान् सबमें रहता तो भगवान् क्या कुकर्मी
होता है क्या? भगवान् डकैत होत है क्या?
भगवान् लुटेरा होता है क्या? तो क्या
इस सबों मेन भगवान् जी नहीं है? भगवान्
सबमें नहीं होता। भगवान् धरती पर ही नहीं रहता है। यानी.........
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवती भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्हम् ।।
तो यदा-यदा और तदा-तदा माने?
जब कण-कण में है ही, जब सबमें है ही है तो यदा-यदा,
तदा-तदा माने? जब-जब और तब-तब माने?
अभी आप जब रामचरितमानस पढ़ते होंगे तो उसमें.....अतिशय देखी धर्म के ग्लानि। परम
सभीत धरा अकुलानी।।
गिरि सरि सिन्धु भार नहीं मोहि। जस मोहि गरुअ एक पर
द्रोही।।
ऐसी-ऐसी पंक्तियाँ आती गई हैं तो......
देखहिं सकल धर्म विपरिता। कह न सकहिं रावण भयभीता।।
बेचारी परेशान होकर के गो रूप धारण करके ऋषि-महर्षि,
ब्रह्मर्षि जी लोगों के यहाँ गई कि मेरे परमप्रभु को कौन जानता है?
मैं उस परमप्रभु की पुकार करके अपना भार हल्का करना चाहती हूँ। ये सारे पृथ्वी के
भार से मैं भारित हो रही हूँ। आप लोग मेरे परमप्रभु को बतलाइये। कौन जानता है?
सब मुँह लटका लिए। नारद बाबा के पास गई वो भी नकार गये। ब्रह्माजी के पास गई,
वो भी नकार गये। शंकर जी के यहाँ सभा हुयी। अब बताइये कि ब्रह्मर्षियों में भगवान्
जी नहीं थे। यानी महर्षियों में भगवान् जी नहीं थे। नारद में भगवान् जी नहीं थे।
ब्रह्मा में भगवान् जी नहीं थे। शंकरजी में भगवान् जी नहीं थे। ये लोग जब पुकार
करते हैं, देवी-देवता,
इन्द्र वगैरह सब, शंकरजी सहित कि-------
जय जय सुरनायक,
जन सुखदायक। प्रणतपाल भगवंता।।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिन्धुसुता प्रिय
कन्ता।
ये कुल लम्बा भजन है,
प्रार्थना है। ऊपर से आकाशवाणी हो रही है।
जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेशा। तुम्हहिं लागि धरहूँ
नरवेषा।।
ये आकाशवाणी कौन किया?
शंकरजी सृष्टि के संहारक हैं। उनको कह रही है आकाशवाणी कि मत डरो लोकपालों,
ऐ इन्द्र, सभी देवताओं के राजा इन्द्र,
सुरेश, उनको आकाशवाणी कह रही है कि डरो
नहीं, डरो नहीं। शंकरजी को,
ब्रह्मा, नारद को आकाशवाणी कह रही है डरो
नहीं, डरो नहीं,
आप लोगों के लिये मैं आ रहा हूँ। वो कौन था?
वह आया तो राम हुआ। तो एक रामजी में भगवान् जी थे कि सबमें भगवान् जी थे। उस समय
उन लोगो में भगवान् जी नहीं थे। नारद,
ब्रह्मर्षि, महर्षि,
शंकरजी भी। आज सबमें भगवान् जी हो गये। रोज खम्बा चारों तरफ टूट रहा है,
मन्दिरों के खम्भे टूट रहे हैं। मकानों के खम्भे टूट रहे हैं,
मकान तोड़े जा रहे हैं, नया बन रहे हैं। मन्दिर तोड़ें जा
रहे हैं, नया बन रहे हैं। किसी खम्भे में
भगवान् जी नहीं निकले। वो सतयुग में प्रह्लाद के लिये खंभा में भगवान् जी निकले।
तो ये कण-कण में और सबमें भगवान् जी हो गये?
आखिर कुछ वर की मान्यता थी, कुछ
परिस्थितियों की मान्यता थी। भगवान् वर की मान्यता को बरकरार रखते हुये प्रह्लाद जैसे भक्त की रक्षा भगवान् नहीं करेगा?
तो कोई भगवान् को पूछेगा?
११०. जिज्ञासु:- वहाँ पर एक बात और तो कहा कि तुझमें और
इसमें भी है।
संत ज्ञानेश्वर जी:- किसने कहा?
१११. जिज्ञासु:- प्रह्लाद ने।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- पढ़ाई पढ़ा था ऋषि के यहाँ।
आत्मा वाला पढ़ाई पढ़ा था। सब आत्मा वाले तो मेला में कहने में लगे हैं कि कण-कण
में भगवान् जी हैं, कण-कण में रहता है। सबमें भगवान्
जी है। यही तो मीठा जहर मिटाने के लिये पण्डाल पड़ा है कि क्यों कि जनमानस को
बर्बाद कर रहा है तू सब। नहीं जानता है तो कह दो कि नहीं जानता हूँ। क्यों ये झूठा
जहर घोल रहा है समाज में? भगवान्
एक राम जी थे, पूरे त्रेतायुग में पूरे
भू-मण्डल पर। भगवान् एक सतयुग में पूरे युग में पूरे युग में पूरे युग में पूरे
भू-मण्डल पर। भगवान् एक सतयुग में पूरे युग में पूरे भू-मण्डल पर विष्णुजी थे।
त्रेता में एक रामजी थे। द्वापर में एक कृष्ण जी थे। आज सब भगवान् जी हो गये,
सबमें भगवान् जी हो गये?
११२. जिज्ञासु:- भगवान् की सत्ता तो रह ही गई।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- भगवान की शक्ति माने भगवान जी ?
११३. जिज्ञासु:- हाँ।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- आज
हम एक गिलास में पानी लेकर आ रहे हैं। ये गिलास के पानी को समुद्र घोषित कर दें? क्योंकि जहाँ कहीं भी जो
भी पानी है, वो
समुद्र का अंश ही तो है। जहाँ कहीं धरती पर जो भी पानी है, वो समुद्र का अंश ही तो
है। तो क्या हम गिलास के पानी को समुद्र घोषित कर दें? क्या नदी के पानी को
समुद्र घोषित कर दिया जाय? क्या कुवें को समुद्र घोषित कर दिया जाय? भगवान् शक्ति नहीं है।
जहाँ से शक्तियाँ पैदा होती है जहाँ से शक्तियाँ संचालित होती हैं, जहाँ से शक्तियाँ
नियंत्रित होती हैं,
जिसमें शक्तियाँ लय-विलय करके स्थित होती है, उस सर्वोच्च सत्ता-शक्ति
का नाम भगवान् है----परमात्मा-परमेश्वर है। वो सबमें कैसे हो जायेगा? वो कण-कण में कैसे हो
जायेगा?
११४. जिज्ञासु:- शरीर से जब जीवात्मा निकल कर के जाती है
तो परमात्मा में विलीन हो जाती है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- ये नरक किसके लिये बना है?
स्वर्ग किसके लिये बना है?
ब्रह्मलोक, शिवलोक किसके लिये बना है। वो
नरक परमात्मा का घर है? कुकर्मी
जब घर छोड़ते हैं तो नरक जाते हैं। नरक परमात्मा का घर नहीं हैं। तो कहाँ सब
परमात्मा के घर जाते हैं?
११५. जिज्ञासु:- हाँ,
एक बात तो है जैसे शुद्ध जल माना जाता है,
वर्षा का पानी।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- ये किसने कह दिया?
जिज्ञासु:- मान लीजिए शुद्ध नहीं है, जल कहा जाता है वर्षा का।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:-सवाल ये है कि जल तो समुद्र के जल को भी जल कहते हैं। शुद्ध जल तो वह है लेकिन वो भी शुद्ध नहीं है। बारिश के जल में वातावरण का दोष-दुर्गुण का अंश नहीं घुलता है क्या? वातावरण दूषित है तो क्या दूषित वातावरण उस बारिश में पानी में घुल कर नहीं आ रहा है क्या?
जिज्ञासु:- मान लीजिए शुद्ध नहीं है, जल कहा जाता है वर्षा का।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:-सवाल ये है कि जल तो समुद्र के जल को भी जल कहते हैं। शुद्ध जल तो वह है लेकिन वो भी शुद्ध नहीं है। बारिश के जल में वातावरण का दोष-दुर्गुण का अंश नहीं घुलता है क्या? वातावरण दूषित है तो क्या दूषित वातावरण उस बारिश में पानी में घुल कर नहीं आ रहा है क्या?
११६. जिज्ञासु:- यहाँ शुद्धता,
अशुद्धता की बात बहस नहीं कर रहा हूँ। हमारा कथन ये है,
कहने का अभिप्राय ये है कि जल तो जमीन में स्पर्श हुआ तो उसमें गंदगी मिल गई तो ये
उदाहरण.........
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- गंदगी हवा में ही मिल गई।
११७. जिज्ञासु:- मतलब ऐसा है कि चौपाई में भी लिखा है।
भूमि परत बा डाभर पानी। जीमि-जीवहि माया लपटानि।। तो मनुष्य इसलिये कि माया के
चक्कर में फंसकर के मैला जरूर हो गया।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- इसीलिये तो मैं कह रहा हूँ कि
माया के चक्कर से बाहर निकलिये, मल रहित
हो जाइये।
११८. जिज्ञासु:- लेकिन तो है तो उसमें भी जल ही
गंदगी......
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- सवाल ये है कि जल गंदा नाले
का जल जल ही है, कोई छूता भी नहीं और गंगा जी का
जल, जल ही है,
डुबकी लगाये तो क्या लगाये, बोतल
में भर-भर कर लोग ले जा रहे हैं, वो पीते
हैं। तो कहने का मतलब जल तो दोनों है, एक गंदा
नाला का भी जल और गंगा का भी जल तो दोनों में अन्तर नहीं है?
११९. जिज्ञासु:- अन्तर तो है.........
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- तो मेरा कहना है गंदा नाला मत
बनिये, गंगाजल बनिये।
१२०. जिज्ञासु:- लेकिन ये कहना कि जल नहीं है गंगा
माने........
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- ये किसने कहा कि जल नहीं है।
१२१. जिज्ञासु:- ये सिद्ध नहीं होता........
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं,
नहीं ये किसने कहा कि उसमें जल नहीं है गंदे नाले में?
ये कहाँ कहा गया कि सबमें शक्ति नहीं है। अरे जीव भी तो उसका एक अंश ही है। तो जीव
भी तो एक शक्ति है। तो कहाँ कह रहा हूँ कि शक्ति नहीं है?
ये कह रहा हूँ कि भगवान् नहीं है। गिलास है कहाँ कह रहा हूँ कि इसमें पानी नहीं है?
जल नहीं है? लेकिन ये समुद्र नहीं है।
१२२. जिज्ञासु:- लेकिन यदि गंगाजल ले आयें हम तो चार
गिलास में, या चार बर्तन में रख दें। एक में
नीला, पीला,
लाल रंग डाल दें तो देखने वाला यही कहेगा कि ये लाल पानी है लेकिन वास्तविकता तो
यह है कि गंगाजल के उपस्थिति को हम नकार नहीं सकते।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- जब वो गंगाजल होगा। यही गंगा
जल गन्दे नाले में डाल दीजिये और बहने लगे। तो ये भी गंगा जल है? कोई स्वीकार
करेगा न? नहीं,
गंगा जी का ही जल ले जाइये और किसी गन्दे नाले में डाल दीजिये और जो कुछ कहे कि
गंगाजल है पिऊँ। लोग पियेंगे न? हम जो
प्रश्न कर रहे हैं उसको हल देकर के अपना प्रश्न कर लीजिये।
१२३. जिज्ञासु:- मेरी जिज्ञासा है कि घट-घट में राम है
तो..........
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं है न राम। यदि घट-घट में
होता तो रावण मरता नहीं।
उसके अन्दर में भी राम होता।
१२४. जिज्ञासु:- माया के चक्कर से मैले जरूर हो गये हैं
लेकिन राम की शक्ति है नहीं तो हम बोल नहीं सकते।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- यही गलत हुआ। यही जानकारी है।
इसीलिये तो मैं कह रहा हूँ। जिज्ञासा है तो सुनिये और समझिये। जो घट-घट में है ये
राम नहीं है, जीव है। जो घट-घट में है ये राम
नहीं है, जीव है। राम नाम भगवान् वाले का
है।
१२५. जिज्ञासु:- कबीरदास का यह कथन गलत हो गया इसके माने
कि ‘खोजी होए तुरंतै मिलहों,
पलभर की तलाश में। मैं तो रहूँ शहर के बाहर,
मेरी पुरी मवास में, और सब सासों की सांस में’
इसके विषय में ईश्वर तो कह रहा है कि मैं सबके स्वासों के स्वास में रहता हूँ।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:-
स्वास में रहा तो भगवान् हो गया। स्वास जहाँ से आ रहा है वो कौन है? कहाँ से है? स्वास में जो है वो
भगवान् हो गया?
स्वसवा पैदा होकर जहाँ से आ रहा है वो कौन है? अरे भगवान् तो आपके भीतर
हो गया? नाक, मुँह दाब दिया जाय कि
बाहर का स्वास न घुंसे तो सब भगवान् जी का थाह पता चल जायेगा। भगवान् जी में
ब्रह्माण्ड होता है? भगवान् जी किसी पिण्ड में, शरीर में नहीं होते। जब
5 तारीख को भगवान् दिखलाऊँगा कि यह शरीर सहित सारा ब्रह्माण्ड भगवान् जी में है।
यह भी दिखलाऊँगा कि शरीर सहित सारा ब्रह्माण्ड भगवान् जी का है, भगवान् जी से है, भगवान् जी में है।
No comments:
Post a Comment
Note: Only a member of this blog may post a comment.