१८८. जिज्ञासु:- महाराज जी ! क्या बिना मूर्तियाँ आधार
को सामने रखकर भी उन्हे पूजा जा सकता है? बिना
मूर्ति के भगवान् को नहीं माना जा सकता है?
मूर्ति रखकर ही पूजा कर सकते है या बिना मूर्ति के ही कार सकते हैं?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं,
नहीं, साधना बिना मूर्ति का हो सकता है,
पूजा-आराधना बिना मूर्ति का नहीं हो सकता। बिना मूर्ति का साधना हो सकता है,
पूजा-आराधना नहीं। पूजा-आराधना तो जैसे रेडियो जैसे सुनते हैं यहाँ है ही है।
रेडियो रखे बिना सुन लेंगे क्या समाचार? वो सारे
तरंग तो यहाँ है ही हैं। टीवी रखे बिना सीन देख लेंगे क्या?
रेडियो रखे बिना सुन लेंगे क्या समाचार? टीवी
रखे बिना देख लेंगे क्या समाचार? सब तो
यहाँ है ही हैं। सब तो यहाँ है ही है। हवा तो यहाँ है ही है। पंखा रखे बिना हवा ले
लेंगे क्या? पंखा में हवा पैदा नहीं हो रहा
है, पंखा में हवा नहीं पैदा हो रहा है इसी हवा को
पंखा नचा दे रहा है। हवा तो यहाँ है ही है। ये पंखा बिना मिलेगा क्या?
रेडियोएक्टिव तो यहाँ चारों तरफ है ही है हम समाचार सुन लेंगे,
टीवी में देख लेंगे क्या? रेडियो
रखना पड़ेगा। इसी से पूजा-आराधना के लिए संकेत रखना पड़ेगा। साधना के लिए किसी संकेत
की कोई जरूरत नहीं। साधना के लिए किसी संकेत की कोई जरूरत नहीं। पूजा-आराधना के
लिये तो अनिवार्य है।
१८९. जिज्ञासु:- महाराज जी ! परमात्मा जो है सर्वव्यापी
है या नहीं?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- न।
१९०. जिज्ञासु:- तो फिर परमधामवासी है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हाँ,
परमधामवासी है।
१९१. जिज्ञासु:- तो महाराज जी ! क्या इस शरीर पर
परमात्मा का यदि अवतरण हुआ है तो ये चलता-फिरता परमधाम रोबोट कहा जाय तो गलत नहीं
होगा?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अब ये शरीर पर है कि नहीं है, ये तो २० तारीख वाले बतायेंगे। अब रही कि जब चलता-फिरता सब कुछ हो सकता है। अब रही
चीजें गौर करेंगे। परमधाम वहाँ.......जहाँ परमानेंट आपका धाम उसका नाम है,
जहाँ एक स्थान है जहाँ कहीं भी घूम-फिर जाकर एक जगह ठहरते हैं। जहाँ कहीं भी
घूम-फिर कर आकर ठहरते हैं तो आपका निवास है। वो आपका स्थान है,
धाम है। घूमने वाला चीज को, जो हम
घूम रहे हैं, गाड़ी हमारा धाम नहीं है गाड़ी
हमारा स्थान नहीं है। इसी तरह से यह एक गाड़ी है। यह एक गाड़ी है। यह गाड़ी है। ये
धाम नहीं है। जब ये धाम होता तो परमधाम हो जाता। ये चलती-फिरती गाड़ी है।
१९२. जिज्ञासु:- इस शरीर पर तो महाराज जी परमात्मा का
अवतरण हुआ है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अब इस शरीर पर हुआ है कि नहीं
हुआ है, ये बात तो ये लोग जानें जो ज्ञान
प्राप्त करते हैं।
१९३. जिज्ञासु:- तो आप भी तो कुछ बता सकते हैं। आपके
मुखारबिंद से तो हम..............
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- इतना ही की कीमत तो
समर्पण-शरणागत है और वह हम आसानी से लुटा दें। इतना ही तो जानने की कीमत तो
समर्पण-शरणागत है और इसी को हम भीड़ में जाकर धूल में मिटा दें।
१९४. जिज्ञासु:- परमेश्वर में आप क्या दिखायेंगे?
किसको दिखायेंगे?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- मैं सदानन्द को खड़ा नहीं कर
दूँगा कि देख लो सदानन्द परमेश्वर है। ऐसा नहीं होगा। उस परमेश्वर का दर्शन होगा
जो सृष्टि के पूर्व में था। जिसे सृष्टि के पश्चात् भी रहना है। ये सृष्टि जिसका
खेल है, उस परमेश्वर को दिखाया जायेगा।
१९५. जिज्ञासु:- सन्त जी के चरणों में नमन करते हुये मैं
एक छोटी सी बात पूछना चाहता हूँ। आपके जो पर्चे बँटे थे,
उसमें लिखा हुआ था कि कण-कण में भगवान्, मिथ्या
है ज्ञान। तो मैं एक बात इसमें पूछना चाहता हूँ। बात कही गई है कण-कण में है
भगवान्। मतलब कि क्या भगवान् कण-कण में व्याप्त नहीं है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- यह बहुत पहले का विषय था। आप
थोड़ा नये आये हैं। भगवान् कण-कण में छोड़ दीजिए,
धरती पर ही नहीं रहता है। ब्रह्माण्ड में ही नहीं रहता है,
कण-कण में कहाँ से रहेगा?
१९६. जिज्ञासु:- तो ये जो कहा है,
रामायण में, ‘हरि व्यापक सर्वत्र समाना’
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना।।‘ मतलब
कुछ और चौपाइयाँ इसी तरह की आई हैं।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हो गया। बोलिए परमप्रभु
परमेश्वर की जयsss! ये वहाँ चैपाई है,
जब धरती बेचारी व्याकुल हो गई कि---------
गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही।
जस मोहि गरुअ एक पर द्रोही।।
सकल धर्म देखइ बिपरीता।
कहिन सकइ रावन भय भीता।।
तो सारे धर्म को जब विपरीत देखी धरती तो परेशान हो
गई। तो अब वहाँ धरती तो बेचारी परेशानी में पड़ गई। वो सोची कि हमको कोई ऐसा
ऋषि-ब्रह्मर्षि मिलता जिसको भगवान् का ज्ञान होता,
जो भगवद् ज्ञानी होता जिसको परमप्रभु हमारे पता होते। अब गो रूप धारण करके लगी
घूमने इधर-उधर। एक भी ऋषि,
राजऋषि-ब्रह्मर्षि नहीं मिले, जो स्वीकार कर सके कि मुझे परमेश्वर का ज्ञान है। सामान्य चेलों को तो परमेश्वर के नाम पर फंसाए थे। धरती सामान्य तो थी नहीं तो पहचान करके उससे कोई झूठ कैसे बोल सकता था? तो ये सब चेलों को फँसा-फँसाकर रखे थे। तो जब धरती चली जाँचने तो एक ऋषि, राजऋषि-ब्रह्मर्षि-ब्रह्मर्षि नहीं मिले। योगी-यति कोई नहीं मिले जो कबूल करे कि हम भगवान् को
जानते हैं। परमेश्वर को जानते हैं। बेचारी नारद बाबा को गुहार की,
नारद बाबा से पूछी वो भी विष्णु को जानते थे महादेव थे,
परन्तु परमप्रभु जा चुके थे। अब वर्तमान में उनको भी अता-पता नहीं। तो नारद बाबा
बोले चलो-चलो पितामह ब्रह्माजी हैं, वो जानते
होंगे। तो नारद बाबा जब गो (धरती) को लेकर पितामह की तरफ लेकर जा रहे हैं ब्रह्मा
जी पहले ही सरक गए कि नारद बड़ी गड़बड़ करके ला रहा है। वहीं जानें। तो कहे कि नहीं
हम क्या जाने परमप्रभु के विषय में। तो चलो-चलो वो महादेव जी,
महेश हैं, जगदीश हैं,
वो बतायेंगे कि परमप्रभु कहाँ रहता है। अब आगे जाकर के,
अब इतना ही नहीं हुआ सब लोग चले, बड़े-बड़े
ऋषि-महर्षि चले, इंद्र चले,
नारद चले, ब्रह्मा चले,
शंकर जी के यहाँ बैठक होने लगा।
बैठे सुर सब करहिं बिचारा।
कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा।।
सारे देवता लोग,
सारे ब्रह्मर्षि लोग, नारद बाबा,
ब्रह्मा, इन्द्र,
शंकर जी सबके बीच में बैठक होने लगी।
पुर बैकुंठ जान कह कोई।
कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई।।
कोई कहा कि वह बैकुंठ में रहता है,
कोई कहा कि नहीं क्षीर-सागर में सो रहा है न विष्णु,
वही परमप्रभु है। कोई कहा भाई वो भी नहीं है। तब कौन है भाई--------
जाके हदय होइ जसि प्रीती।
प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती।।
भइया वो तो सबके हदय में रहता है,
जिसकी जैसी प्रीति होती है वहाँ प्रकट होता है। कुछ लोगों ने कहा नहीं भाई,
यह भी नहीं है, तब शंकर जी ही बतावें,
अध्यक्ष महोदय। वो प्रभु कहाँ रहता है तो भई अब शंकर जी बोले आत्मा वाले थे उस,
साधना वाले हंस थे। अवतार उस समय था नहीं। तब हंस वाले,
आत्मा वाले को तो सर्वव्यापी भगवान् दिखाई देते हैं। जितने आत्मा वाले उनको तो
भगवान् है वहीं परमात्मा है, वही
सर्वव्यापी है। भोले बाबा शंकर जि क्या कह रहे हैं?
जो अध्यक्ष ही थे, कि-------------
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना।।
जब शंकर जी बोल दिए,
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना, ब्रह्मा
जी जो हैं, चूँकि अब अध्यक्ष बोल रहे हैं।
तब उसका सपोर्टर चाहिए कि साधु! साधु! हाँ भाई सही है,
सही है। थोड़ी और आगे बढ़िए। यदि ये सही हैं तब सब मिलकर के प्रार्थना
किसका----------
जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।
ये प्रार्थना मिलकर के सब करने लगे। गौर कीजिएगा
बहुत लम्बा प्रार्थना है। फिर आइए,
प्रार्थना सुनाई दिया, क्योंकि वो देवलोक का था,
अब प्रार्थना का जवाब क्या आ रहा है -----
जन डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा।
तुम्हहि लागि धरिहउ नर वेसा।।
वो जब धरती पर ही व्यापक है,
तो यह आकाशवाणी कहाँ से आई? सुरेशों,
ऐ ब्रह्मा, ऐ सब डरो मत-डरो मत। मैं नर शरीर
धारण करके आ रहा हूँ। अब वो कौन था, जो कह
रहा है कि आप लोगों की रक्षा के लिए मैं खुद धरती पर आ रहा हूँ। अब हुआ क्या
था-------
जब जब होहि धर्म की हानि।
बाढ़ै असुर अधम अभिमानी।।
तब तब धरि प्रभु विविध शरीरा।
हरहिं दयानिधि सज्जन पीरा।।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।
वो परमप्रभु की आकाशवाणी थी न। ब्रह्मा,
इन्द्र को नारद को, शंकर को कह रहे हैं,
डरो नहीं-डरो नहीं। सृष्टि के संहारक को आश्वासन दे रहा है। डरो नहीं,
डरो नहीं। हम खुद आ रहे हैं नर तन में नर तन में,
रक्षा के लिए। वो कौन था? अब आगे
आ जाइए इसी शंकर जी की एक पंक्ति और ले लीजिए,
जब अवतार नहीं था, तब ये बात बोले थे शंकर जी। हरि
व्यापक सर्वत्र समाना और जब अवतार हो गया तो शंकर बाबा का व्यापकत्व खत्म हो गया।
जय सच्चिदानन्द जग पावन राम जी को करने लगे। एक राम में सच्चिदानन्द देखने लगे,
एक राम में और किसी में क्यों नहीं देखा उन्होने?
राम रामेति रामेति, राम नाम वरानने। ये शंकर जी कहाँ
बताने लगे भगवान् को---राम में। क्यों नहीं किसी और का नाम लिया,
क्यों नहीं कहीं और बता दिया। ये है कि नहीं?
१९७. जिज्ञासु:- ये तो है,
लेकिन एक चीज और कही गई है। एक जगह ये नहीं कहा गया ‘हरि
व्यापक सर्वत्र समाना’ ये कहा गया है------ब्यापक विश्व
रूप भगवाना ---------- चरित कृत नाना।। मतलब नरतन धरता है या कोई भी रूप धरता है,
वो व्यापक है विश्व रूप में, सारा
संसार सारा विश्व समाहित उसी में कहा जाता है,
ये तो ऐसे कहने की बात हो गई जैसे रामलीला ग्राउंड में,
रामलीला ग्राउंड में अगर उसमें समाहित है तो रामलीला ग्राउंड में कैसे समाहित है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की
जय ! ऐ भइया ! ये तो आश्चर्य की बात है। आप लोग हमारे भइया का श्लोक लिख लीजिए,
रख लीजिए, व्यापक विश्वरूप भगवाना। तेहि धर
चरित कृत नाना। यहीं से दर्शन होगा २८ तारीख को,
यहीं से दर्शन होगा २८ तारीख को। जो व्यापक भगवान् का इस तरह से व्यापकत्व है। ये
ब्रह्माण्ड है और इस तरह से भगवान् है। भगवान् को व्यापक कहा जाएगा कि क्या कहा
जाएगा-----
सर्व आवृतं तिष्ठति।
परमेश्वर के विषय में कहा गया है। यानी सबको घेर
करके तिष्ठ है जो, ये व्यापकत्व में नहीं आयेगा?
व्यापकत्व का मतलब यह होता है कि भगवान् इसके भीतर है? व्यापकत्व का अर्थ ये है कि
ब्रह्माण्ड भगवान् में है, उसके
बाहर चारों तरफ घेर कर स्थित है न, उसके
बाहर चारों तरफ घेर कर स्थित है न, ये गीता
के श्लोक में भी चौथी कड़ी है कि ‘सर्व
आवृतं तिष्ठति’ अथवा ‘तेहि
धरी चरित कृत अति नाना’। अब आप
देखिए कि वही विराट भगवान् है, वही
शरीर धारण करके लीला करता है कि नहीं?जब हम
विष्णु जी का, राम जी का,
कृष्ण जी का दर्शन करावें तो आप लोग देखिएगा कि जो विराट भगवान् था,
जिससे सृष्टि पैदा होती है, जिससे
ये सृष्टि संचालित है, वही भगवान् विष्णु जी वाली शरीर
धर के, राम जी वाली शरीर धर के,
कृष्ण जी वाली शरीर धर के सारा लीला कर रही है कि नहीं और फिर वही भगवान्
वर्तमान में आया है कि नहीं आया है? यही तो
मैं दर्शन कराऊँगा। आप पढ़ रहे हैं, कह रहे
हैं लेखा-लेखी, हम कह रहे हैं देखा-देखी। अब
हमारा दिन भी आ गया पूरा। अब २८ तारीख के दिन हैं?
आप लोग ये चौपाई याद कर लीजिएगा। व्यापक विश्वरूप भगवाना.........कृत नाना। दोनों
दर्शन होगा, विराट वाला भी होगा और तेहि धर
चरित कृत नाना वाला भी होगा। वो साकार हो गया। ये निराकार हो गया। ये निराकार हो
गया वो साकार हो गया। दोनों दर्शन होगा एक साथ।
१९८. जिज्ञासु:- स्वामी जी ! एक बात और पूछनी है,
आप कह रहे हैं कि ये देहवाला भी हमको दर्शन हो जाएगा,
और वो जो निराकार है उसका भी दर्शन हो जाएगा। क्या उसने दर्शन के लिए हम सबको
दिव्य दृष्टि मिल जाएगी?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- दिव्य दृष्टि तो आत्मा दर्शन
के लिए होगा जो देकर के कराकर के करके तब आगे चलूँगा। उसके लिए तो ज्ञान दृष्टि की
जरूरत है। तत्त्व दृष्टि, ज्ञान
दृष्टि देकर के तब परमात्मा दिखाऊँगा। दिव्य दृष्टि की क्षमता-शक्ति परमात्मा
देखने की है? ये तो आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म तक
लिपटी रह जाएगी। दिव्य दृष्टि से तो आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म २७ को ही दिव्य दृष्टि
दूँगा। जिससे आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म देखेंगे,
इससे परमात्मा थोड़े ही दिखाई देगा। ये हुआ न?
१९९. जिज्ञासु:- एक चीज और भी है-----
बड़े भाग्य मानुष तनु पावा।
सुर दुर्लभ सद्ग्रन्थन गावा।।
ये देवताओं के लिए भी दुर्लभ है,
इतना भाग्यशाली है ये मनुष्य तन लेकिन रामायण में एक ऐसी चौपाई भी है-----------
क्षिति जल पावक गगन समीरा।
पंचतत्त्व अति अधम सरीरा।।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की
जय sss ! यदि अज्ञान में शरीर छोड़ रही है,
तो इसके जैसा अभागा क्योंकि अनमोल रत्न मोक्ष का साधन पाकर के और मोक्ष नहीं पा
लिया यह तन, तो क्या ८४ की सूकर-कूकर,
घोड़ा, हाथी,
की शरीर से मोक्ष मिलेगा क्या? तो यदि
वो मोक्ष प लिया तो बड़े भाग्यशाली है, नहीं
पाया तो घोर अधम है। आप लोगों से क्या कहा ये शुगर फैक्ट्री चीनी हटा दीजिये तो
मल फैक्ट्री हो जाएगा।
२००. जिज्ञासु:- ...................जबकि ये पंचतत्त्व
रचित शरीर है। जब पंचतत्त्व से उसकी रचना की गई उस समय ये अधम कैसे हो गया?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- भइया ! फिर वही बात कर रहे
हैं। ये सारे रिकार्ड ले करके तो कोई ग्रंथ बनता है न?
प्रारब्ध पहले रचा फिर रची शरीर। ये मशीन बाद में बना पहले इसका प्लान बना कि हमको
ध्वनि विस्तारक मशीन लगाना है। तो इसकी पहली प्लानिंग पहले हुई,
ध्वनि विस्तारक मशीन बनाने कीतब ये मशीन बना। इसी तरह से ये मानव पंच रचित ये मानव
योनि का निर्णय पहले हुआ कि मोक्ष रहा है अधम है और मोक्ष पाकर के छोड़ रहा है तो
देवताओं के लिए भी दुर्लभ है।
२०१. जिज्ञासु:- तब तो स्वामी जी ये लिखा जाना चाहिए था
कि पंचतत्त्व रचित मोक्ष के लिए रचा गया है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- है। लीजिए न दे रहे हैं।
बड़े भाग्य मानुष तनु पावा।
सुर दुर्लभ सद्ग्रन्थन गावा।।
क्यों?
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा।
जहाँ भाग्यशाली कहा गया है वहाँ कारण भी दिया गया
है। मोक्ष के साधनों का खजाना है। इसलिए भाग्यशाली है देवताओं के लिए भी दुर्लभ है
ये मोक्ष का साधन है। मोक्ष के साधनों का खजाना है,
इसलिए ये भाग्यशाली है। देवताओं के लिए दुर्लभ है,
यही शरीर नर तन।
२०२. जिज्ञासु:- महाराज जी ! पिण्ड का चालक क्या आपने
जीव को बताया है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हाँ,
ये पिण्ड जो है इसका चालक जीव है। ब्रह्माण्ड का चालक-संचालक माया को कह लीजिए।
लेकिन अंतिम संचालक की बात जब आएगी तो अंतिम संचालक तो परमेश्वर है। अब सवाल उठता
है कि पिण्ड जो है ब्रह्माण्ड का ही एक इकाई है। जब हम जानेंगे तो पहले पिण्ड को
जानेंगे। उसके बाद पिण्ड में रहने वाले उसके चालक को जानें-देखेंगे। जो पिण्ड में
रहने वाला चालक है और ब्रह्माण्ड का जो मालिक संचालक है। इन दोनों के बीच का जो
लिंक है यानि जिस शक्ति-सत्ता के माध्यम से परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म जीव को
संचालित करता है वह माध्यम है आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म। यानी जीव शरीर के भीतर और
आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म शरीर के भीतर और बाहर भी है। और परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म
सदा सर्वदा परमधाम-पैराडाइज-सुप्रीम एबाँड-बिहिस्त में रहता है।
हमारा-आपका ये ‘हम’ जो आवाज आ रहा है ये ‘हम’ एक जीव है। इस जीव को
जीवनी शक्ति उस परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म से आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म लेकर आता है और
इस जीव को सप्लाई करता है। और उसके आधार पर जीव जो है मन, बुद्धि के माध्यम से
इन्द्रियों के द्वारा अपने जन्म-कर्म-भोग-मरण से चलता रहता है। तो इस पिण्ड का
चालक जीव है और संपूर्ण संचालक परमेश्वर है। ब्रह्माण्ड का चालक-संचालक सब-कुछ
परमेश्वर है।
२०३. जिज्ञासु:- महाराज जी ! प्रश्न है कि क्यों रखे
हुये हैं इसका निहितार्थ क्या है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- निहितार्थ में दो शब्द हैं।
एक शब्द है निहित और दूसरा है अर्थ। किसी चीज में जो उसके भीतर छिपा हुआ अस्तित्व
बैठा है उसको निहितार्थ कहते हैं। हमारी जो बातें हैं उनका निहितार्थ ये है कि
अज्ञानता के चलते हमको सारी परेशानियाँ दु:ख-तकलीफ,
विरोधाभास ये सब दिखाई दे रहा है। जिस समय हम लोग वास्तविकता से जुड़ करके अपने को
सच्चाई से युक्त बनाकर रखने-रहने-चलने लगेंगे तो पता चलेगा कहीं कोई तकलीफ नहीं,
कहीं कोई प्रतिकूलतायें नहीं और यदि हैं तो वह एक-दूसरे के इच्छागामी है सहायक हैं,
विरोधाभाषी नहीं हैं। जैसे जहाँ जीवाणु होगा तो विषाणु भी वहाँ उसमें होगा। जहाँ
पाजिट्रान होगा वहीं न्यूट्रान भी होगा दोनों का संतुलन बनाने के लिये। न्यूट्रान
जब रहेगा तो पाजिटिव और निगेटिव इलेक्ट्रान दोनों को संतुलित रखेगा।
इस तरह से आप केवल पाजिटिव ले लीजिए तो कुछ भी
शक्ति काम नहीं करेगी। फेज केवल ले लीजिए तो फेज से कोई काम नहीं होगा जब तक
न्यूट्रल से नहीं जोड़ेंगे यानी संतुलित नहीं करेंगे। क्योंकि फेज में इतना तेज
प्रवाह है कि वह बिना न्यूट्रल के काम नहीं कर सकता।
न्यूट्रल का मतलब जब तक आप तटस्थ नहीं होंगे संतुलन
नहीं कर सकते। दो आदमी बात कर रहे हैं आप जब तक तटस्थ नहीं होंगे सही न्याय नहीं
दे सकते। जब तटस्थ होंगे तब जा करके सही निर्णय दे पायेंगे,
सही व्यवहार दे पायेंगे, सही
क्रिया-कलाप कर पायेंगे। इसमें जीवन को संतुलित बनाए रखने के लिये तटस्थ एक
अनिवार्य पहलू है और वही न्यूट्रान है। पाजिट्रान इलेक्ट्रान तो संतुलित बनाए रखने
के लिये वही न्यूट्रल है। यानी ये पाजिटिव और निगेटिव को संतुलित बनाने के लिये
है।
तो इस तरह से निहितार्थ इसमें एक ही बात है यानि
निहित जो अर्थ है हमारी सारी बातों का वह यह है कि आप-हम सबको ज्ञान से युक्त होना
चाहिए। ज्ञान से युक्त माने सत्य से युक्त होना। जो सत्य है जिससे हम-आप विमुख हो
चुके हैं, भरम-भटक करके जिससे दूर हो चुके
हैं। हमको पुनः वापस उस सत्य पर आ जाना चाहिए। और ईमान से सच्चाई को ग्रहण करना
चाहिए और उस पर बने रहना चाहिए। जब हम ईमान से सच्चाई को ग्रहण करके उस पर बने
रहेंगे तो हमारे-आपके लिये इस ब्रह्माण्ड में कहीं भी,
किसी प्रकार का कोई अभाव नहीं, कोई
अप्राप्त चीज नहीं, किसी प्रकार की कोई प्रतिकूलता
नहीं। यदि प्रतिकूलतायें आयेंगी भी तो आपको यश-कीर्ति स्थापित करने के लिये
आयेंगी। जैसे फर्स्ट आने वाले विद्यार्थी के लिये- तेज विद्यार्थी के लिये जितनी
भी परीक्षायें आयेंगी कुछ देने के लिये ही आयेंगी। तेज विद्यार्थी कभी परीक्षा से
नहीं डरता है। वो जानता है कि उसमें हमारी क्वालीफिकेशन,
हमारी जानकारी समाज में हर किसी को जानने को मिलेगी। तो कभी भी फर्स्ट क्लास के
विद्यार्थी का परीक्षायें कुछ लेंती नहीं,
बल्कि हमेशा कुछ देती ही हैं।
तो उसी तरह से जब हम ईमान से सत्य को हासिल करके उस
पर रहने-चलने लगेंगे तो पता चलेगा संसार जो दु:खालय है,
हमारे आपके लिये एक सच्चिदानन्द की कुटिया हो जाएगा। संसार दु:खालय है,
शरीर सुखालय है, जीव आनंदालय है,
आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म चिदानंदाहै और परमात्मा-परमेश्वर परमब्रह्म सच्चिदानन्दालय
है—परमशान्ति-परमानन्दालय है।
तब सवाल यह उठता है कि हमको रहना चाहिए
परमात्मामय-परमसत्यमय। ताकि इसका यानी संसार का सही वास्तविक लाभ आप-हम प्राप्त कर
सकें। यही इसमें निहित तथ्य है कि हम एक सम्पूर्ण जीवन जिये। हम-आप एक सर्वोत्तम
जीवन जीये। हमारे सारे सत्संग कार्यक्रम का एक मात्र यही निहितार्थ है।
२०४. जिज्ञासु:- तो इसके लिए किसका-किसका ध्यान करना
चाहिए?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बस किसी तरफ ध्यान मत दीजिये।
“ एकहि साधे सब सधै,
सब साधे सब जाय।“ एक आप ज्ञान को हासिल करेंगे तो ज्ञान में मिलने का मतलब होगा कि
परमाणु से लगायत सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तक जो कुछ भी है परमेश्वर में ही है,
परमेश्वर से ही है। एक परमेश्वर का सच्चा ज्ञान पाने का मतलब सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड
की मौलिक जानकारी यानी ज्ञान प्राप्त करना। जब सम्पूर्ण का ज्ञान होगा तभी हम-आप
सभी एक निर्णय ले पायेंगे कि हमको क्या करना चाहिए,
कैसे रहना चाहिए।
ये संभवतया ज्ञान में ही है;
ब्रह्माण्ड में और किसी में नहीं। इसे भगवद्ज्ञान कहिए-सत्यज्ञान कहिए-तत्त्वज्ञान
कह लीजिए लेकिन आत्मज्ञान-ब्रह्मज्ञान नहीं।
भगवद्ज्ञान-सत्यज्ञान-परमज्ञान-सम्पूर्ण ज्ञान आदि-आदि टाइटिल हैं। उसमें कैपेसिटि
है, उसमें संभाव्यता है। वह संशय का ही तो नाश
करता है। ज्ञान सबसे पहले आपके संशयों का ही नाश करेगा। जब तक संशय नहीं मिटेगा तब
तक कोई वस्तु सही रूप में कैसे रखी जायेगी। संशय ही तो सबसे बड़ा अज्ञान है। ज्ञान
सबसे पहले आपके संशय को नष्ट करेगा। आपको नि:शंक बना देगा-संशय रहित बना देगा तब
जाकर के ज्ञान को पकड़ने की कैपेसिटि आपमें बनेगी। संशय में ज्ञान पकड़ में नहीं
आयेगा। इसलिए ज्ञान सबसे पहले संशय को नष्ट करता है। आपके अन्दर ज्ञान को पकड़ने की
कैपेसिटि होगी और आप पकड़ते चले जायेंगे इसलिए सत्संग की जरूरत पड़ती है। सत्संग की
कुछ बैठकें होंगी तो पता चलेगा कि संशय जो है उसमें भागता रहेगा। केवल थोड़ा
जिज्ञासा और श्रध्दा की जरूरत है; विश्वास
की नहीं। विश्वास की चीज ही नहीं है। हम आपसे कहें कि थोड़ा विश्वास कीजिये ऐसा
कहीं नहीं। जानकारी में जब सत्य सामने आयेगा तो विश्वास करना नहीं पड़ता है;
होने लगता है।
तुलसीदास ने भी कहा है-------
जाने बिनु न भगति दृढाई,--------
इस तरह से पहले जानना एक अनिवार्य पहलू है। बोलिए
है कि नहीं? यह स्वाभाविक ही है कि यदि कुछ
जानेंगे नहीं तो करेंगे क्या? है कि
नहीं? कुछ भी करने के लिए जानना एक
पहली कड़ी है। अब हम लोगो का मार्ग मानने का नहीं;
जानने का है। जहाँ शंका है, देख
करके उसको पुष्ट-परिपक्व करते हुये जानने का है। सत्य ही होने पर स्वीकार करना है।
सत्य नहीं होने पर किसी भी प्रकार की स्वीकारोक्ति की गुंजाइश नहीं है। इसको ज्ञान
एलाउ नहीं करेगा। बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की sss
जय !
२०५. जिज्ञासु:- नींद का सम्बन्ध विच्छेद। संसार से
विच्छेद।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- कहाँ विच्छेद?
संसार से विच्छेद माने।
२०६. जिज्ञासु:- निद्रा आने पर संसार से ये माया-मोह से
४ घण्टे, ६ घण्टे विच्छेद हो जाता है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- इस विच्छेद का क्या लाभ मिला
आपको?
२०७. जिज्ञासु:- शान्ति।
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- टटोलना है। टटोलने को ज्ञान
नहीं कहते।
२०८. जिज्ञासु:- ऐसा टटोला न जाएगा तो मिलेगा कैसे ?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं,
नहीं, मिलेगा ही नहीं टटोलने से। ये तो
ज्ञान की वस्तु है। इसके लिए तीन चीजें जरूरी हैं। टटोलने में कभी-कभी आभास होने
लगता है। लेकिन वो सत्य नहीं माना जाता, सत्य
नहीं। जितने आध्यात्मिक हैं कहते हैं आत्मा दर्शन का विषय नहीं है,
अनुभव का विषय है, अनुभूति का विषय है। वे जानते ही
नहीं कि अनुभव क्या होता है। इसलिए वो देखते हुये भी नहीं जान पाते। आप लोग भी
जानते ही नहीं क्या होता है जीव। देखते हुये भी नहीं जान पाते। जब किसी भी
विषय-वस्तु को टटोला जाएगा तो वो भी आप यहाँ के किताब जब पढ़ रहे हैं तो इतना आभास
भी न हो तो और क्या? यहाँ की किताब पढ़ने का फायदा
क्या होगा? यहाँ की किताब यदि इतना आभास न
करावें तो फिर यहाँ की किताब पढ़ने का फायदा क्या?
इसलिए हम निवेदन करेंगे कि हमारे हथियार को हमारे पर मत चलाइए। और कहीं से जाँच कर
आइए।
२०९. जिज्ञासु:- क्या जानना-पूछना जब सामने।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- फिर तो २० तारीख को देख
लीजिएगा। यदि भाग लीजिए तब। लेकिन साधु-महात्मा को जल्दी ज्ञान नहीं देता हूँ।
२१०. जिज्ञासु:- मैं कहाँ हूँ साधु-महात्मा।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- इसलिए कि मेरी परिभाषा को इन
लोगों ने गंदा कर दिया। मैं अब भी वेश का आदर करता हूँ। लेकिन घृणा फैला दिया गया।
ज्ञान तो इनको नहीं ही दे सकता तब तक, जब तक
कि स्थिरता नहीं दिखाएंगे। इनसे मेरे को समर्पण-शरणागत नहीं चाहिए। स्थिरता चाहिए।
वेश जो है चाटने-चूटने का धन्धा नहीं होना चाहिए। वेश जो है ठगने-लूटने का धन्धा
नहीं होना चाहिए। वेश को ईमान-संयम सत्य वाला होना चाहिए। तो मैं ये तो जानने की
कोशिश करूँ कि महात्मा जी ईमान वाले हैं। महात्मा जी तो वेश पहनकर के श्रम-परिश्रम
से बचने का बिना मेहनत का कुछ मिल जाने का,
आदर-सम्मान पाने का एक धन्धा बनाकर रखे हैं। इसलिए मेरे को मजबूर कर दिया गया कि
महात्मा जी लोगों की पहले स्थिरता जाना-देखा जाए। फिर ज्ञान दिया जाय। फिर ज्ञान
दिया जाय। नहीं तो जाकर ये धन्धा करने लगेंगे। ज्ञान को बेचने लगेंगे। ज्ञान की आड़
में ये अपना धन्धा करने लगेंगे। ये एलाउ नहीं होगा। तो एक स्थिरता आप दिखला
दीजिये। क्या सन्त-महात्मा वेशधारी से क्या समर्पण-शरणागत लेना है। यदि वो भगवान्
के लिए निकल पड़ा है वेशधारण किया है तो। अब तो बड़ा मुश्किल हो गया है पहचानना। ये
बिहरिया जो है न ८०-९० प्रतिशत साधु-महात्मा का वेश पहनकर ये बिहरिया भीख माँगने
में लगे हैं। ८०-९० प्रतिशत महात्मा वेशधारी हमको ये व्यसनी दिखाई दे रहे हैं।
बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की जय sss।
जिज्ञासु:- ऐसा है, जब आप चाहेंगे, जब आप चाह लेंगे तो पता नहीं क्या होगा?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- ये तो एक बोलने का ढंग हो गया। भगवान परमधाम छोड़कर आया हो धरती पर और जब आप चाह ही नहीं रहे हैं तो मैं कैसे साथ दूँ? चाहना माने......भगवान् को क्या गर्ज है चाहने की? आपको यश-कीर्ति लेना है भगवान् का होना है, उतरिए। भगवान् का काम बाकी रहेगा क्या? अरे वो अपने कुछ यश-कीर्ति लेना होता न तो कर-करा कर एक आध दिन में चला जाता। वो तो भक्त-सेवकों को यश-कीर्ति देना-दिलाना चाहता है क्योंकि भगवान् के यहाँ न पतन है न उत्थान है। भक्त-सेवकों से तो पतन-उत्थान सटा है। तो यश-कीर्ति भक्त-सेवकों को न देना होता न तो वो तो मिनटों नहीं लगता सारी दुनिया को ठीक करने में। लेकिन अब रही चीजें यश-कीर्ति के भागीदार आप बनें इसलिए ये सब खेल हो रहा है। आप ये चाहते ही नहीं हैं हम लोग हो जाते ! भगवान् विनाशक नहीं होता है, भगवान् कल्याणकर्ता होता है, कल्याणकारक होता है। तो आप लोग बैठे ही रहेंगे तो क्या चाहे भगवान्। अरे नहीं ठीक होगा, नहीं ठीक होगा, नहीं सुधरेगा, नहीं सुधरेगा तो प्रलय करके नया सृजन कर देगा। सृष्टि नष्ट कर देगा, नया सृजन कर देगा। उसके पास तो लय और प्रलय दोनों विधान है। ज्ञान के माध्यम से लय कराता है। नहीं आप लोग सम्हलिएगा तो प्रलय करके नष्ट करके नया बनाएगा। तो भगवान् को क्या गर्ज पड़ी है आपको आइए चाहे मत आइए, चलिये चाहे मत चलिये। ये तो आपका काम है भगवान् का खुदाई लश्कर बनना चाहते हैं कि नहीं। वानरी सेना बनना चाहते हैं कि नहीं। ये तो आप जानिए। बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की जय sss।
२११. जिज्ञासु:- अब २२ तारीख को पहला दर्शन होगा। मुझे
पूर्ण विश्वास है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अभी तो २२ बहुत दूर है। ये
चार-पाँच दिन का सत्संग सुनना अनिवार्य है। ये १६ तक का सत्संग जो नहीं सुनेगा। १७
को १८ को तो वो अपने आप कैंसिल हो गया। २२ कहाँ से आएगा १९ हीं नहीं सटने पाएगा।
जो १६ तक दोनों वक्त के सत्संग में शरीक होगा,
समझेगा, समाधान लेता चलेगा,
जिज्ञासा के साथ-साथ जब श्रद्धा भी प्रगट होगी फिर तो पास होगा १७-१८ में,
पास होगा तो १९ से दर्शन वाला शुरू हो जाएगा।
२१२. जिज्ञासु:- मुझे विश्वास हो गया कि मैं पास भी हो
गया और दर्शन भी पा गया।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- ये कुल आपका अपना बात है।
भइया ! इस शरीर को पैदा करने वाली माँ भी आए न,
तो १७के पहले १६ के शाम को ये नहीं कह सकता कि तुम ज्ञान के पात्र हो। ये कोई मेरे
बाप-दादा की जागिर ज्ञान है क्या? मेरे
पास बोरा में रुपया भरा है, काउंटर
हूँ बैंक का। तो क्या अपने पिताजी को उसमें से चाय पिला दूँगा क्या?
वो तो बैंक का खजाना है भाई। पिताजी को दिलाना होगा तो मैनेजर साहब से कहूँगा कि
मैनेजर साहब पिताजी आए हैं हमको २०० रुपया दे दीजिये न हमारे तनखा में से काट
लीजिएगा। तो उस २०० रुपये में से भले खिलाऊँ। इस बोरा के खजाने में से एक कप चाय
पिला पाऊँगा क्या? तो क्या ये ज्ञान में बाप-दादा
की जागिर है क्या? ये मेरी कोई करसी कमाई है क्या?
अरे भगवान् जी का है, भगवान् जी के कृपापात्र
भक्त-सेवकों को मिलेगा। आप भगवान् जी के कृपा पात्र होंगे कि नहीं आज भी मैं नाप
नहीं रहा रहा हूँ। ये नपना तो लागू करूँगा १७-१८ को। १८ के शाम को १९ के सुबह पता
चलेगा कि १८ के शाम को कौन पास हो गया कि फ़ेल हो गया। इसके पहले तो मैं खुद ही
किसी को पास-फेल नहीं कर सकता। खुद ही पास-फेल नहीं कर सकता। हाँ एक चुनौती भरा
कोई आवे कि मैं समर्पण करना नहीं चाहता। मैं शरणागत होना नहीं चाहता लेकिन सत्य
जानना चाहता हूँ तो ठीक है भाई एक काम करो। अपना सब बेच कर के इकट्ठा करो। मैं भी
अपना समान इकट्ठा कर रहा हूँ और चलो प्रेक्टिकल में सत्य हो जाए तो जमा कर देना,
असत्य हो जाए तो हमारा जमा करा लेना। चुनौती के साथ कोई आवे तो कोई हमारा
समर्पण-शरणागत लागू नहीं होगा। अपना लेकर रखे यहाँ और अपना मैं भी रख रहा हूँ।
सत्य होगा तो तू समर्पण-शरणागत कर जाना और असत्य होगा तो मेरा समर्पण-शरणागत ले
लेना और तेरे कम से कम हजारों गुना ही होगा। भौतिक स्तर पर हजारों गुना क्या कहा
जाए? भौतिक अभी जो कुछ आश्रम वगैरह है। तेरे जैसे
हजारों लोग जीवन जी लेंगे बगैर किसी बाहरी सहायता के।
बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की जयsss।
तो इस तरह से आप अपने मुहँ से पास हो लीजिए,
फेल हो लीजिए, मुझको अधिकार आज पास-फेल करने का
नहीं है।
२१३. जिज्ञासु:- मुझे तो विश्वास हो गया प्रभु।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- इसका नाम अन्ध विश्वास है।
विश्वास किया नहीं जाता है। विश्वास होता है जानने के बाद। जानने के पहले,
देखने के पहले यदि विश्वास किया जाता है तो इसका नाम है अन्ध विश्वास।
२१४. जिज्ञासु:- अब आप किसी भी प्रकार से
हिलाएँ-डुलाएँ-भगाएँ-भटकाएँ। आपकी लीला आप ही जानें।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- ये तो मेरा लक्षण ही नहीं है।
ये मेरा लक्षण ही नहीं है कि मैं किसी को भगाऊँ। मैं भागता नहीं हूँ। ईमान नहीं
रहेगा तो लोग भाग जाते हैं। मैं किसी को भगाता नहीं हूँ। बेईमान जी लोग भाग जाते
हैं। मुझे भगाना पड़ता है। ईमान-संयम की चूड़ी टाईट कर देता हूँ, बेईमान जी लोग भाग जाते हैं। ईमान-संयम वाला जो है मैं भागाकर हार जाऊँ। रोज दण्ड देता रहूँ तो भी नहीं
भागता है, तो भी नहीं भागता है। ईमान-संयम
अनिवार्य है, अनिवार्य है भगवद्मय बने रहने के
लिए यानी संयम नहीं रहेगा तो ईमान नहीं रहेगा,
ईमान नहीं रहेगा तो भगवान् नहीं रहेगा, सत्य
नहीं रहेगा। तो संयम से ईमान रहता है और ईमान से भगवान् मिलता है। ईमान जब इमानी
होंगे तो भगवान् जबरदस्ती बुलाकर के ज्ञान देगा। बुलाकर के ज्ञान देगा,
माँगना नहीं पड़ेगा। भगवान् का दरबार है बिन माँगे मोती मिले माँगे मिले न भीख।
माँगने से भगवान् के यहाँ कुछ नहीं मिलता और सही रहेंगे तो बिना माँगे सबकुछ दे
देगा।
२१५. जिज्ञासु:- कहते हैं खटखटाओगे तो खुलेगा,
माँगोगे तो मिलेगा।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हाँ,
लेकिन ये भी कहते हैं कि धन परिवार और परमेश्वर की सेवा दोनों एक साथ नहीं हो
सकती। यदि आप परमात्मा चाहते हो तो मेरे पीछे हो। ईसामसीह का लाइन है। मंगाकर दिखा
दूँ बाइबिल? कहा है उन्होने जब तुम पैसा और
परिवार की सेवा में लगे हो तो तेरे को परमेश्वर नहीं मिलेगा। दोनों की एक साथ सेवा
शैतान और भगवान् की सेवा एक साथ नहीं हो सकता। यदि तेरे को भगवान् की सेवा की
जरूरत है तो मेरे पीछे आ जा। ये तो कहा है ईसामसीह ने। दरवाजा खटखटाऊँगा तो मिलेगा
लेकिन कैसा---------मेरे पीछे रहोगे-चलोगे तब। पढ़िए बाइबिल। बोलिए मैं मंगाकर दिखा
दूँ कि शैतान, पैसा,
परिवार और परमेश्वर दोनों की सेवायें एक साथ नहीं हो सकती। यदि आपको परमेश्वर
चाहिए तो ईसामसीह ने कहा है कि मेरे पीछे हो जा। मैं गॉडफादर के यहाँ ले चल रहा
हूँ। गॉड फादर के यहाँ पहुँचा दूँगा। अपने पीछे चलने को कहा है। चलिएगा तो
देखूँगा। चलिएगा तो देखूँगा।
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