४६१. जिज्ञासु:- स्वामी जी ! एक और प्रश्न है। प्रश्न भी
कुछ नहीं है उसका उत्तर भी है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- जब प्रश्न है उत्तर है तब आप
क्या बात कर रहे हैं? वह पूछिये जिसका उत्तर नहीं है।
४६२. जिज्ञासु:- बोलो परमप्रभु की जय sss।
प्रभु ! जब बच्चा पैदा होता है, कुछ
जानकार होता है तभी से झूठ सिखा दिया जाता है यह नहीं सिखा दिया जाता है कि सत्संग करना,
सन्त बनना, परमतत्त्वम् को जानना,
परमेश्वर को मिलना। ऐसा कोई युक्ति, ऐसा कोई
सृष्टि में हो जाय, परमेश्वर खुद ऐसा चमत्कार करें
कि ये यही सिखाया जाय।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलो परमप्रभु परमेश्वर की जय
sss। प्रतीक्षा कीजिये भविष्य में ऐसा ही होगा।
कोई माँ घोषित नहीं करा पायेगा, कोई
पिता घोषित नहीं करा पायेगा। ये सारे रिश्ते समाप्त हो जायेंगे। अब रिश्ते आयेंगे
गुरुओं वाले। समय आ गया है प्रजा सूचे प्रजा सूते प्रसासकिते प्रजा को सत्य से
सूक्ता से युक्त बनायेगा। माता-पिता वाला परिचय-पहचान अब नहीं रह जायेगा।
४६३. जिज्ञासु:- गुरुजी गीता में सभी जानते हैं कि तीन
प्रकार के ज्ञान परमात्मा को प्राप्त करने के लिये भक्ति योग और ज्ञान योग और कर्म
योग। भक्ति योग, ज्ञान योग और कर्म योग ये तीन
साधन बताये गीता में। कोई को यदि ईश्वर की प्राप्ति करना है तो तीनों में से कोई
एक साधन अपना सकता है या तीनों को हो, तो और
अच्छी बात है। तो इन तीनों साधनों में जैसे पहली से पाँचवी तक बच्चा पढ़ता है,
फिर हाईस्कूल में जाता है तो विषय जो है, कम होते
जाते हैं और फिर महाविद्यालय में जाके वो एक विषय चुनता है जिसमें उसकी विशिष्ट
योग्यता है। उसको पकड़ता है। तो इन तीनों भक्ति साधनों में से आप निर्गुण निराकार
में जो गहरी योग्यता प्राप्त की है ये हमें दिख रही है,
आप सबकी सुन रहे हैं और इस गहरी योग्यता में कबीरदास जी भी निर्गुण निराकारी थे।
तो उनको भी जब आत्मज्ञान हुआ तो उनने ये कहा कि हम हरि हैं हम नाही।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- जब मैं था तब हरि नहीं,
अब हरि है मैं नाहि।
४६४. जिज्ञासु:- उन्होने ये नहीं कहा कि हम भगवान् हैं
या कि हम भगवान् के भक्त हैं।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- ऐसा करें एक-एक पूछें हम
जल्दी-जल्दी उत्तर देते जायें। बहुत समय नहीं लेंगे। एक-एक करके पूछते जायें हम
जल्दी उत्तर देते जायें ताकि जब एक लाये तो और प्रश्न लाये,
तो हम झट-झट पूछते जायें तो हम झट-झट बताते जायें,
झट-झट पूछते जायें, हम झट-झट बताते जायें। वो अच्छा
रहेगा। एक ही बार कई प्रश्न कर लेंगे उसका उत्तर आयेगा तो सब जल्दी पकड़ में नहीं
आयेगा।
४६५. जिज्ञासु:- भक्ति योग,
ज्ञान योग, कर्म योग ये तीन............
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- पहले एक बात सुन लें,
भोगी-व्यसनी जो होते हैं उनको हर चीज में भोग-भोग दिखाई देता है। योगी जो होते हैं
सव चीज योग-योग देखाई देता है। व्यास जी योगी थे। उनको योग छोड़कर बस उनको कुछ
अता-पता नहीं था। अब वो कर्म को भी योग घोषित कर दिया। ज्ञान को भी योग घोषित कर
दिया। मन को भी योग घोषित कर दिया। बुद्धि को भी योग घोषित कर दिया। भक्ति को भी
योग घोषित कर दिया। ये सब गलत है। सब गलत है। कर्म और योग तो एक-दूसरे का कट्टर
शत्रु है। कर्म रहेगा तो योग नहीं, योग
रहेगा तो कर्म नहीं। ज्ञान योग होता है? योग
ज्ञान का एक अंश होता है। भक्ति योग होता है। योग है जीव का आत्मा से मिलने का
विधान। भक्ति है भक्त का भगवान् से मिलने का विधान। यानी सन्यास कहीं योग होता है।
सन्यास का अर्थ है कि इन्द्रियों को वश में करके हम परिवारिकता को छोड़कर के हम
भगवान् की खोज में निकल पड़े है। उसको सन्यास कहते हैं। ये सन्यास योग होता है।
यानी फल से बुद्धि योग, मन योग।
मन कहीं योग होता है? योग है जीव को आत्मा से मिलने का
विधान जीव को ईश्वर से मिलने का विधान। और मन तो शैतान का प्रतिनिधि होता है।
इन्द्रियों से बुराई-विकृति कराते है। बुद्धि कहीं योग होती है। बुद्धि तो देवताओं
का प्रतिनिधित्व करती है। इन्द्रियों से हमेशा अच्छाई-भलाई का कम कराती है। क्योंकि देवताओं का प्रतिनिधित्व करती है। ये कोई व्यास ने मारा.......योग-योग-योग-योग जैसे भोगीजन
है कि बस सब चीज में भोग देखते हैं। हर अन्न में भोग,
वस्त्र में भोग और पत्नी में भोग। ये सारा संसार वो भोगमय देखते हैं। योगी जी हैं
सब में योग में देखता है।
४६६. जिज्ञासु:- साधना में हमने भोग का शब्द ही नहीं
लिया।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- आपका नहीं मैं जनरल बोल रहा
हूँ। कर्म योग नहीं है, कर्म का
फल योग नहीं है। कर्म और भोग है।
४६७. जिज्ञासु:- कर्म भोग नहीं,
कर्म योगी।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- कर्मयोगी कोई हो ही नहीं
सकता।
४६८. जिज्ञासु:- अर्जुन को भगवान् ने कहा है कि हमारा
ध्यान भी करते रहो मन में कर्म,
क्षत्रिय धर्म के जो कर्म है लड़ाई करना, डरना
नहीं वो भी करो।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- कर्म नहीं कहा। आप गीता का
कर्म नहीं समझेंगे। गीता में जहाँ कर्म का वर्णन है। जयदयाल गोयन्दका का टीका देख
लीजिये कि गीता प्रेस वाला। उसमें भगवान् कृष्ण ने स्पष्ट किया है कि कर्म क्या है?
अकर्म क्या है? और विकर्म क्या है? सबसे पहले इसके रहस्य को जानना चाहिए। कर्म क्या है? विकर्म क्या है? अकर्म क्या है? तो उसमें दिया है व्याख्या में
कि कर्म की वह जानकारी जो शास्त्र निहित कर्म है वास्तव में वो कर्म नहीं है। जो
शास्त्र निहित कर्म है ये कर्म नहीं है। तत्त्वज्ञानी,
तत्त्वज्ञानी महापुरुष,
तत्त्वनिष्ठ पुरुष जो करने को कहे वो कर्म है। तत्त्वज्ञानी महापुष जो मना कर दे
कि नहीं करना चाहिए वो अकर्म है। तत्त्वज्ञानी पुरुष,
तत्त्वनिष्ठ पुरुष जो छोड़ने को कहे वो विकर्म है। जो करने को कहे वही कर्म।
ब्रह्माण्ड में किसी को भी कर्म की जानकारी नहीं है केवल तत्त्वज्ञानी पुरुष जानता
है। वो कहे कि ये करो, वही कर्म है। वो कहे कि ये मत
करो, वही अकर्म है। वो कहे कि इसे छोड़ दो विकर्म
है।
४६९. जिज्ञासु:- तो तत्त्वज्ञानी ही तो अनेकों सन्त,
अनेकों धर्म, महात्मा,
ऋषि-मुनि अनेकों तत्त्वज्ञान ही होता था तब तो पुरुष शास्त्रों में कुछ लिखते थे। तब
उन्होने निकाला समाज की हित में लिखी चीजें।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- ऋषि-मुनि तत्त्वज्ञानी होता
ही नहीं है। ऋषि-मुनि तत्त्वज्ञानी नहीं होता। नहीं,
नहीं, ऋषि-महर्षि तत्त्वज्ञानी नहीं
होते। सवाल ये है समाज का अहित किसमें है और हित किसमें है?
४७०. जिज्ञासु:- जैसे आपने कहा था कि सत्य अपनाये रहो,
सत्य अपनाये रहो तो ये निर्गुण में आ जाता है। सत्य धर्म पर हरीशचन्द्र चलते रहे
तो आखिरकार उनको ईश्वर की प्राप्ति हुई, पकड़े
रहे तो। उसी प्रकार झूठ न कहो, चोरी न
करो, व्यभिचार न करो। तो ये सारे उपकरण हैं ये
सत्य व्यवहार यानी धर्म का प्रतीक हैं। धर्म के नियम हैं और निर्गुण निराकार की
स्थिति में गहराई में पहुँचने पर उन्होने कबीरदास जी ने अनुभव किया था कि अब हम
हैं।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- उनको क्या पता कि ‘हम’
क्या होता है? कबीर तो सोsहँ
वाला था। अरे अंशावतारी था इसलिए पंथ कायम हो गया। अंशावतारी नहीं होता तो वो भी
नाश हो गया होता। कबीर क्या जाने सत्य क्या होता है?
धर्म क्या होता है? कबीर तो सोsहँ
वाला था। साधना की बात किया, सोsहँ
की बात किया। नानक, दरिया,
पल्टू ये लोग तो सोsहँ साधना वाले थे। सोsहँ
तो पतन-विनाश में ले जाने वाला होता है। ये लोग अंशावतारी नहीं होते न,
इनको भी नर्क की यात्रा करनी पड़ती। ये तो भगवान् के दूत थे,
इसलिये जो कुछ भी किये, वापस ले
लिये गये। ये लोग भगवान् के भेजे हुये दूत नहीं होते,
ये लोग अंशावतारी नहीं होते हैं तो जिस मार्ग को इन लोगों ने लागू किया है,
वो पतन-विनाश वाला होता है।
४७१. जिज्ञासु:- भगवान् कभी नहीं कहते कि हमें भगवान् ने
भेजा है। अपना काम करते हैं समझने वाले समझते हैं कि वो अवतारी हैं।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अरे भाई ! आप कबीर को जानते
ही नहीं। कबीर कुतिया राम का मोतिया मेरा नाम,
गर में डारि फांसरी जित खींचे तित जाऊँ।। राम मेरे पिऊ,
मैं राम की बहुरिया। कबीर की वाणी है राम मेरे पिऊ,
मैं राम की बहुरिया।। कबीरा कुतिया राम का,
मोतिया मेरा नाम। गर में डारि फांसरी जित खींचे तित जाऊँ।। तो कबीर तो आया ही था,
संदेश वाहक तो था ही। कबीर का भगवान् कौन था जानते हैं कौन था?
सत्पुरुष। नानक देव का भगवान् कौन था जानते हैं एक ॐकार सत् श्री काल,
अकालपुरुष।
४७२. जिज्ञासु:- कलयुग में कल्कि अवतार की भविष्य वाणी
मानो शास्त्र में भी लिखी है कि भगवान् कल्कि तलवार लेके घोड़ा पर सवार होके
दुष्टों का संहार करेंगे। ये हमने भागवत् की गीता है सुखसागर उसमें पढ़ी है हमारे
घर है वो पुरानी बम्बई छपा की और उसमें ये भी लिखा था कि कलयुग के आचरण,
अभी तो कलयुग का बचपन चल रहा है। तो कलयुग जो है इस तरीका से विष्णुयश ब्राह्मण के
यहाँ सम्बलपुर नमक ग्राम में जन्म लेंगे भगवान् कलयुग के अन्त में। विष्णुयश
ब्राह्मण के घर और कल्कि अवतार.......उसमें हमने ये बात भी लिखी थी कि कांग्रेस की
सत्ता होगी फिर उसके बाद जनता पार्टी जीतेगी तो वो सत्य निकलेगी,
जनता पार्टी लिखा है उसमें और ऐसी सत्ता होगी,
ऐसे ही लिखी है साफ-साफ।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- ये जिसने व्याख्या लिखा है,
वो व्याख्या जिसने लिखा होगा, वो
मतिभ्रष्ट कांग्रेसी होगा। हम जो कह रहे हैं जो सुखसागर जो कह रहे हैं,
श्रीमद्भागवत् महापुराण का हिन्दी वर्जन है। श्रीमद्भागवत् महापुराण के द्वादश
स्कन्द के दूसरे अध्याय में कल्कि अवतारी का वर्णन है। लेकिन उसमें कांग्रेस-जनता
पार्टी वगैरह-वगैरह का कहीं नहीं है। सुखसागर मे.............
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अरे भइया ! कह रहे हैं कि वो
मूल नहीं है। मूल श्रीमद्भागवत् महापुराण है और हम बता रहे हैं कि द्वादश स्कन्द
का दूसरा अध्याय निकाल लीजिये। ये जो आप बोल रहे हैं,
वही प्रकरण मिलेगा। लेकिन इसमें कांग्रेस-जनता दल नहीं लिखा है। हम सुखसागर की बात
नहीं कर रहे हैं। हम कह रहे हैं कि हिन्दी में वर्णन किया गया है उसको। मूल ग्रंथ
श्रीमद्भागवत् महापुराण है।
४७३. जिज्ञासु:- क्या वो सच्ची बात लिखी हुई है वो नहीं।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- वो क्या जरूरी होगा कि वो
सच्चा होगा। सच्चा मूल होगा वो होगा कि सच्चा जो साइड में है वो होगा?
अरे भाई आपको मैं गीता दिखा रहा हूँ कि श्लोक में शंख,
चक्र, गदा नहीं है लेकिन उसके बाद में
है। यानी व्याख्यायें गलत उल-जलूल करके लोगों ने लिखा है। जबकि मूल में नहीं है।
इसी तरह से श्रीमद्भागवत् महापुराण सुखसागर का मूल है।
४७४. जिज्ञासु:- हमने बनावटी नहीं कहा,
सच हमने जो पाया।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- कहाँ कह रहे हैं हम कि नहीं
लिखा होगा, होगा। मैं भी कह रहा हूँ लिखा
होगा। मेरा कहना है कि लिखा भी है तो गलत है।
४७५. जिज्ञासु:- तीसरा प्रश्न है गुरुजी ! आप कहते हैं
कि ईश्वर पर काम करो तो तुम्हें हर तरह से ईश्वर तुम्हें सुविधा देगा,
ऐ देगा, वो देगा। जो आजकल सच्चाई पर चलता
है उसी को परेशानियाँ होती है अन्त में, जो
ईमानदारी पर चलता हो। जो बेईमानी करता है,
लूट-खसोट करता है, बदमाशी उसको नहीं,
ऐसा क्यों? इन सबका न्याय हमें चाहिए।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की
जय sss। हम लोग देखते हैं भगवत् कृपा विशेष से जो
पढ़ता है उसको परीक्षायें देनी पड़ती है। जो पढ़ता ही नहीं,
उसका परीक्षा जाँच कैसा?
बोलिये परम प्रभु परमेश्वर की जय sss।
तो कुल मिलाकर के जो पढ़ता है उसको परीक्षा देना पड़ता है। जाँच देना पड़ता है। जो
पढ़ता ही नहीं है। उसका जाँच परीक्षा कैसा?
जो विद्यार्थी बालकपन में माँ को लड़का
छोड़ना नहीं चाहता। घर से लड़का स्कूल जाना नहीं चाहता। ट्राफी देकर के,
समझा-बुझा के माँ, वहाँ चाहे परिवार के लोग ले जाकर
के रख आते हैं। जो पढ़ता है उस भारी बोझ पड़ता है। गुरुजी का डां-फटकार अलग,
माँ का डांट-फटकार अलग, बस्ता ढोना,
पढ़ाई करना, दिन भर घर से अलग रहना,
रात में सोने न पाना, शाम को पढ़ना,
सुबह को पढ़ना। जो पढ़ना नहीं चाहता मौज-मस्ती तो करेगा ही। उसको तो खूब मौज-मस्ती
करना है, खेलना है,
खेलना है। कहीं कुछ कर लेना है। लेकिन उसका परिणाम बाद में आता है। जो नहीं पढ़ा,
बचपन में मौज-मस्ती किया। यानी उसका परिणाम जेठ की दोपहरी में कुदाल चलायेगा तर-तर
पसीना छूटते हुये भादों के बरसात सावन में कुदाल-फावड़ा चलायेगा पानी में घुस करके।
पुस माघ के जाड़ा में, भोर में उठकर के खेती करने
जायेगा। जाड़ा में सब कुछ करेगा। मजदूरी दे देंगे तीस-चालीस रुपये। मजदूरी दे देंगे
तीस-चालीस रुपये। जिसने बचपन खो दिया पढ़ाई में,
बचपन का सारा सुख खो दिया। खेलना-कूदना बन्द,
घर का सुख बन्द, माता की गोदी बन्द। सब कुछ बन्द।
भागे-भागे स्कूल गया, पीठ पर बस्ता ढोया,
आकर के घर में सोना खोया। शाम को पढ़ा, भोर को
पढ़ा, सुबह नहाया,
धोया, स्कूल-स्कूल भागा। ,तो
जिसने ये क्रियायें बचपन में झेली, ये
परेशानियाँ झेली। कहीं सचिव,
सेकेट्री हो गया, कहीं कमिश्नर हो गया,
कहीं आई॰जी॰, डी॰आई॰जी॰,
डी॰जी॰पी॰ हो गया। तो ए॰सी॰ बंगला में बैठा है। काम क्या है अरे भाई मैंने ये काम
करने के लिये कहा था नहीं सुना। साहब को ऊपर जवाब देना पड़ता है। काम क्या है
डांटना-फटकारना, डायरेकशन देना,
ऐ॰सी॰ बंगले पर बैठना। चारो और से आ रहा है .....जी सर ए ए सर ऐसा है।
अब थोड़ा सा बस। अच्छा आने दो भइया ! अरे अभी मैंने
किताब मंगाया, दूसरे जगह से दिखाने के लिये
प्रमाण उनके लिये कि बड़ा अच्छा वर्णन है, हमारे
यहाँ का नहीं है। वो गायत्री वालों का है श्री राम शर्मा के यहाँ का है। बहुत
बढ़िया इसमें व्याख्या किया है।
४७६. जिज्ञासु:- बोलो परमप्रभु परमेश्वर की जय sss।
गुरुजी से मैं यह पूछना चाहता हूँ। जालंधर को लेकर जो है भगवान् विष्णु पर जो है
कुछ आक्षेप लगाया जाता है। वृन्दा, जालंधर
और विष्णु को लेकर के, तो वो कहाँ ,
कैसे, कितना सही है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलो परमप्रभु परमेश्वर की जय
sss। ऐ भइया ! वो आक्षेप नहीं कहा जायेगा। भगवान्
का एक ही प्रयोजन है। भगवान् जब अवतार लेता है तो उसका एक ही प्रयोजन .......ये वो
है दुष्ट का संतुलन बनाये रखना। विश्व का संतुलन बनाये रखना। ये है देव वर्ग की
रक्षा करना। देव वर्ग की रक्षा करते हैं विश्व का संतुलन बनाये रखना। उस समय
जालंधर जो है, सारे देवताओं को तबाह कर दिया
था। सभी लोगों को अपने जेल में बन्द कर दिया था। जालंधर कोई सामान्य व्यक्ति नहीं
था। विष्णु जी का साला ही तो था। लक्ष्मी जी का भाई ही तो था,
विष्णु जी का साला ही तो था। लक्ष्मी जी का भाई ही तो था। वो कोई सामान्य व्यक्ति
थोड़े था आगे बढ़ने जानने के लिये तो शंकर जी का साक्षात् तेज था। वो शंकर जी का
साक्षात् तेज.....जो तेज शंकर जी में है। वो तेज ही जालंधर बनकर प्रकट हुआ था। तो
कुल मिलाकर के जो है जालंधर कोई सामान्य व्यक्ति नहीं था और वो जो है देवता लोगों
को अभिमान-अहंकार हो गया था। उसको तोड़ने के लिये ही वो पैदा हुआ था। उसके बाद वह
जालंधर, ऐसा जुल्म-अत्याचार पर पहुँच गया
कि सारे लोकपाल जो देव वर्ग में थे, सबको
जेल में बन्द कर दिया, नारद बाबा को छोड़कर सबको बन्द कर
दिया। तो अब जो जुल्म-अपराध जो करेगा। अन्त में सबने गुहार किया भगवान् विष्णु से।
अब क्या होगा? क्या धरती असुरा ही होगी?
देववर्ग असुरों द्वारा ही संचालित होगा। आप कुछ करते क्यों नहीं?
महासती वृन्दा जो है अपने तप का दुरुपयोग किया। उसने जो है,
जो उसको वर प्राप्त था, हार। जो
उसके गले में हार रहेगा वो विजयी रहेगा। उसने अपने तप का हार जो है,
जालंधर को पहना दिया कि जब तक हार जो है सत रहेगा,
जो हार पहना रहेगा और जब तक हार ताजा रहेगा कोई भी आपका कुछ बिगाड़ नहीं पायेगा।
विष्णु जी भी आपको मार नहीं पायेंगे। तो एक तरफ उसका पालन का,
सत्य-धर्म का, सती का सत् की मर्यादा का पालन
और महा सती थी ही, सत् उसमें था ही। अब उस सत् के
कारण वो जालंधर को मारने नहीं देना चाहती थी। जालंधर अब देवताओं को सर्वनाश करना
चाहता है। ऐसे स्थिति में पुकार हुआ तो भगवान् विष्णु को मर्यादा तोड़कर के जालंधर
का वध करना पड़ा। जाकर के सत् को भंग करना पड़ा। सत् भंग हुआ,
जालंधर मारा गया शंकर जी द्वारा और इसके बाद जो है,
ये सब रहस्य प्रकट हुआ। तो भगवान् विष्णु ने कहा और लोगों ने नहीं कहा,
वो स्वयं आरोप अपने को माने, न्याय
से युक्त किया। बाद में सब हवा हो गया। बाद में भगवान् विष्णु जी ने न्याय किया।
मैं आज के बाद अपने को कलंकित घोषित कर रहा हूँ। और मेरा एक रूप कलंकित होने का
रहेगा समाज में। वही तो ठाकुर जी हैं और वही महा वृन्दा तुलसी हैं। तुलसी जब तक
पत्ता नहीं चढ़ेगा ठाकुर जी पर, तब तक
जो है ठाकुर जी का पुजा नहीं होगा और हर साल एक बार भगवान् संबंध स्थापित कर लेंगे
तो हमेशा के लिये तुलसी को अपना पत्नी घोषित किये। ताकि उसका सतीत्व,
अपनी पत्नी बना लेने का मतलब उसकी सतीत्व की रक्षा हो जावे। तो हर साल तो तुलसी का
विवाह तो होता है भगवान् से, ठाकुर
जी से। कार्तिक में शादी होती है। व्रत वाले खूब जानते होंगे।
४७७. जिज्ञासु:- राम जी को लेकर कहते हैं कि जो है राम
जो हैं शूद्रों के विरोधी थे, शंभू
नामक जो है तपस्वी थे......
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- कौन कहते हैं कि शूद्र के
विरोधी थे। शूद्र सब कहते हैं कि शूद्रों के विरोधी थे। केवट शूद्र ही था,
शबरी शूद्र ही थी, जटायु,
कौआ, कागभुशुण्डि तो शूद्र ही में न आयेंगे?,
पशु में शूद्र हैं। तो इन्हीं लोगों को साथ लेकर सब कुछ किया उन्होने। कौन
ब्राह्मण साथ दिया? कौन राजपूत साथ दिया?
कौन लाला-बनिया, कोई कहाँ साथ दिया राम का?
सुग्रीव सब तो दिये और उन्ही के लिए उन्होने सब कुछ किया। शंभू की जहाँ तक सवाल
है। आज भी कानून की मर्यादा वैसा ही है। अर्दली चपरासी..........देखिए ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य,
शूद्र उस समय भी जन्म-जात नहीं था। और उसमें चार जातियाँ थी। आज चार वर्ग है। कुछ
स्थिति नहीं बदली है। कास्ट जो जाति है, क्लास
वर्ग में बदल गया है। चार क्लास कास्ट उस समय था। चार क्लास इस समय है। चार
जातियाँ थी, चार वर्ग है। जो उस समय व्यवस्था
था, वही आज भी है। उस समय चतुर्थ वर्गीय थी,
जो शूद्र वर्ग था, वो प्रथम वर्गीय ब्राह्मण वाला
यदि कार्य करता तो गिरफ्तारी होती मारा जाता। आज भी यदि अर्दली वाली फोर्थ क्लास
वाले हैं। यदि जज साहब के कुर्सी पर बैठकर के न्याय करने जायेंगे तो गिरफ्तारी नहीं
होगी तो उनका पूजा होगा क्या?
गिरफ्तारी नहीं होगी तो पूजा होगा क्या? तो जो
फर्ज ..........आज का जो प्रथम वर्गीय अधिकारी है,
वो उस समय ब्राह्मण वर्ग था। आज का द्वितीय वर्गीय अधिकारी है वी क्षत्रिय वर्ग
था। वहीं तृतीय वर्ग कर्मचारी वही उस समय वैश्य था। सब कार्य सेवायें चतुर्थ
वर्गीय है वो है ही है क्योंकि सारा अधिकार आज प्रथम वर्गीय अधिकार में है। वो काम
कुछ नहीं करेगा, वो डायरेकशन करेगा। अरे ऐसा करना
है, वैसा करना है। ये करो,
वो करो। उसी के आदेश-निर्देश में,
डायरेकशन में वो सारे कार्य होंगे। प्रथम वर्गीय अधिकारी कोई कार्य थोड़े करता है
वो तो डायरेकशन देता है। डांट-फटकार लगाता है। द्वितीय वर्गीय अधिकारी जो होते है
वो जाकर के जाँच करते है, पड़ताल
करते हैं, कार्य करते हैं। वो जैसे ये
द्वितीय वर्गीय जैसे क्षत्रिय थे। शासन सीधे क्षत्रिय करते है,
डायरेकशन गुरुओं का होता था। निर्देशन गुरुओं का होता है। संचालन राजा करते थे।
वैसे आज निर्देशन प्रथम वर्ग का है। संचालन द्वितीय वर्ग का है। उस समय भी सारा
सारा धन-दौलत, रुपया-पैसा,
खजाना तृतीय वैश्य के यहाँ रहता था। आज भी तृतीय वर्ग में सारा रुपया-पैसा,
खजाना तृतीय वर्ग क्लर्को के हैं। सारा कागजात,
सारा धन-दौलत, सारा रुपया-पैसा,
किसके पास है क्लर्कों के पास तो है। कलेक्टर साहब रुपया थोड़े देंगे। रुपया क्लर्क
देगा। कलेक्टर साहब कागज-पत्र थोड़े रखेंगे,
कागजात-पत्र क्लर्क रखेगा। कलेक्टर साहब धन-दौलत थोड़े देंगे,
वो तो क्लर्क देगा। कुल मिलकर राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री जो भी घोषित करेगा,
वो पैसा तो देगा क्लर्क न। तो आज भी धन-दौलत क्लर्क तृतीय वर्ग में है। उसमें भी
शूद्र वर्ग माने सेवक वर्ग, चतुर्थ वर्ग
था, सेवक वर्ग था। आज भी चतुर्थ कर्मचारी सेवक
वर्ग हैं। तो हम तो कार्य में कोई अन्तर नहीं देख रहे हैं। नाम बदल गया है। कास्ट
ये क्लास हो गया। जाति से वर्ग हो गया। हमने तो देखा है ऐसे-ऐसे अधिकारी हैं,
जो जुल्म कर रहे हैं अपने कार्य सेवकों के साथ,
चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी के साथ शायद उतना ब्राह्मण नहीं कर रहा होगा। मैंने ऐसा भी
देखा है डी॰आई॰जी॰ के लोग डी॰आई॰जी॰ के बंगला में जो लोग सिपाही होता है,
वार्डन होता है, उनके घर में,
गौशाला में सब काम कर रहा है। उसका गइया का दनवा नहीं खाने देता है। गइया का दनवा
उस चपरासी को नहीं खाने देता था। ऐसे-ऐसे नीच वर्ग के उसमें जो नीच वर्ग के
ब्राह्मण थे, ज़ोर-जुल्म किये,
व्यवस्था बदली। आज भी नीच वर्ग के ऐसे-ऐसे अधिकारी हैं,
एकाध बीच-बीच में ज़ोर-जुल्म करते हुये और चारों तरफ दंगा फैलती है। ये उस समय भी
था, वो आज भी है मुझे तो कुछ नहीं लगता। भगवान्
कृष्ण ने कहा है चतुवर्णन व्यास सृष्टन, गुण
कर्म विभाजीत ये चार वर्ग जो जातियाँ हैं,
वो मेरे द्वारा कृत हैं लेकिन पैदाइशी के आधार पर नहीं,
गुण-कर्म के आधार पर। कपड़ा धोने का काम करेगा धोबी कहलायेगा। लोहा का काम करेगा,
लोहार कहलायेगा। सोना का काम करेगा सोनार कहलायेगा। ब्रह्मज्ञान देगा ब्राह्मण
कहलायेगा। वेद पढ़ायेगा विप्र कहलायेगा। जो छत्र धारण करेगा,
क्षत्रिय कहलायेगा। राज करेगा, राजपूत
कहलायेगा। ये सब गुण-कर्म के आधार पर तो नामकरण था और वैसा ही था। कहाँ दशरथ सिंह
राय लिखा जाता है? कहाँ वशिष्ठ तिवारी,
वशिष्ठ पांडे, वशिष्ठ चौबे,
वशिष्ठ मिश्र लिखा जाता है? कहाँ
द्रोणाचार्य पांडे सिंह लिख जाता है। कहाँ युधिष्ठिर सिंह?
कहाँ भीम सिंह लिखा जाता है? अभी
द्वापर तक कहीं नामकरण नहीं था। कहाँ पैदाइशी जात-पात था?
नामकरण कर्म के आधार पर था। आज भी हैं पढ़ाएंगे तो मास्टर साहब कहलायेंगे,
इंजीनियरिंग का करेंगे तो इंजीनियर साहब कहलायेंगे। डाक्टरी करेंगे तो डाक्टर साहब
कहलायेंगे। कलेक्टरी करेंगे तो कलेक्टर साहब कहलायेंगे। एस॰पी॰ गीरी करेंगे तो
एस॰पी॰ साहब कहलायेंगे। ये तो है ही कर्म के अनुसार तब भी था,
आज भी है।
जिज्ञासु:- बोलो भक्त और भगवान की जय sss
।
बोलो परमप्रभु परमेश्वर की जय। सद्गुरु महाराज की जय। मैंने दुर्गा चालीसा मे पढ़ा
कि शंकर जी ने किलक कर दिया अगर जो किलक शब्द का अर्थ नहीं जानता उसका सर्वनाश हो
जाएगा। तो ऐसा कौन सा मन्त्र था जो भगवान शंकर ने किलक किया था?
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- पहले शंकर जी भगवान थे ही
नहीं।
४७८. जिज्ञासु:- तो नहीं उसमें दुर्गा चालीसा में लिखा
था बहुत दिनों से.......
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- देखिए । एक चीज है भक्त जो
होता है, जो अपना ईष्ट बनाता है,
उसी को सब चीज घोषित कर दिया है। दुर्गा चालीसा में लिखा होगा कि दुर्गा जी नरसिंह
अवतार हैं, दुर्गा जी ही रामवातार हैं,
दुर्गा जी भगवद् रमावतार.... दुर्गा जी ही सब हैं। भगवान जी दुर्गा जी हैं,
सब कुछ दुर्गा जी हैं। लेकिन ऐसा है नहीं। दुर्गा जी आदि शक्ति थीं,
दुर्गा जी........ हम दिखाएंगे तीन तारीख को आदिशक्ति को,
देख लेना। दुर्गा जी पर यदि श्रद्धा रहा होगा,
तो दुर्गा जी कहेंगे तो दिखा देंगे। वो बाघ में चढ़ती हुई आएँगी,
दिखाई देंगी। बाघ कोई मुर्दा थोड़े रहेगा, वो तो
जिंदा रहेगा और वो उसी तरह से रहेगा जो दुर्गा जी का बाघ है। ये है कि स्थूल में
तो नहीं रहेगा और वहाँ से मिलना होगा सूक्ष्म शरीर में। हैं न दुर्गा जी,
बोलेंगी, हंसेंगी बतियायेंगी,
आर्शीवाद देंगी। शायद हों न हों लेकिन जनरल में नहीं करूँगा। नमूना के लिए एक आध
को दिखा दूँगा। जनरल में इन लोगों को थोड़े बुलाके जगह-जगह नचाया जाय। हाँ,
एकाध को नमूना के लिए दिखा दूँगा, हाँ,
ऐसा भी हो जाएगा। जब जरूरत होगा, बुलाया
जाएगा तो दिन में दौड़े-दौड़े आएँगे। बुलाया जाएगा तो शंकर जी दौड़े-दौड़े आएँगे।
बुलाया जाएगा तो विष्णु जी आएँगे, रामजी
दौड़े-दौड़े आएँगे।
४७९. जिज्ञासु:- वह कौन सा मन्त्र था जो उन्होने किलक कर
दिया था?
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- अरे भाई ! मन्त्र पढ़कर,
दुर्गा चालीसा पढ़कर.... किलक एक अध्याय है। दुर्गा सप्तशति में किलक एक अध्याय भी
है। तो दोबारा पढ़िए न सब मन्त्र उसमें हैं। जरा दुर्गा सप्तशति लाना किलक नाम का
एक अध्याय है। दुर्गा सप्तशति में किलक एक अध्याय है। अब रही चीजें ये सब चीजें हम
लोगों के विभाग में हैं ही नहीं। हाँ, दुर्गा
जी हम लोगों के विभाग में हैं तो आदिशक्ति के रूप में हैं। शंकर जी हम लोगों के
विभाग में हैं, सृष्टि के संहारक के रूप में
हैं। हँस रूप में हैं। गौर कर रहे हैं कि नहीं कर रहे हैं तो शंकर जी को तो दिखाई
बे करेंगे, शंकर जी नहीं शिव-शक्ति। शंकर जी
शरीर वाले हैं। शरीर वाले का कोई विशेष रिकॉर्ड नहीं होता है। शंकर जी की जो
क्षमता-शक्ति थी, जिससे शंकर जी संहार का,
न्याय का, कल्याण का कार्य करते थे,
वो शिव-शक्ति है। तो शिव-शक्ति का साक्षात् दर्शन मैं कराऊँगा तीन तारीख को।
शिव-शक्ति को दिखाऊँगा तीन तारीख को। आप भाग लें भगवद् कृपा रहेगा तो आपको कम से
कम शिव-शक्ति, आदि-शक्ति को तो कम से कम दिखला
ही दूँगा।
४८०. जिज्ञासु:- हम जाने के लिए चाहते हैं,
उनके रास्ते पर चलने के लिए लेकिन झूठ और यह माया जो है,
बुद्धि काम करती है, विवेक.....
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- आप अपना शरीर परमेश्वर की
शरण में डाल दीजिये। येन-केन-प्रकारेण पड़े रहिए बकिया सब कुछ कर लेगा।
४८१. जिज्ञासु:- हमारे कहने का मतलब ये हैं कि मतलब कैसे
डाल लें वह माया और ये जो है आपके मतलब जो है सच और झूठ जो है एक दम मन को जो है
अपनी तरफ खींच ले रहा है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- सवाल ये है कि खींच नहीं ले
जा रहा है। आप स्वयं जा रहे हैं और कह रहे हैं कि मैं खींचा रहा हूँ,
वही खींच रहा है।
४८२. जिज्ञासु:- 90 परसेंट लोग इसी से परेशान हैं।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं,
नहीं वो झूठ बोलते हैं। वो खुद जा रहे हैं और झूठ में बोल रहे हैं कि हम खींचा रहे
हैं।
४८३. जिज्ञासु:- नहीं तो चमत्कार कुछ करिए न,
परमेश्वर हैं चमत्कार।
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- परमेश्वर चमत्कार नहीं करता
है। वो जादूगर नहीं है। पाँच गो रुपया कटा लीजिए किसी प्रदर्शनी में जादूगर होगा
आपको दसियों चमत्कार दिखा देगा। बोलो परमप्रभु परमेश्वर की जय। परमप्रभु परमेश्वर
की जय।
४८४. जिज्ञासु:- महाराज जी ! गीता में जो भगवान ने कहा
है ‘अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥’
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- वो भी सही है आप आश्रम में
दो दिन रहिए। दो-चार दिन रहकर देखिए, भगवान
कृष्ण ने जो श्लोक कहा है, मेरे
में जो अनन्य चिन्तन भाव से मेरे शरण में रहता है,
उसका सारा योग क्षेम मैं खुद वहाँ करता हूँ। जो कमी है उसकी पूर्ति करना योग है और
जो रक्षा का नां है क्षेम। तो उनकी कमियों की सारी पूर्ति और उसकी रक्षा का भार
स्वयं लेता हूँ। आश्रमों पर जाकर देखें जीतने भी लोग आश्रम पर रह रहे हैं उसका योग
क्षेम स्वयं वहाँ कर रहा है कि नहीं।
४८५. जिज्ञासु:- महाराज जी गृहस्थ में रहते हुये
आप.......
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- गृहस्थ में रहते हुये चिंतस्थ
कैसे होगा? अनन्य चिन्तन कैसे होगा गृहस्थ
में ? और अनन्य चिन्तन अन् अन्य यानी
भगवान के सिवाय दूसरे किसी का भी चिन्तन न हो। तो गृहस्थ में रहेंगे तो माँ का
चिन्तन, भाई का चिन्तन,
पति का चिन्तन, पत्नी का चिन्तन,
पुत्र-पुत्री का चिन्तन, धन दौलत
का चिन्तन, व्यवस्था का चिन्तन,
रक्षा का चिन्तन कैसे मिटा देंगे और ‘अनन्यात्
चिन्तातमम्यम्’ तो अनन्य,
अनन्य का अर्थ होता है अन् अन्य यानी भगवान के सिवाय दूसरे किसी का भी चिन्तन न हो,
तब उसको भगवान में अनन्य चिन्तन कहलाएगा।
४८६. जिज्ञासु:- महाराज जी ! मैंने इस तरह तो कहा नहीं। ‘यो
मां पश्यति सर्वत्र च मयि पश्यति तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- अरे भाई ! जो भगवान् पाएगा,
जैसे मान लीजिए भगवान पाने के बाद दर्शन होगा जब चार तारीख को तो मान लो ये
ब्रम्हाण्ड है, तो भगवान जो पाएगा देखेगा कि
भगवान ब्रम्हाण्ड के इस तरह (हाथ में फूल लेकर उसे मुट्ठी में बन्द करके मुट्ठी को
दिखाते हुये)(यहाँ समझाने के लिए फूल को ब्रम्हाण्ड तथा परमेश्वर को हाथ (मुट्ठी)
बताया गया है) होता है। तो ब्रम्हाण्ड के सब ओर भगवान होता है कि नहीं। फूल के सब
ओर हाथ दिखायी दे रहा है कि नहीं फूल के ?
फूल के सब ओर हाथ दिखायी दे रहा है कि नहीं?
इसका मतलब इस फूल में भी हाथ है, इसका
मतलब इस फूल में भी हाथ है? सब ओर
हाथ होने का मतलब क्या ? फूल में
भी हाथ है? वैसे ही भगवान जो है जब दिखायी
देगा। गीता अध्याय तेरह श्लोक तेरह विराट वर्णन है-
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोsक्षिशिरोमुखम्
।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥
तो सर्वमावृत्य तिष्ठति,
सारे ब्रम्हाण्डों को घेरकर स्थित है जो वो परमात्मा-परमेश्वर है। ब्रम्हाण्ड में
परमात्मा-परमेश्वर नहीं होता है। ब्रम्हाण्ड जिसमें है वो परमात्मा-परमेश्वर है।
जो परमात्मा का दर्शन करेगा, जो
परमात्मा को देखेगा, वो तो सब ओर परमात्मा को ही
देखेगा। सबमें नहीं देखेगा, सब ओर
देखेगा।
४८७. जिज्ञासु:- सबमें नहीं देखेगा?
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- न।
४८८. जिज्ञासु:- दृष्टिपात करेगा तभी तो देखे पाएगा।
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- एक होता है दृष्टिपात दे
देना और एक होता है करना। दृष्टिपात नहीं होगा तो झटका में 2-4 सेकण्ड में
परमेश्वर दर्शन हो जाएगा, तब न दर्शन होगा।
४८९. जिज्ञासु:- अपने कहा कि सत्संग के द्वारा ही
प्राप्त होगा।
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- वो तो सत्संग के द्वारा
आवश्यकता समझेंगे तो पात्रता परीक्षण में जायेंगे,
पात्रता परीक्षण द्वारा तत्त्वज्ञान में जायेंगे। तत्त्वज्ञान में वो सब मिलेगा।
बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की जय। परमप्रभु परमेश्वर
की जय। परमप्रभु परमेश्वर की जय। सत्यमेव विजयते नानृतम्।
४९०. जिज्ञासु:- डिक्शनरी से ये सब भी तो नहीं निकाला जा
सकता कि वो ओमनी प्रेजेंट यानी सर्वत्र है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- ये तीन बात लिखा है,
ओमनी प्रेजेंट ही नहीं, ओमनी
सिएंट, ओमनी पोटेंट एण्ड ओमनी प्रेजेंट।
ओमनी सिएंट, ओमनी पोटेंट है एण्ड ओमनी
प्रेजेंट भी है। तो ओमनी प्रेजेंट का अर्थ तो मैंने अभी लगाया कि ओमनी प्रेजेंट का
मतलब सर्वव्यापी। ओमनी सिएंट माने सर्वज्ञ।
४९१. जिज्ञासु:- इससे निकाला नहीं जा सकता। सर्वव्यापक
तो हुआ ही।
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- ये बात थोड़ा सा एक ही शब्द के माध्यम से संपूर्ण वर्णन थोड़े ही मिल जाएगा? वर्णन के हर प्रकरण को देखना होगा न। तो ये अपने जो पढ़ा।....
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
यानी ये लोक क्या है दो भागों में बंटा हुआ है।
४९२. जिज्ञासु:- ये तो शरीर और जीवात्मा की बात है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- अरे भाई इसको थोड़ा समझने की
कोशिश किया जाय। आप विद्वान हैं मैं स्वीकार कर रहा हूँ। लेकिन मेरा कहना है कि
समझ नहीं पाये मैं समझा रहा हूँ, समझने
की कोशिश कीजिये। मैं एक भी शब्द अर्थ से बाहर जाऊँ। तब मुझे टोक देना,
तब मुझे अर्थ के अन्तर्गत यदि अर्थ कर रहा हूँ,
तो उसको समझिए थोड़ा सा—द्वाविमौ पुरुषौ लोके ये जो लोक है इसमें दो प्रकार की
चीजें हैं। ये जो लोक है इस लोक में दो प्रकार की चीजें। क्षर और अक्षर यानी
विनाशशील और अविनाशी दो मिलकर ये लोग बना है। जितना भूत प्राणीजन हैं भूत कह देंगे
तो पञ्च नाम जो आकाश, वायु,
अग्नि, जल,
थल – ये पञ्च भूत कहलाता है। तो ये पञ्च भूत जो हैं। देखिए-- क्षिति,
जल, पावक,
गगन, समीरा तुकबंदी पर नहीं है। ये पद्य में है।
हम सीरियल से बता रहे हैं। ये सीरियल में नहीं हैं,
ये आप जो बोल रहे हैं।
४९३. जिज्ञासु:- सीरियल ये है,
पृथ्वी, जल,
अग्नि, वायु,
आकाश।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं। ऊपर से लेंगे। हम लोगों
के पढ़ने की गति—पाँच, चार,
तीन, दो, एक नहीं
है। एक दो तीन चार पाँच है। तो एक दो तीन चार पाँच पढ़ने का मतलब आकाश,
वायु, अग्नि,
जल, थल यह एक दो तीन चार पाँच है। और जब थल,
जल, अग्नि,
वायु, आकाश कहेंगे तो ये पाँच चार तीन
दो एक हो जाएगा। तो हम जो बोल रहे हैं – आकाश,
वायु, अग्नि,
जल, थल यह एक दो तीन चार पाँच वाली गिनती है।
४९५. जिज्ञासु:- फिर भी ये है कि परमात्मा है,
परमात्मा से अहंकार है, अहंकार
से पञ्च तत्त्व हैं, पञ्चतत्त्व से आकाश है,
आकाश से वायु है, वायु से अग्नि है,
अग्नि से जल है, जल से पृथ्वी। पञ्चतत्त्व से
संसार।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- एक बात पहले हम लोग तय करें
कि आप हमसे कुछ जानने आए हैं या कुछ बताने ?
ताकि आप जब बताने आए होंगे तो मैं कुछ पूछुंगा। खिचड़ी मत पकाइये। कुछ बताने को कहे
तो मैं कुछ प्रश्न करूँ आप उत्तर दीजिये या नहीं कुछ जानने आए हैं तो आप प्रश्न
कीजिये मैं उत्तर दूँ। खिचड़ी मत पकाइये। कुछ हमारा लेकर के आप बोलने लगिए। कुछ
अपना बोलिए ऐसा मत कीजिये। आप जानकार हो तो दो चार बातें पूछूँ आप बता दीजिये और
नाजानकार हैं तो मैं बताऊँ सुनिए समझिए-जानिए। आप दोनों मत बनिये।
४९६. जिज्ञासु:- हम अपना मन्तव्य बता सकते हैं,
प्रश्न का जवाब भले ही न दें। लेकिन मन्तव्य बता सकते हैं।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- आप एक बनिये। आप या तो जानकार
बनिये मैं पूछूँ बता दीजिये और नहीं तो नाजानकार होइए,
पूछिये मैं बताऊँ। दोनों मत बनिये। हम जानते हैं कि आप नाजानकार हैं।
४९७. जिज्ञासु:- हम जानकार नहीं,
लेकिन जो कुछ मिला है उसे।
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- अरे भाइया ! आप जानकार हो तो
मैं दो चार बातें पूछूँ। हमारा सुन नहीं रहे हैं। बोलिए तो थोड़ा सुनिए भी। हमारा
कहना है कि पहले हम लोग तय कर लें.......
मीराबाई जैसे भक्त की जरूरत है। एक मिनट और थोड़ा
सुन लें। प्रह्लाद जैसे समर्पित-शरणागत भक्त शायद वो चाहा होता तो भगवान आ भी गए
होते। लेकिन एक बार उन्होने यह नहीं चाहे कि भगवान आप यह कर दीजिये। भगवान आप वह
कर दीजिये। मीरा चाही होती तो भगवान को प्रकट करा सकती थी। लेकिन एक बार नहीं चाही
कि भगवान मेरे को जहर मिल रहा है मैं क्या करूँ,
भगवान अमृत बना दो भगवान एक बार नहीं कही। भगवान बिन माँगे मोती मिलें और माँगे
मिले न भीख भगवान का दरबार वह दरबार होता है। माँगने वाले को भीख भी भगवान नहीं
देता और पात्र होता है तो वह अपने रत्न-जवाहरात जैसे तत्त्वज्ञान भी दे देता है।
भइया हम आपके अनुसार चलने नहीं आए हैं। हम भगवान का ज्ञान देने आए हैं,
उनका दर्शन कराने आए हैं । कोई चमत्कार दिखाऊँगा मेरे किसी पामप्लेट,
बुकलेट किताब में नहीं होगा।
४९८. जिज्ञासु:- नहीं महाराज जी ! हमारे कहने का मतलब यह
भी था, जैसा कि आपने कहा कि अर्जुन की
जिज्ञासा बढ़ी। भगवान श्रीकृष्ण जी ने विराट रूप दिखाया। उनकी जिज्ञासा को दूर करने
के लिए........
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं,
नहीं, अर्जुन के कहने पर थोड़े विराट
रूप दिखाये थे। वो तो अपने आप दिखाये थे। वो तो दिखाऊँगा अपने आप दिखाऊँगा। कोई
कहेगा थोड़े दिखाऊँगा। जो जिज्ञासु पात्र होंगे उनको तो दिखाये बे करूँगा,
विराट दिखाकर ही जाऊँगा। यहाँ से बिना विराट दिखाये नहीं जाऊँगा लेकिन जो पात्र
होंगे उनको। काहे न और लोग देख लिए क्या ?
अर्जुन ही क्यों देखे?
४९९. जिज्ञासु:- हम आपकी बात से सहमत हैं प्रभु।
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- प्रभु तो पहले आप कहिए मत।
प्रभु कोई शरीर मात्र नहीं होता है। प्रभु तो परम सत्ता-शक्ति है,
परमतत्त्वम् है। ये शरीर मात्र नहीं होता है। जो परमप्रभु परमेश्वर को प्राप्त कर
लेता है केवल वही हकदार है मिलाने वाले शरीर को प्रभु कहने का। जो तत्त्वज्ञान
ग्राहिता नहीं, प्राप्त नहीं किया है वो शरीर को
प्रभु नहीं कह सकता। यदि कहेगा तो उसका कोई जवाब नहीं दे पाएगा पूछेगा तो और वह
ज्ञानी यदि कहेगा तो किसी भी प्रश्नकर्ता को भरपूर समाधान दे देगा। इसलिए आप मुझे
प्रभु कह रहे हैं। मैं मुँह नहीं फुला रहा हूँ मैं प्रभु हो गया। मेरे यहाँ शरीर
प्रभु होती ही नहीं है। मेरे यहाँ तो परम सत्ता-शक्ति परमतत्त्वम् प्रभु होता है,
भगवत्तत्त्वम् प्रभु है और मैं प्रभु होता तो आपके कहने पर कोई चमत्कार दिखा देता।
ये शरीर जो देख रहे हैं ये प्रभु है ही नहीं। चमत्कार दिखावे कहाँ से?
५००. जिज्ञासु:- जो साक्षात्कार की बात आती है,
दर्शन की बात आती है। अभी अपने कहा था लक्ष्मण जी के दर्शन मिलन तो ठीक हैं माना
कि धर्म मे आध्यात्मिक शक्ति में विश्वास है। उस अलौकिक शक्ति के प्रति विश्वास है
जो अदृश्यमान है। आप किसी अदृश्यमान शक्ति को........
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं पाने वालों के लिए
अदृश्यमान है ज्ञानीजन के लिए परमात्मा अदृश्य नहीं होता है।
५०१. जिज्ञासु:- उसके लिए हम जैसे अज्ञानियों को क्या
करना चाहिए भगवान ?
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- बस श्रद्धा भाव सहित,
श्रद्धा भाव सहित किसी तत्त्व........ देखिए इस पर हम क्यों बोलें?
कहेंगे कि अपनी तरफ से कुछ नया घुसेड़ दिया। भगवान कृष्ण से कहवा दे रहा हूँ। बोलिए
–
तद्विद्धि प्राणिपातेन परिप्रश्नेन् सेवया।
पहले किसी तत्त्वदर्शी सत्पुरुष को खोजिये।
भालिभांति दंडवत प्रणाम करते हुये उसका सेवा कीजिये। जब प्रसन्न हो तो निष्कपटता
पूर्वक प्रश्नों के द्वारा उस ज्ञान को जानिए। यह मेरा अर्थ नहीं है। यह गीता
प्रेस की गीता का है। मेरी चौपाई नहीं है,
भगवान कृष्ण की है। ये श्लोक भगवान कृष्ण का है। अर्थ गीता प्रेस के भाष्यकारों का
है। न ये मेरा श्लोक है, न ये
मेरा भाष्य है, टीका है ?
अच्छा ! जब आप ऐसा करेंगे किसी तत्त्वदर्शी सत्पुरुष को खोजेंगे,
भालिभांति दंडवत प्रणाम करते हुये उनकी सेवा में लगेंगे,
निष्कपटतापूर्वक प्रश्नोत्तर करेंगे तब........ उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं
ज्ञानिनस्तत्त्वडार्शी तब वह तत्त्वदर्शी सत्पुरुष जो है उस ज्ञान का उपदेश करेगा।
किस ज्ञान का? ये वर्णन जो है ३५,
३६, ३७, ३८,
३९ तक है आज शाम को बताऊँगा। तो इसलिये यही करेंगे और वही मिल जायेगा।
५०२. जिज्ञासु:- प्रभु जब आप सामने हैं।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- पहली पंक्ति आप करेंगे और
दूसरी पंक्ति हमसे ले लेंगे।
५०३. जिज्ञासु:- बड़ी श्रद्धा और आस्था के साथ
हम आपके समक्ष आये ही हैं। ये सोचके ही आये हैं कि प्रभु।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- ये अच्छी बात हुई। लक्ष्मण,
लक्ष्मण एक शेषनाग का अवतार, रामजी
का बचपन से ही अनुगामी, जब होश
आया बालकपन से उसी समय से अनुगामी, राम
वाले हविश पिण्ड से पैदाइशी राम वाले हविष पिण्ड से ही पैदाइशी और बचपन से ही राम
का अनुगामी। उस लक्ष्मण ने दशरथ जैसे पिता का त्याग किया। सुमित्रा जैसे माता का
त्याग किया, उर्मिला जैसे पतिव्रता जैसे नारी
का त्याग किया। अवध का राज-भोग त्यागा। राम जी के पीछे चल दिये सेवा में। उसका
वनवास नहीं था, लक्ष्मण का वनवास नहीं था,
वनवास तो राम का था, लेकिन वह सब त्याग करते हुये चल
दिया। एक राजकुमार राजमहल का जब खड़ाऊँ रामजी का भरतजी लेकर चले आये तो उसने अपनी
खड़ाऊँ भी छोड़ दी पहनना और नंगे पाँव झाड़-झंखार,
नदी-नाला पर करते हुये अयोध्या से लंका पहुँचा। अयोध्या से रामेश्वरम् पहुँचा।
उसके त्याग को देखिये उस लक्ष्मण को राम राम का आदेश काटने का एक कलंक भी मिला,
जिससे सीता जी का हरण हुआ। उस लक्ष्मण को शक्ति-बाण की पीड़ा भी झेलनी पड़ी मरणासन्न
पीड़ा। उस लक्ष्मण को अहिरावण के यहाँ बलि का बकरा जैसे बनना पड़ा,
वो तो रक्षा एक दो तीन पर हुआ। ऐसा लक्ष्मण,
ऐसा समर्पित ऐसा कष्ट सहने वाला ऐसा समर्पित-शरणागत लक्ष्मण जब रामचन्द्रजी लंका
विजय प्राप्त करके वापस आ रहे हैं,
राज्याभिषेक हो रहा है,
राज्याभिषेक के बाद एक दिन अपने आम के बगीचे में बड़े प्रसन्न मुद्रा में बैठे थे।
बड़े प्रसन्न मुद्रा में बैठे थे। रामचन्द्रजी अपने आम के बगीचे में बैठे थे बड़े
प्रसन्न मुद्रा में। जब लक्ष्मण ने देखा कि प्रभु इस समय प्रसन्न मुद्रा में बैठे
हैं तब साहस हुआ। हाथ जोड़कर कह रहे हैं लक्ष्मण। हे ज्ञान मूर्ति ! हे रमापति !
मैं उस ज्ञान का अभिलाषी हूँ। मुझे वह ज्ञान मिलता जिससे जीव भाव सागर से पार हो
जाता है। मैं अज्ञान अंधकार में भटक रहा हूँ। प्रभु मुझे वह ज्ञान मिलता कि मैं इस
भावसागर से पार हो जाता। लक्ष्मण राम से प्रार्थना किए। आप अध्यात्म रामायण में
उत्तरकाण्ड देख लीजिये। श्रीरामगीता बुकलेट है गीताप्रेस से ले लीजिये। यह वही
प्रकरण है। राम ने जो लक्ष्मण को उपदेश दिया है वो श्री रामगीता है और रामजी ने जो
हनुमान को तत्त्वज्ञान दिया है, वो
श्रीरामह्रदय है। पतली-पतली बुकलेट मिल जाएगी गीता प्रेस से।
बोलिये परमप्रभु परमेश्वर
की जय ! तो वह लक्ष्मण जो रामजी के लिये इतना त्याग किआ, जो राम के लिए इतना सहन
किया, जो
राम का पूर्णतया अनुगामी सेवक रहा। यानी तेरह वर्ष तक नींद, नारी, परिहरही सोया नहीं, कुछ खाया नहीं, नारी रहते एक बार चिंतन
नहीं किया। यह सेवा का ढंग था। जब राम जी शयन में होते थे, तो जानते हुये भी कि राम
जी का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। लेकिन धनुष तानकर के हमेशा ड्यूटी पर बने रहते थे।
एक मिनट भी जिसने सोया नहीं, ऐसा त्यागी लक्ष्मण जब ज्ञान माँग रहा है रामजी से।
रामजी कह रहे हैं कि लक्ष्मण पहले संपूर्ण कर्मों को शास्त्रविहित जो कर्म हैं, शास्त्रसम्मत जो कर्म
हैं पहले उन सभी कर्मों को तुम त्याग दो। सभी कर्मों को त्याग दो और तत्त्वदर्शी
सत्पुरुष खोज। उस सद्गुरु के शरण में जाकर पहले समर्पण-शरणागत कर। जब तू शरणागत हो
जायेगा तब वह तेरे को उस ज्ञान का उपदेश करेगा। क्या लक्ष्मण जी समर्पित-शरणागत
नहीं थे। सेवा में नहीं थे। आप समर्पित-शरणागत हो गए कि मैं उस ज्ञान का जिक्र मैं
कर दूँ। आपके अनुसार मैं चमत्कार दिखाने लगूँ? पहले आप अपने को सोचिए
तो आप हैं कौन कि मैं आपके अनुसार चलूँ?
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