३२०. जिज्ञासु:- आपके द्वारा पता चला कि कोई भी
सन्त-महात्मा ईश्वर के पास पहुँचा नहीं सकता। इनके माध्यम से मैं यह जानना चाहता
हूँ कि ‘गुरु बिन भव निधि तरे ना कोई’
जो शंकर जी के समान होने पर भी या बिना गुरु के ईश्वर प्राप्ति नहीं हो सकती है और
गुरु के नहीं रहने पर ईश्वर प्राप्ति का क्या साधन हो सकता है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- किसने कहा कि बिना गुरु के
ईश्वर प्राप्ति हो जायेगा लेकिन गुरु चाहिए,
गोरू नहीं। गुरु वही जो ज्ञान देने वाला हो। ज्ञान वही जिसमें साक्षात् भगवान् मिल
रहा हो। गुरु मांगेंगे की अपने भक्षण के तरह व्यवस्था दो। गुरु माने यह नहीं है कि
जनता का धन-धर्म दोनों का शोषण करने के लिए मुखौटा लगाये हो। कालनेमी भी तो गुरु
ही था, कपटी मुनि भी तो गुरु ही था राजा
प्रतापभानु जैसे महाराजा का। गुरु के लिए कहा गया है जिसके ज्ञान में साक्षात्
भगवान् मिले वास्तव में वही सच्चा गुरु सद्गुरु है।
३२१. जिज्ञासु:- मेरा अभिप्राय यह है कि बिना गुरु भी
ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बिना गुरु ज्ञान ही नहीं
मिलेगा। ज्ञान नहीं मिलेगा तो उसे ईश्वर कहाँ से मिलेगी लेकिन गुरु वह जो ज्ञान
दें। ज्ञान में साक्षात् भगवान् मिले। भगवान् वह जिसमें साक्षात् विराट को मिले।
३२२. जिज्ञासु:- बिना गुरु के ईश्वर प्राप्ति संभव नहीं
है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- ना।
३२३. जिज्ञासु:- ईश्वर प्राप्ति ध्यान योग से क्रिया-योग
से अध्यात्म-योग से भी है या नहीं?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- ध्यान योग से,
क्रिया-योग वह सत्यम वाला यह तो घोर धूर्तबाज है,
यह तो छलिया है और लोगों को ठगने के लिये तो धंधा करता है। इसके पास ध्यान ज्ञान
कहाँ से है। क्रिया-योग से जीव ही नहीं मिलेगा,
ईश्वर कहाँ से मिलेगा। यह सत्यम् का क्रिया-योग से जीव नहीं मिलेगा। सत्यम् से
पूछो ना जीव जानता है। ईश्वर-परमेश्वर का बात क्या करेगा। जीव नहीं जानता है जीव।
मैं यही हूँ उससे पुछ लीजिये जाकर के जो चाहे पूछ लें। वह जीव ही नहीं जानता
क्रिया-योग क्या करेगा। वह तो छलिया की एक बुद्धि विद्या दे दिया है। समाज ठगने का
लूटने का एक बुद्धि विद्या है वह क्या जपता है। जीव-ईश्वर-परमेश्वर क्या होता है
उसको क्या पता कि ईश्वर-परमेश्वर क्या होता है।
३२४. जिज्ञासु:- ईश्वर प्राप्ति गुरु के माध्यम से होता
है?
संत ज्ञानेश्वर जी:- गुरु है ही नहीं,
गुरु से तो ईश्वर मिलेगा ही मिलेगा। लेकिन सही गुरु है ही नहीं,
गोरू वर्ग का है सब।
३२५. जिज्ञासु:- गुरु का पहचान,
सच्चा गुरु का पहचान क्या हो सकता है?
संत ज्ञानेश्वर जी:- गुरु की पहचान ज्ञान। ज्ञान की
पहचान, मिले साक्षात् भगवान्। भगवान् की
पहचान, साक्षात् विराट मिले। ब्रह्माण्ड
उसी से पैदा होता हुआ दिखाई दे ब्रह्माण्ड उसी से संचालन हुआ,
दिखाई दे और ब्रह्माण्ड उसी में लय-विलय होता हुआ दिखाई दे। यह तीन जिसके द्वारा
जिसको दिखाई दे। यह तीन जिसको जिसे दिखाई दे। वह भगवान्,
वह भगवान् जिसमें साक्षात् देखने को मिले,
वह है ज्ञान। वैसा ज्ञान जिस गुरु से मिले वह है गुरु। यह सब है गोरू वाला।
३२६. जिज्ञासु:- गुरु और सद्गुरु में क्या अन्तर हो सकता
है?
संत ज्ञानेश्वर जी:- वही पहले गुरु कहा जाता था। जब
ठग, बटमार नहीं थे। आज जब ठग,
बटमार गुरु बनने लगे भगवान् अपना नाम सबका उपदेश देने वाला सद्गुरु कर दिया।
३२७. जिज्ञासु:- गुरु का ऐसा लक्षण नहीं है जो इस मानव
समाज द्वारा परख की जा सके?
संत ज्ञानेश्वर जी:- नहीं,
गुरु की परख जब भी होती है, ज्ञान
से होती है। बगैर ज्ञान का गुरु का परख कोई नहीं कर सकता है।
३२८. जिज्ञासु:- मनुष्य कितना ही समझदार होकर के गुरु की
खोज नहीं कर सकता है?
संत ज्ञानेश्वर जी:- खोज कर सकता है,
पहचान नहीं कर सकता है बगैर ज्ञान के।
३२९. जिज्ञासु:- तो ज्ञान ये मनुष्य को कहाँ से मिल सकता
है?
संत ज्ञानेश्वर जी:- ज्ञान तो भाई गुरु से मिलेगा।
३३०. जिज्ञासु:- गुरुओं को खोज हम कर नहीं सकते हैं?
संत ज्ञानेश्वर जी:- आप अपने ईमान,
संयम लाइये जैसे आप ईमान, संयम के
साथ सच्चाई की खोज करेंगे। प्रकृति की जिम्मेदारी हो जायेगी आपको गुरु मिलाने की,
जब प्रकृति की जिम्मेदारी हो जायेगी, तो
प्रकृति आपको सद्गुरु के पास पहुंचायेगी।
३३१. जिज्ञासु:- मैं प्रकृति के सहारे बैठा रहूँ और वह
प्रकृति.............
संत ज्ञानेश्वर जी:- मैंने बैठने को नहीं कहा ईमान,
सच्चाई अपनाकर के खोजने को कहा।
३३२. जिज्ञासु:- मैं ईमान,
सच्चाई से रहूँ, प्रकृति ऊपर भरोसा रखूँ तो मुझे
सद्गुरु के शरण में पहुँचा देगी।
संत ज्ञानेश्वर जी:- हाँ,
प्रकृति ऊपर भरोसा रखना होगा। ईमान-सच्चाई पर चलते हुये प्रकृति पर विश्वास-भरोसा
तो रखना होगा। क्योंकि सारा संचालन प्रकृति के माध्यम से तो परमेश्वर कर रहा है।
प्रकृति तो सब कर-करा रही है परमेश्वर के अध्यक्षता के मालिकान है। सब कुछ मनमोहन
सिंह कर-करा रहे हैं कलाम साहेब का तो मालिकान है। वह कोई जिम्मेदारी नहीं है कभी
कोई किसी गड़बड़ी के देश में, सारे
जिम्मेदारी मनमोहन सिंह की है। इसी तरह से भगवान् सीधे किसी भी काम के जिम्मेदार
नहीं है, सारे जिम्मेदारी तो मूल प्रकृति
की है, महामाया की है। भैया प्रकृति पर
तो भरोसा करके आगे बढ़ना होगा।
३३३. जिज्ञासु:- बिना प्रकृति के भरोसे ऐसे कुछ नहीं हो
सकता है?
संत ज्ञानेश्वर जी:- बिना प्रकृति के परमेश्वर कहाँ
कोई पहचान नहीं सकता। प्रकृति आपको परमेश्वर वाले गुरु को मिलायेगी गुरु जो है
ज्ञान देगा। परमेश्वर ही गुरु का रोल करेगा तो ज्ञान मिलेगा। परमेश्वर के सिवाय
परमेश्वर को कोई जानता ही नहीं। वह ज्ञान देगा कैसे?
परमेश्वर के सिवाय परमेश्वर का ज्ञान किसी को पता ही नहीं।
३३४. जिज्ञासु:- ध्रुव को तो 5 वर्ष के अवस्था में
प्रकृति के ऊपर भरोसा हो गया, 5 वर्ष
के अवस्था में ध्रुव के पास कैसा ज्ञान था?
संत ज्ञानेश्वर जी:- भगवान् के यहाँ अर्श-वर्ष नहीं
होता है, भगवान् के यहाँ शरणागत भक्ति
होती है। ध्रुव की भक्ति समर्पित शरणागत की थी। वर्ष भगवान् के यहाँ-कहाँ होता है।
भगवान् के यहाँ तो बच्चा, वृद्ध
दोनों एक समान है, भगवान् के यहाँ मूर्ख और विद्वान
दोनों एक समान है। भगवान् के यहाँ बच्चा-वृद्ध कहाँ होता है। भगवान् के यहाँ मूर्ख
और विद्वान कहाँ होता है? भगवान्
के यहाँ तो दोनों समान है।
३३५. जिज्ञासु:- जो कुछ है मनुष्य का सारा कुछ प्रकृति
ही है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- भौतिक स्तर पर प्रकृति है।
अंततः तो सब कुछ भगवान् है।
३३६. जिज्ञासु:- आध्यात्मिक स्तर पर क्या हो सकता है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- आध्यात्मिक स्तर पर आत्मा,ईश्वर
है। तत्त्वज्ञान के स्तर पर परमात्मा-परमेश्वर है।
३३७. जिज्ञासु:- क्या हमें कुरान और शास्त्रों और
ग्रन्थों से ज्ञान अर्जन हो सकता है या नहीं?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- कुछ तो भाई इतिहास,
भूगोल की किताब पढ़ेंगे, उपन्यास
पढ़ेंगे उससे भी कुछ होगा। ज्ञान नहीं आयेगा। वेदान्त,
पुराण, आज्ञा,
वेद शास्त्र, पुराण सबका स्पेशलिस्ट (Specialist)
हो जाइये, परमार्थ न कीजिये और परमतत्त्वम्
को जब तक नहीं जानियेगा तो विध्यंग कार्य कैसे अत् सर्वकार भास्यीत। उस विध्यंग का
सारा ग्रंथ कारक का पढ़ना कौआ के तरह से काँव-काँव करना है। भगवान विष्णु कह रहे हैं हम नहीं, हम नहीं कह रहे हैं तो जितने विद्वान हैं कौवा की तरह से काँव-काँव करने वाले तो हैं उनको क्या पता
शास्त्र क्या होता है। यह मुरारी बापू रामायण का व्याख्याकार बनता है वह क्या जाने
रामचरित मानस क्या होता है। उसको राम के विषय में क्या पता है?
मानस मार्कण्डेय मानस सर्वज्ञं मानस उपनिषद ठगने-ठागने का धन्धा है। यह क्या जाने
राम के विषय में, कृष्ण के विषय में,
विष्णु के विषय में जब तक श्रोता, वक्ता
ज्ञाननिधि तब कथा राम के गूढ़। श्रोता जब तक ज्ञान का खजाना नहीं होगा,
वक्ता तब तक राम की गूढ़ कथा किसी के पकड़ में नहीं आयेगी। समझ में ही नहीं आयेगी।
जब वक्ता ज्ञान की निधि खजाना होता है और वक्ता ज्ञानी हो तब विष्णु,
राम, कृष्ण की कथा पकड़ में आयेगी अन्यथा न जानने
को मिलेगा, न पकड़ में आयेगा। बोलिये
परमप्रभु परमेश्वर की जय।
३३८. जिज्ञासु:- चन्दन और कंठी की कुछ जानकारी चाहिए।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की
जय। चन्दन जो है एक प्रतीक रूप है शान्ति का। कंठी धारण करने का मतलब हुआ आदमी जो
है जैसे जनेऊ का था, उपनयन संस्कार जिसका हो जाता था।
जिसकी तीसरी दृष्टि खुल जाती थी अर्थात् ब्रह्मचारी,
ब्रह्मचर्य से युक्त हो जाता था, ब्रहमय
आचरण-व्यवहार से युक्त हो जाता था उसको जो है जनेऊ धारण करना पड़ता था। ताकि देखकर
के लोग जान जायें। जनेऊ यानी जनाने वाला, जिसको
देखने मात्र से लोग जान जायें कि ये ब्रह्मचारी है अर्थात् इसका आचरण-व्यवहार
ब्रहमय है। ये ब्रह्म तेज से युक्त है, इसका
तीसरा नेत्र खुल चुका है उपनयन संस्कार इसका हो चुका है तो इसका प्रतीक जैसे जनेऊ
था कि इससे टकराना नहीं है, इनको
साथ रख सकते हैं। इनकी अनुकूलता करके इनका आशीर्वाद लेना है ताकि अपने आपको सहायता
मिले जीवन की तृप्ति में। वैसे ही ये चन्दन का अर्थ,
कंठी का अर्थ ये भी प्रतीक था। यह जो है एक प्रतीक था ठहरने का। हमको अपने जीव को, हम कुण्डलिनी जागरण का क्लास लेते, उसमें डिटेल्स में आता कि जीव जो
मूलाधार में रहता है, इसको वहाँ से उठाकर के,
ब्रह्मलोक में लाकर के वहाँ टिकाना था ईश्वर के साथ। जीव को ब्रह्मलोक में
पहुँचाकर के ईश्वर के साथ टिकाना था, ठहराना
था। योग जो है जो ध्यान-साधना से युक्त थे अध्यात्म से युक्त थे वो अपने को यानी
ठहराने का संकेत लोगों से देने लगे टीका करने लगे,
चन्दन का टीका यानी शान्ति का प्रतीक। चन्दन है शान्ति का प्रतीक जो चिदानन्द है,
शान्ति शरीर स्तर पर तो होती ही नहीं, जीव
स्तर पर भी शान्ति नहीं होती है। जैसे बताये कि संसार स्तर पर दु:ख,
शरीर स्तर पर सुख, जीव स्तर पर आनन्द और
आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म स्तर पर जो है चिदानन्द यानी शान्ति और आनन्द दोनों संयुक्त
रूप में होता है चिदानन्द और परमात्मा परमेश्वर परमब्रह्म स्तर पर होता है
सच्चिदानन्द यानी सत्य शान्ति और आनन्द। सत्य जो चेतन से और आनन्द से युक्त हो। तो
ये शान्ति और आनन्द शान्ति का स्थान ही आत्मा से सम्बंधित है। आत्मा से नीचे,
ईश्वर से नीचे शान्ति होती ही नहीं। तो इसलिये चन्दन का प्रतीक टीका जब करने लगे
तो टीका करें तो शान्ति का जो प्रतीक चन्दन था,
इसका हम टीका करना शुरू कर दिये। यानी केवल टीका ही नहीं सुगन्ध भी उसमें था।
दैवीय व्यवस्था में सूक्ष्म तन्मात्रायें होती है। देवता क्या है सूक्ष्म आकृति से
युक्त है। वो सूक्ष्म तन्मात्रा ही आहार में लेते हैं। थल तत्त्व का सूक्ष्म तन्मात्रा, गन्ध है। इसीलिए फूल पत्ता धूप, अगरबत्ती चढ़ाया जाता है। वो जो सूक्ष्म तन्मात्रा, सुगन्ध सूक्ष्म तन्मात्रा जो होता है ग्रहण कर लेंगे। तो चन्दन में सुगन्ध
भी है। चन्दन में शान्ति भी और सुगन्ध भी दोनों देवता के लिए ग्रहणीय है। एक देवता
का प्रतीकात्मक रूप है तो दूसरा देवता का ग्रहण रूप है। जहाँ रहेंगे वहाँ प्रतीक
और शान्ति दोनों रहेगा। चन्दन दोनों से युक्त था इसलिये चन्दन का प्रयोग होना शुरू
हो गया। टीका तो क्या टिकाना था, जीव को
टिकाना था। अब जीव को टिकाने के बजाय हम ऊपर से टीका करने लगे। चन्दन के अब जो है
चन्दन को करना था टीका और नकल करके कोई धनुष बनाने लगा तो कोई त्रिशूल बनाने लगा
तो कोई शंकर जी का कोई कुछ बनाने लगा। ये सब तो अब कहें कि लगेगा कि कंठी-माला का
निन्दा कर रहे हैं। और सच्चाई ये है कि दिखावाटी पोशाक मात्र है। जैसे नाटक में
वेष पहन करके अपने ड्रामा खेला जाता है। वैसे भगवत् मार्ग के ड्रामा का ये पोशाक
मात्र है। इसके सिवाय कुछ नहीं। अब इसको दो तरह का है--------कपिल मुनि जब माता
देवहुति को उपदेश देने लगे तो कहे थे कि जो कोई अंशावतारी थे,
आत्मा स्तर के थे, ईश्वर स्तर के थे और आत्मा वाले
आत्मा ईश्वर को ही परमेश्वर घोषित कर देते हैं,
परमात्मा-परमेश्वर तो उनको पता होता नहीं है। उन्होने कहा कि जो आत्मा को नहीं स्वीकार
करता है केवल मूर्ति की पुजा करता है मंदिर में जाकर के,
उसका पुजा किस प्रकार का है कि राख में किया हुआ हवन-सामग्री। यानी हवन उसका यज्ञ
तो होगी नहीं, वो हवन-सामग्री भी व्यर्थ
जायेगी। तब प्रश्न आया कि इसको छोड़ दिया जाय। मूर्ति पुजा छोड़ दिया जाय तो ये भी
कहा गया कि नहीं छोड़ना नहीं। तो जब राख़ में ही हवन है तो क्यों नहीं छोड़ दिया जाय।
तो करना है। इसलिये करना है कि जब राख में हम हवन करते रहेंगे तो कोई जानकार आयेगा
जो हवन करने का जानकार होगा, आहुति
करने का जानकार होगा वो बतायेगा कि नहीं, नहीं,
राख में नहीं ये आग में करो। जब हम करेंगे ही नहीं राख में भी तो हमको बताने वाला
हमको क्या समझकर के बतायेगे? जैसे
लड़के को पढ़ा रहे हैं घर में आप कोई काम में गये। लड़के को कहते हैं कि तेज करके पढ़ो,
तेज़ करके पढ़ो वो पढ़ना शुरू क्या दो एकम् दो,
दो दुने चार, दो तीया छ:,
दो चौके नौ, दौ पंचे ११ तो अरे,
अरे दो चौके ९ नहीं होता है, ९ नहीं
आठ होता है, आठ। दो पंचे ११ नहीं १०। आप गुरु
रहेंगे तो फट से पकड़ लेंगे और बता देंगे उसको। उसी तरह से यह करना ताकि सही जानकार
रहेगा तो आपको सही करा लेगा। तो हम लोग जो हैं बाहरी पोशाक मात्र ही जो है हालांकि
इसका नाजायज लाभ धर्म के अंदर प्रवेश करने का एक प्रारम्भिक रूप है। हालांकि लाभ
भी है और विकृति का रूप भी है। दो तरह से सन्यास लिया जाता है। एक तो हम
अन्तःकरण को हम शुद्ध और पवित्र बनाते हैं। विषयों की और इन्द्रियों को रोकते हैं।
तो हम प्रयास करते हैं कि हमारा जैसा भीतर है वैसा बाहर वाला हम वैसा रखेंगे।
दूसरा होता है कि हम बाहर से वह रूप अपनावें ताकि हम भीतर को नियंत्रित कर सकें।
जिससे हम साधन और पोशाक पहन लिये। कंठी और महात्मा का चोला पहन लिये। तो हम भट्ठी
में जायेंगे तो शराबी भी होगा तो हमको धक्का देकर निकाल देगा कि हट साधू भट्ठी में
आ गया। हमको जब हम गलत कार्य करने जायेंगे तो हमको डांट करके हट तू साधू है कैसे
गलत जगह आ गया? अपने को नियंत्रित रखने का एक
साधन मात्र पोशाक हो गया। अब वो भी कोई रोकने वाला नहीं है। साधू बाबा होंगे तो
उनको भट्ठी में नहीं जाना पड़ेगा। अब चाहे कोई भट्ठी में जावे तो भी कोई रोकने वाला
नहीं रहेगा कि एक पग दे देते हैं, एक पग
आप भी ले लीजिये।
एक जमाना था,
कुछ दिन पहले अभी ये साधुता के रूप में यदि आप कोई गलत काम करना चाहें तो वहाँ का
आदमी करने नहीं देता था, रोक
देता था। अब तो चोर-बंदोर,
डाकू-लुटेरा सब इसी में सब घुसने लगे और घुस-घुस करके ये हर समय थे जब इनकी
बहुसंख्या हो गई तब जितने आलसी, जितने
श्रमचोर हैं सब इसी पोशाक में घुस गए। जितने आलसी और चोर जो हैं,
श्रमचोर जो हैं सब इसी पोशाक में घुस गए कि मेहनत न करना पड़े राम-राम कहकर के आहार
मिलता जाय। मर्यादा भी मिलेगा साधू बाबा प्रणाम-प्रणाम और बच्चा खुश रहो,
खुश रहो चिरंजीवी भव: चिरंजीवी भव:। अब अर्थ मालूम है कि नहीं, चिरंजीवी भवः का अर्थ क्या होता है और खूब आशीर्वाद दे रहे हैं और खूब
प्रणाम करवा रहे हैं। ये भी समझ नहीं आ रहा है इसका दुष्परिणाम हमको झेलना
पड़ेगा। ये जो हम कर रहे हैं परमेश्वर के यहाँ इसका सजा बन रहा है। परमेश्वर का दो
दूत और यमदूत भी आपके साथ जुड़ा हुआ है। आप कुछ सोचेंगे नहीं कि आपका वहाँ रिपोर्ट
हो जाएगा। वहाँ सुपर कंप्यूटर से भी आगे, सुप्रीम
कंप्यूटर रखा हुआ है। परमेश्वर के यहाँ सुप्रीम कंप्यूटर है। आप यहाँ चिंतन किये
नहीं बुराई का तब तक फिगर वहाँ बन जाएगा? फोटो
लगा हुआ वायरलेस रूप में। तो इस तरह से जो है आप कोई बुराई-विकृति करके बच नहीं
सकते हैं। आप अपने को महसूस कर रहे हैं कि हम कोठी में अकेले हैं। लेकिन आप अकेले
हैं नहीं, दो दूत तो आपके साथ सदा ही है,
जुड़ा है। एक काम करता है रिपोर्ट देने का,
रिपोर्टिंग का काम करता है और दूसरा वहाँ सप्लाई का काम करता है। कुल बातें छोड़े
विषय पर आवें।
तो प्रारम्भ में अपने को नियंत्रित करने का पोशाक
था, कंठी,
टीका, पोशाक। तो ये हम पहनेंगे करेंगे
तो हम समाज में विकृतियों से हम अपने को नियंत्रित पायेंगे। बुद्धि हमको थोड़ा सा
पैर फिसला भी तो अगल-बगल के लोग हमको संभाल लेंगे। अब ये धंधा बन गया सभी आलसी और
चोरों के लिये। वही बार-बार हम कहे कि मेहनत न करना पड़े,
कुछ कहना न पड़े और इसकी न मानना पड़े। तो इसलिये हम साधु का ये सब पोशाक अपना लिये।
अब तो बड़ी विकृत स्थिति हो गई है। गृहस्थ हैं सब,
बीबी-बच्चा में है सब और पूरा साधु का रूप बना लिये हैं सब। धर्म कि मर्यादा क्यों
खतम होती चली गई? गृहस्थों के दिल-दिमाग में से
क्यों इसका भाव ही खतम हो गया, उतर गया?
ये परिवार में रह रहा है,
बीबी-बच्चा में रह रहा है, झूठ-फरेब
में रह रहा है और पोशाक बना रहा है साधु का,
महात्मा का। इसी में लोग घुस गए, ९०
परसेंट, ९५ परसेंट साधु के भेष में
गृहस्थ हैं। वो पोशाक बना लिया है समाज में मर्यादा पाने के लिये इसका नाजायज लाभ
लेने के लिये, कचहरी में,
कोर्ट में, थाना-पुलिस में उसका लाभ लेने के
लिये, पोशाक भी दो-दो गो रखे हैं सब।
घर के लिये, गाँव के लिये कुछ अलग और गाँव से
बाहर जाने के लिये अलग साधु-महात्मा वाला। इस तरह से इस समय पोशाक पर हम निर्णय
नहीं दे सकते क्योंकि पोशाक से कोई हमें निंदा-घृणा नहीं है। ये एक साधन भी है।
लेकिन वृति का निंदा तो हम, वृति का
घृणा तो हम करेंगे ही। यदि पोशाक धारण करते हैं तो उसकी मर्यादा का पालन कीजिये।
कंठी धारण करते हैं तो उसके नियमों का पालन कीजिये। पोशाक धारण करते हैं,
चन्दन धारण करते हैं तो सात्त्विकता के मर्यादा का पालन कीजिये। उसके नियम-विधान
को धारण कीजिये। नहीं कर पाते हैं तो पोशाक छोड़ दीजिये। तब पोशाक धारण कीजिये जब
इस मर्यादा को अपना लीजिये।
अब आपको जब देख रहे हैं की आप संयम को नहीं अपना
पायेंगे तो पोशाक की मर्यादा मत खतम कीजिये। ये तो हमारी समझ से जो प्रारम्भ में
एक प्रतीक था। आगे चलकर नियंत्रण का साधन था। अब अपने को छिपाने का आड़ है। हमारी
समझ में यही है। प्रारम्भ में एक प्रतीक था। बीच में आकर के अपने नियंत्रण का
माध्यम बन गया और अब जो है अपनी कमियों को छिपाने का आड़ बन गया। किसी का कुछ समझ
आवे। हमारी जानकारी में तो ऐसा ही है।
अभी किसी पुजारी जी के पास जाइये,
मंदिर में कोई पुजारी जी हैं और कहिए कि पुजारी जी आप इतना पुजा-पाठ,
कष्ट सहने में लगे हैं क्या फायदा इस पुजा-पाठ से?
क्या कहीं दर्शन होगा क्या भगवान् जी का? पुजारी
जी बहुत वाक्य बोल जायेंगे। हैं क्यों नहीं होगा?
लगे हैं तो कभी ना कभी हो ही जायेगा?
पुजा-पाठ, भक्ति करेंगे तो काहे नहीं
मिलेगा? कभी न कभी मिल ही सकता है। जरूर
मिलेगा। कुछ ना कुछ वाक्य जरूर बोल जायेंगे। दूसरा कोई उसी पुजारी जे से दो चार
दिन बाद यदि मिलिए। कहिये पुजारी जी आज एक संत महात्मा आये हुये हैं वो भगवान् का
दर्शन करा रहे हैं, वो भगवान् से मिलने की बात कह
रहे हैं। अरे चल-चल ऐसे भगवान् मिलता है। कौन देखा है भगवान् को?
जूठ बोलता है। भगवान् कहीं मिलता है कहीं किसी को,
इतना आसान भगवान् कहीं किसी को मिलता है? भगवान्
मिल जाएगा? वही पुजारी जी यह भी बोलने लग
जायेंगे। जब आप कहिये कि नहीं मिलता है तो कहेंगे कि मिलता है। प्रहलाद पाये थे,
ध्रुव पाये थे, फलां पाये थे। अभी कहिये कि
भगवान् मिल रहा है चलिये न आप पुजा-पाठ कर रहे हैं,
भक्ति-सेवा कर रहे हैं अपना जीवन उद्धार कर लीजिये। अरे भगवान् मिलता है ! अरे
बहुत-बहुत ऋषि-महर्षि लोग आये और कहे कि भगवान् नहीं मिलता है। इनको भगवान् मिल
गया ! ये दोनों उदाहरण रखे हुये हैं। आप हाँ कीजियेगा तो उनके पास नहीं का उदाहरण
रखा हुआ है। आप नहीं कीजियेगा तो उनके पास हाँ का उदाहरण रखा हुआ है। सवाल उठता है
कि उनसे कहा क्या जाय??
३३९. जिज्ञासु:- एक हमारी शंका ये है कि गीता में आया है
कि------
नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥
यह गुण किसका है?
आत्मा का है, परमात्मा का है,
ईश्वर का है कि जीव का है?
संत ज्ञानेश्वर जी:-
बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय। यह तो तीनों पर लागू हो जायेगा। जीव पर भी लागू
हो जायेगा, ईश्वर
पर भी लागू हो जायेगा,
परमेश्वर पर भी लागू हो जायेगा। तीनों पर लागू हो जायेगा। लेकिन जहाँ ये वर्णित है, वहाँ परमेश्वर के लिये
वर्णित है। आत्मा वाले आत्मा समझ लेते हैं। स्वाध्यायी अपने जीव को समझ लेंगे। हम
लोग जो उसको देखते हैं, हम लोग परमात्मा वाले हैं। ऐसे तो जीव और आत्मा भी
हम लोगों के संपर्क में है, जीव और ईश्वर भी है। लेकिन हम जब देखते हैं तो ये
वर्णन जिस परिवेश में, जिस
परिस्थिति में ये वर्णन जो हुआ है वो परिस्थिति बतला रही है वो परमेश्वर के लिये
कहा जा रहा है। हालांकि लागू तीनों पर होगा। जीव के साथ भी वो न कटेगा, न मरेगा, न जलेगा, न वो गीला होगा जो भी
है। आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म और परमात्मा परमेश्वर परमब्रह्म के तो ये सब होना ही नहीं
है। जीव पर भी ये लागू नहीं होगा। ये शरीर मात्र के लिये है। जलना, ये पञ्च भौतिक पदार्थ से
बनी शरीर है। इसके आगे भौतिक क्रियायें हैं, जो वर्णित है। तो ये
पञ्च भौतिक शरीर तक ही सीमित है। इसके आगे इसके कोई पहुँच नहीं है।
३४०. जिज्ञासु:-
सर्व प्रथम आपके श्री चरणों में मेरा दण्डवत् प्रणाम स्वीकार हो। आपके चरणों में
ये निवेदन करना चाहता हूँ कि आपकी एक पत्रिका में एक लाइन लिखी है कि निरंकारी
जितने होते हैं, लक्ष्यहीन होते हैं लिखा है जो
आपने पढ़ा है और वो भी इस परमात्मा-निरंकार परमेश्वर के दर्शन करा देते हैं।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- सरासर झूठ। एकदम धूर्तबाज है
हरदेव। घोर धूर्तबाज। सरासर छलावा।
३४१. जिज्ञासु:- हम भी उन्हीं के चरणों से जुड़े हैं।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- निरंकार का दर्शन किये?
बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय ...! मैं दिखाऊँ-बताऊँ आपको कि आपका निरंकार
आस्तिक के चोले में घोर नास्तिकता है। ऐसा मैं दिखाऊँ तो कैसा रहेगा?
आपको निरंकार (एक हथेली को नीचे और दूसरी हथेली को ऊपर करके,
दोनों हथेलियों के बीच के खाली स्थान को दिखाते हुये) ये आत्मा देख रहे हो न,
इसका कोई आकार है, कोई रूप है,
कोई इसका रूप आकार है? यही निरंकार है। देखो तो ये
सड़ेगा, ये मरेगा,
ये कटेगा, ये जलेगा। अरे ये आत्मा (दोनों
हथेलियों के बीच की दूरी कम करके दिखाते हुये) और ये परमात्मा (दोनों हथेलियों के
बीच की दूरी को बढ़ाकर दिखाते हुये) यही है कि कुछ और है?
पहले हाँ नहीं करके आगे बढ़े। यही है?
३४२. जिज्ञासु:- हाँ यही है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अब देखिये आप लोग ये यही इनका
आत्मा, परमात्मा है। अरे मूढ़ कहीं के !
हरदेव को बोल रहा हूँ आपको नहीं । रे मूढ़ कहीं के ! तुम मतिभ्रष्ट कहीं का तुम
भगवान् की आड़ में शैतान नास्तिक बना रहा है रे ! इसमें क्या दिखाया?
अरे कुछ तो रख तो बीच में । जो देखा जाय कि निर्णय लिया जाय कि निराकार है कि
साकार है। क्या है? जलने वाला है कि नहीं,
कटने वाला है कि नहीं, मरने वाला है कि नहीं?
इसमें है क्या जो दर्शन करा रहा है? यही इन
सबों का दर्शन है। ये नास्तिक बनाना है या परमेश्वर वाला बनाना है?
ये आत्मा है, ये परमात्मा है। धिक्कार है ऐसे
शिष्यों को, इतनी अक्ल नहीं रखनी है कि ये
कहने में लज्जा और शर्म आ रही है कि मुझे कुछ देखने को नहीं मिला। ये आत्मा और ये
परमात्मा। यही आत्मा है। यही आत्मा के बीच वाला। उस शैतान ने कुछ किताब भी नहीं
पढ़ा। लाखों लोगों के जीवन बर्बाद कर दिया। लाखों लोगों के जीवन बर्बाद कर दिया। आप
लोग कैसे इन्सान हो, इसमें क्या देखा?
ये आत्मा है? दुनिया का कोई ग्रन्थ प्रमाणित
कर देगा? आत्म-ज्योति रूप आत्मा होती है।
आत्म-ज्योति रूप आत्मा है,
आत्म-सत्ता-शक्ति है। इसमें कौन ज्योति देखी आपने?
एक ढेबरी का भी ज्योति है? एक जीरो
वाल्ट के बल्ब की भी ज्योति है? इसमें
क्या देखा आप लोगों ने? दुनिया
का कौन ग्रन्थ इसको प्रमाणित कर देगा कि आत्मा है?
दुनिया का कौन ग्रन्थ है जो प्रमाणित कर देगा कि आत्मा है?
क्या आप लोग हैं? क्या मति मारी गई आप लोगों की?
इतना नहीं जानने-समझने में। गुरु कह दिया ये (तौलिया को दिखाते हुये) आम है। अब आम
खाने लगे ये भी नहीं समझे कि ये तौलिया है,
जानने की जरूरत ही नहीं?
अंधरा गुरु बहरा चेला,
माँगे गुड़ तो दिखावे ढेला।
अंधरा गुरु बहरा चेला,
माँगे गुड़............तो गुड़ समझते हैं आप लोग मीठा की जो ढेली होती है। मांगे गुड़
तो लावे मिट्टी का ढेला। जब खाने लगे, तो क्या
है? हाँ,
हाँ, यही गुड़ है,
यही मिट्टी जैसे लग रहा है। न, न,
ऐसा ही न गुड़ होता है। ऐसा ही गुड़ होता है। ये हाल है।
भइया इसमें क्या देखा आपने?
क्या देखा आपने आत्मा का वर्णन कम से कम ग्रन्थ में तो पढ़िये भइया। आप हिंदु हो,
तो वेद है उपनिषद् है, रामायण है,
गीता है, पुराण है,
ये सब मान्य सद्ग्रन्थ है। आप दादू, दरिया,
पलटू, नानक,
ईसा, मूसा,
मोहम्मद किसी के ग्रन्थ को तो देखो भइया। सब ग्रन्थों में है आत्मा दिव्य,
डिवाइन लाइट, लाइफ-लाइट,
सहज-प्रकाश, परमप्रकाश,
चाँदना, आलिमे-नूर,
आसमानी रौशनी, नूरे इलाही ये सब जो वर्णन है
इसी में कौन ये आत्मा-ज्योति देखाई दे दिया?
ये आत्मा-ये परमात्मा? क्या देखा आप लोगों ने इसमें?
आप लोगों को एक बार आवाज उठाने में शर्म आ गई कि कुछ नहीं दिखाई दे रहा है। आप हम
लोगों को क्यों उपदेश दे रहे हैं? सच
बोलने में परेशानी क्यों हुई आप लोगो को? सच
बोलने में अंधेरे में हाथ उठाइये कुछ देखाई दे रहा है,
हथवो नहीं देखाई देगा। अंधेरे में हाथ उठाइये न,
कुछ देखाई नहीं देगा। आत्मा को अंधेरे में बैठकर के कीजिये,
फस्ट क्लास दिखाई देगा। अंधेरा में ही वो और तेज दिखाई देगा। आत्मा का दर्शन उजाले
में दिक्कत हो जायेगा। अंधेरा करके करना पड़ेगा। अंधेरे कोठरी में आत्मा-दर्शन करने
के लिए सबसे सुंदर १ बजे से ३ बजे रात्रि का समय होता है। आत्मा-दर्शन करना हो तो
उस समय रात में छन-छन, सब कोलाहल,
शोर-शराबा, बस बन्द होता है और सीखना पहले
पाना हो, एक आनन्द मस्ती से गुजरना हो तो
फिर ब्रह्म-बेला में ४ से इस समय सूर्योदय के आधा घण्टा पहले तक। उससे डेढ़ घण्टा,
दो घण्टा पहले। सूर्योदय के पहले जो अंधेरा हल्का होता है। उससे थोड़ा पहले एक डेढ़
घण्टा पहले वो ब्रह्म-बेला होता है। उसमें ब्रह्म-शक्ति का खुला संचरण होता है।
सारा वायुमण्डल जो है ब्रह्म-शक्तिमय होता है। उस समय यदि पन्द्रह मिनट
ध्यान-साधना करें और अन्य बेला में दो तीन घण्टा करें तब भी वो पन्द्रह मिनट वाला
भारी हो जायेगा। क्योंकि उस समय सारा वातावरण ही जो है परिस्थिति ही जो
ब्रह्म-शक्तिमय रहता है। ब्रह्म जो है अपना तरंग-तरंगित होते रहता है। यही
घड़ी-बेला फिर संध्या बेला में आयेगा। संध्या बेला में सूर्यास्त के पश्चात् एकान्त
स्थान में चले जायें जहाँ कोई इंसान, व्यक्ति,
वस्तु न पहुँचे और फिर वहाँ बैठकर के करें। वो भी एक ब्रह्म-बेला है,
एक सन्धि-बेला है तो सन्धि बेला ब्रह्म बेला है। इसलिये सूर्योदय और सूर्यास्त के
घड़ी बेला में सारे भौतिक कार्य वर्जित हैं। सारे भौतिक कार्य वर्जित हैं। वो
पुजा-पाठ, ध्यान-साधना का समय है। यदि कोई
शुभ लक्षण कार्य करना हो तो वो रिएक्शन हो जायेगा। नहीं हो पायेगा। उस समय खाना
खाना तक वर्जित है सूर्यास्त के बेला में। कोई भी सांसारिक कार्य वर्जित है।
बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय ! तो बंधुजन आप
अपने ईमान सच्चाई को क्यों बेच देते हैं। गुरु आपको क्या दे देगा सत्य का होना
चाहिए, गुरु का नहीं होना चाहिए। आप लोग
अपने जीवन को सत्य से जोड़िए, गुरु से
मत जोड़िए। गुरु तो एकसाथ हजारों है भगवान् भी हजारों हो जायेगा क्या?
भगवान् तो एक था, एक है,
एक रहेगा। तो गुरु अब हजारों गुरु हैं सब गुरुजी लोग भगवान् ही हो जायेंगे तो
उसमें असली-नकली पहचानना पड़ेगा कि नहीं? इस समय
आप अपने अन्तःकरण से पूछिये कि हजारों गुरु,
हजारों भगवान् जी लोग रन कर रहे हैं कि नहीं?
ऐसे में आपकी जिम्मेदारी थोड़ी कठिनाई से हो जाती है। अब जहाँ हजारों है तो सही तो
कोई एक ही होगा न, शेष तो गलत ही होगा न?
तो आप सबको जब पुजा-पाठ करना है, पुजा
आराधना करना है, ज्ञानार्जन करना है। तो थोड़ी
सावधानी बरती जाये, गुरु में न चिपका जाये। जो कोई
गुरु में चिपकेगा, अपने को बर्बाद करेगा। मेरे में
मैं भी तो गुरुत्व कर रहा हूँ, मैं भी
ज्ञान दे रहा हूँ। लेकिन कभी भी अपने लोगों को नहीं कह सकता गुरु में चिपको,
चिपकना है तो सत्य में चिपको,
परमेश्वर में चिपको, वहीं से कल्याण मिलेगा। वो एक था,
एक है, एक रहेगा और उसका ज्ञान जब
मिलेगा तो शेष सबका ज्ञान झूठा, अधूरा
बस गाने का दिखाई देगा। तो भइया आप लोगों को इसमें क्या दिखाई दिया?
दुनिया के किसी भी ग्रन्थ में ये आत्मा नहीं हो सकता,
ये परमात्मा नहीं हो सकता।
३४३. जिज्ञासु:- इसमें खाली स्थान दिखाई दे रहा है।
इसमें दो हथेली के बीच में आपने जो दर्शाया है,
इसमें खाली स्थान दिखाई दे रहा है और यही खाली स्थान सर्वशक्तिमान है और यही
सर्वव्यापी है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- मेरा कहना है। खाली माने
वस्तु या वस्तु रहितता? खाली
माने वस्तु या वस्तुरहितता? वस्तु
रहितता न? यानी वस्तु न रहता हो तब न खाली?
तो ये नास्तिकता हुआ कि आस्तिकता हुआ?
परमात्मा माने कुछ नहीं? यही तो
नास्तिकता है। एक बार गौर करके बैठकर के सोंचे। ये बात सही है कि
परमात्मा-परमेश्वर निराकार है। ईश्वर ही निराकार है और छोड़ दीजिये न,
ये जल है। ये जल है इस जल का आकार बता सकते हैं। कटोरी का आकार मैं नहीं पुछ रहा
हूँ, जल का आकार पूछ रहा हूँ। नहीं,
मैं कटोरी नहीं पूछ रहा हूँ। जल का कोई आकार नहीं है न?
ये निराकार है कि नहीं? दिखाई
दे रहा है कि नहीं, वस्तु?
तो जो वस्तु में निराकार है, दिखाई
दे रहा है,तो आत्मा,
परमात्मा निराकार रहते क्यों नहीं दिखाई देगा?
जब वस्तु निराकार रहते दिखाई दे रहा है। तो आत्मा,
परमात्मा निराकार रहते देखाई क्यों नहीं देगा?
अभी निराकार माने कह दिये कि कुछ नहीं है। ये पापी निराकार है। तो कह दिया जाये कि
कुछ नहीं है? उसी तरह से आत्मा,
परमात्मा कुछ नहीं है, का नाम नहीं है। वो है,
निराकार है, लेकिन सत्ता-शक्ति है। निराकार
रहने के बावजूद भी सत्ता-शक्ति है, उसको
देखना है। गौर कर रहे हैं कि नहीं कर रहे हैं?
उसको देखना है और ये तो नास्तिकता हुआ। भगवान् के नाम पर,
धर्म के नाम पर ये घोर घृणित नास्तिकता हो गया। लाखों लोग परेशान है। करोड़ों भी है
गलत नहीं मानेंगे। आप भइया करोड़ कह रहे हैं इसका झगड़ा मेरा नहीं है। है । इनका जब
जलसा, सभा जब लगता है,
निरंकारी मण्डल में।
३४४. जिज्ञासु:- अभी २६-२७ नवम्बर को है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हाँ,
लगता है। तो लगता है तो इतने लोगों का, एक बार
गाड़ी से गुजर रहे थे तो एक विशालकाय शहर जैसा हो जाता है,
हम आपको स्वीकार कर रहे हैं। करोड़ों कहेंगे तो मैं नकारुगा नहीं। ये झगड़ा मुझे
नहीं है। लेकिन ये लगता है कि इतने लोगों को ये शैतान ले गया,
खा गया। हरदेव जो है देखिए सारे लोगों को ध्यान-ज्ञान पढ़ा रहा है। अब देखिए सच
बोला जाये तो उनकी शिकायत हुई। शैतान कहा जाये,
असुर कहा जाये तो गाली देना हो गया। यदि ऐसा न कहा जाये तो लाखों-करोड़ों की
जिन्दगी बर्बाद हो गई न? ये तो
भगवद् द्रोह हुआ न? ये तो भगवद् जिज्ञासुओं को,
भगवद् प्रेमियों को भरमा-भटका करके भगवद् विमुख बनाना हुआ न?
ये तो आस्तिकता के चोले में घोर घृणित नास्तिकता फैलाना हुआ न?
अब ये मैं बोलूँ तो मैं गाली देने वाला हो गया। ये सच बोलूँ,
तो मैं निन्दा-शिकायत करने वाला हो गया। आखिर मैं आप-सभी के सामने मैं किस प्रकार
से पेश आऊँ? इन सबों के तरह से चाटुकारिता
करूँ, भरमा-भटका करके झूठ-फरेब में
भरमाऊँ-लटकाऊँ? या सच बोलूँ जो जहाँ जो भरमे-भटके हैं उनके लिए हम
शिकायतकर्ता हो गये। इसलिये मैं माइक देता हूँ,
कुर्सी देता हूँ तो मेरी कोई बात यदि गलत लगती है। तो एक बार आप लोग जना-समझा
दीजिये, गलत जानने के बाद फिर मैं उसको
नहीं दोहराऊंगा। मैं प्रायश्चित भी करूँगा,
पहले मेरे बात को कोई गलत ठहरा दे तो सही। आप बंधुजनों को इतना साहस तो लाना ही
चाहिए की इस समय कहाँ कुछ दिखाई दे रहा है। मुझे तो कहीं कुछ नहीं नहीं दिखाई दे
रहा है। ऐसा कहने में आप लोगों ने क्यों साहस खोया?
क्यों नहीं साहस बनाया? इसमें
मुझे कहीं कुछ नहीं दिखाई दे रहा है। इस समय मुझे कहीं कुछ नहीं दिखाई दे रहा है।
ये तो खाली है। ये तो खाली है।
परमात्मा माने कुछ नहीं?
आत्मा, परमात्मा माने कुछ नहीं?
यही तो नास्तिकता हो गई न? इसलिये
भइया निराकार का अर्थ ये नहीं है कि वो कुछ है ही नहीं। निराकार का ये अर्थ है कि
वो है, लेकिन किसी आकार बद्ध नहीं है।
किसी का आकार में बंधा हुआ नहीं है। ये न हुआ?
वो जो है निर्विकार है। निराकार है,
निर्विकार है, ये सारे सब सही है। वी गल नहीं
सकता, वो कट नहीं सकता,
वो जल नहीं सकता, वो भेदित नहीं हो सकता,
ये सारी बातें सही है। लेकिन वो जो ऐसा नहीं हो सकता। पहले कुछ दिखाई तो दे। तब न
हम ये सब सिद्ध करें तो ये नास्तिकता हुआ। ये तो लक्ष्यहीन यात्रा हो गया। जब
हमारा कोई मंजिल ही नहीं है। हम जायेंगे किधर?
खाली यात्रा में, खाली जगह पर भटकना नहीं कहा
जायेगा ये? ये खाली जगह पर भटकना नहीं कहा
जायेगा ? ये लक्ष्यहीन यात्रा नहीं हुआ।
३४५. जिज्ञासु:- महाराज हम ये कहना चाहते हैं कि इसी को,
इसी ज्ञान को, इसी ध्यान को,
जो आपने अभी सामने रखा है ये भगवान् श्रीकृष्णजी ने कुरुक्षेत्र में ये जब विराट
रूप दिखाया था, तो ये संज्ञा दी जाती है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- उस हरदेव को मतिभ्रष्ट को एक
बार सामना हो न, हम दिखावें ईश्वर के जगह पर उसने
क्या दिखाया था, वो दिव्य ज्योति,
दिव्य तेज दिखाया था। कहा था कृष्ण ने कि हे अर्जुन !
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
हे अर्जुन ! तेरे इन नेत्रों से मेरे को देखने का
सामर्थ्य नहीं है। दिव्य ददामि ते चक्षु: जब तुझे दिव्य दृष्टि दूँगा,
तब पश्य मे योगमैश्चरम् तब योगियों का, योगी
ध्यान के अन्तर्गत जो दर्शन करते हैं वो योगियों वाला जो ईश्वरीय रूप है तब तुम
मेरे उस रूप को देखोगे। तो क्या ऐसा कोई दिव्य दृष्टि हरदेव ने दिया है?
कोई तेज, कोई चेतन तेज,
कोई ब्रह्म तेज, कोई परमप्रकाश,
परमप्रकाश रूप दिन राति। नहिं चाहिए कछु दिया घृत बाती। सहज प्रकाश रूप भगवाना।
तहँ पुनि विज्ञान विहाना। ये सबकुछ दिखलाया?
३४६. जिज्ञासु:- जो आपके दिखलाया वही होगा?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- ये तो मैं दिखा थोड़े रहा हूँ।
ये तो मैं आप वाला बता रहा हूँ। ये तो गलत अर्थ ले लेंगे आप कि आप जो दिखाये वही
देखा। ये तो मैं आप वाला बता रहा हूँ। ये तो गलत अर्थ ले लेंगे आप कि आप जो दिखाये
वही देखा। ये मैं थोड़े दिखा रहा हूँ। ये तो मैं आप वाला बता रहा हूँ। ये तो बड़ा
उल्टा अर्थ दिया आपके। जो आप दिखाये ये वैसा ही मैंने देखा। मैं दिखला कहाँ रहा
हूँ? मैं तो आप बता-दिखा रहा हूँ।
३४७. जिज्ञासु:- यही सत्य है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- भइया ! ये बड़ी विचित्र बात
है। ये तो बड़ा बढ़िया आपने पलटवार किया। ये तो बड़ा बढ़िया चतुराई प्रयोग करके आपने
किया कि बस जो आप देखा रहे हैं वैसा ही मैं देखा हूँ। तो भइया मैं दिखा कहाँ रहा
हूँ। मेरा दिखाने का क्लास तो १७, १८,
१९, २०, २१ है।
मैं तो आप वाला दिखा रहा हूँ, यही न?
इसलिये भइया ! सत्य से जुड़िये। इन गुरुओं के धंधेबाजी में मत पड़िये। सत्य परमेश्वर
को खोजिये।
३४८. जिज्ञासु:- दिखाइये नहीं कम से कम उसके बारे में
जानकारी कि क्या है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- आप
उसके हकदार नहीं है। चोर बेईमान को सी॰आई॰डी॰ की जानकारी दी जायेगी? सी॰आई॰डी॰ की जानकारी दी
जायेगी? आप लोग चोर, बेईमान हैं, आप लोगों को खजाना की जानकारी दी जाएगी? ऐसा नहीं हो सकता।
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