क्रम संख्या ४१०-४२८

४१०. जिज्ञासु:- गुरुजी से हमें ये पूछना है कि आपने हमें पहले बताया था कि ज्ञान प्रभु की प्रेरणा से मिलता है। हमें ये बातें अच्छी लगी हमने इसे स्वीकार किया और मैं ये सोचता हूँ कि कोई व्यक्ति पैदाइशी विद्वान तो होता तो नहीं है तो विद्वान लोगों से मिलने से, बातें करने से दुनिया को देखने-जाँचने-परखने से वो कुछ सीखता है। भगवान् अगर मन लगाने से वो कुछ ज्ञान प्राप्त करता है तो गुरुजी से मुझे ये पूछना है कि मन तो हमेशा भगवान् को सोचता है। अच्छा सोचता है, उसकी सोच अच्छी होती है, कुछ गलत नहीं सोच सकता और इन्सान का एक दिमाग होता है, मस्तिष्क होता है वो ये सोचता है कि हम जो करना चाहते हैं या फिर कर रहे हैं, वो कितना गलत है, कितना सही है। मैं यह स्पष्ट कराना चाहता हूँ कि हमसे कुछ गलतियाँ हो जाती है, हम नहीं करना चाहते हैं और बाद में पछताते हैं। तो वो कौन होता है जो हमसे गलतियाँ कराता है?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- पहले ही आपने सही नहीं बोला। मैं प्रेरणा को महत्व कभी नहीं देता। प्रेरणा का महत्व तब होता है जब हम उसे जान-देख लेते हैं अथवा दूर रहते हैं। यहाँ तक सीधे ज्ञान की महत्ता है, सत्संग की महत्ता है। प्रेरणा से तत्त्वज्ञान मिलेगा, ऐसा नहीं है। सत्संग के माध्यम से शंका-समाधान द्वारा तत्त्वज्ञान मिलेगा। प्रेरणा से तत्त्वज्ञान नहीं मिलेगा। हाँ, प्रेरणा से आप यहाँ तक पहुँचे हैं। तत्त्वज्ञान प्रेरणा से नहीं मिलेगा। ये तो सत्संग, शंका-समाधान और तत्त्वज्ञान से मिलेगा। तत्त्वज्ञान जब भी मिलेगा सत्संग और शंका-समाधान के माध्यम से मिलेगा। भगवान् और मन-बुद्धि के विषय में आपको पता ही नहीं है। मन शैतान का प्रतिनिधित्व करता है, इस पिण्ड में, इस शरीर में। यही तो सब बुराई-विकृति कराता है। मन तो अच्छा कभी सोच ही नहीं सकता है। मन तो कभी अच्छा सोच ही नहीं सोचता क्योंकि शैतान का प्रतिनिधि है। ये तो हमेशा शैतानियत करायेगा आपसे। कुछ अन्दर है आपके जो अच्छी सोच लगती है। अच्छी सोचती है, वो मन नहीं है, वो बुद्धि है। जिसकी अच्छी सोच है, जो अच्छा कराती है, इंद्रियाँ नहीं, मन यदि हावी होगा इन्द्रियों पर तो बुराई विकृति ही करायेगा। झूठ, छल, कपट, चोरी, भ्रष्टता, व्यभिचार, चोरी, बेईमानी यही सब कराता है मन। इन्द्रियों से मन ही है जो ये सब कराता है बुराई-विकृति। बुद्धि है जो इन्द्रियों से अच्छाई कराती है। किसी का सहायता करना, ऐ कहेगी कि ऐ अभिमानी मत कर, पाप लगेगा। ऐ चोरी मत कर पाप लगेगा। ऐ गलत मत कर दोष लगेगा, पाप लगेगा तो ऐसा सोच जो है बुद्धि करती है। ये बुद्धि का है, मन का नहीं है। ये कार्य तो इन्द्रियों से अच्छाई कराने का है। बुराई-विकृति जब इंद्रियाँ सो, तो समझिये कि इन्द्रियों पर मन हावी हो गया। आप बुराई-विकृति रोक न सके, वो कर ही कराई ले इन्द्रियों के द्वारा, तब समझिये कि मन के द्वारा हो रहा है। यदि अच्छाई स्वीकृति हो रही है, भलाई यदि इंद्रियाँ कुछ करने में लगी हैं। अच्छा करने में लगी है तब समझिये कि इंद्रियाँ पर जो है इस समय मन नहीं, बल्कि बुद्धि जो है, इन्द्रियों से कर-करा रही है। जब परमेश्वर का सोच, परमेश्वर का विचार, परमेश्वर पाने का भाव आवे, तो समझिये कि आपका विवेक सोया हुआ है, वो आपको उत्प्रेरित कर रहा है कि भगवत् प्राप्ति का प्रयत्न कर। भगवान् जानने की कोशिश कर। भगवान् के शरण में रहने-चलने की कोशिश कर। यदि आपके अन्दर कुछ हो रहा हो, तो समझिये कि आपका जो विवेक है वो जग रहा है। वो उत्प्रेरित कर रहा है परमप्रभु से मिलने के लिए। क्यों? ये विवेक जो होता है वो परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है, देव देवता जो माया के प्रतिनिधि हैं और विवेक जो भगवान् का प्रतिनिधित्व करता है। ये सिस्टम है।
अब रही चीजें कि हटात्-बलात् नहीं चाहते हुये भी हो जाती है। नहीं चाहते हुये भी बुराई-विकृतियाँ हो जाती है तो इसका एक ही अर्थ है कि आपके इन्द्रियों पर मन हावी हो गया है। इसलिए बुद्धि आपकी मन हावी हो गया है, बुद्धि आपकी कमजोर है, मन आपका बलवान है। अव सवाल है कब मन बलवान होता है? कब बुद्धि बलवान होता है। जब आप दुष्ट दुर्जनों के साथ बैठना-उठना, बात-व्यवहार करेंगे तब मन बलवान हो जायेगा तब वह इन्द्रियों से गलत करवायेगा ही करवायेगा। जब आप सज्जनों के साथ उठना-बैठना शुरू करेंगे, जब सज्जनों से बात-व्यवहार शुरू करेंगे, दुर्जनों को दूर से ही त्याग देंगे, तब आपका मन कमजोर पड़ जायेगा। आपकी बुद्धि बलवान हो जायेगी। क्यों? ‘सन्त संसर्गे दोष-गुण भवन्ति संसर्ग से ही दोष-गुण आते हैं, संसर्ग से ही दोष-गुण जाते हैं। सत्संगत कथा किन्नकरोति जो कुसंग है वो किसको बर्बाद नहीं कर देता है? सत्संग जो है किसको महापुरुषत्व नहीं प्रदान कर-करा देता है? इसी को उर्दू अरबी में सोहबते अरबत जैसा आपका सोहबत होगा, जैसा आपका व्यवहार होगा उसका असर पड़ेगा आप पर। तो इसलिए यदि आप दुर्जन का साथ करेंगे तो नहीं चाहते हुये आपकी इंद्रियाँ बुराई-विकृति की ओर जायेगी ही जायेगी। आप दुर्जन को दूर से त्यागिये, सज्जनों के साथ उठना-बैठना शुरू कीजिये। बुद्धि बलवान हो जायेगी। फिर आपको बुराई-विकृति से बुद्धि रोक करके अच्छाई-भलाई करा लेगी। ये सिस्टम है इसका।

४११. जिज्ञासु:- मैं गुरुजी की बातों से काफी प्रभावित हुआ हूँ और मुझे कुछ सीख मिला जो भ्रांतियाँ थी वो समाप्त हो गई। बोलिए परम प्रभु परमेश्वर की जय।

४१२. जिज्ञासु:- गुरुजी का प्रवचन मैंने जो आज सुना है इस तरह का प्रवचन तो लगता है, मैं पहली बार सुन रहा हूँ, बहुत ही मैं प्रभावित हुआ हूँ। इसलिए मैं पूछने का ये दु:साहस भी किया है। ध्यान केंद्रित करने का कुछ उपाय अपने प्रवचन में बतावें तो बड़ी कृपा होगी।

संत ज्ञानेश्वर जी:- बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की जय sss। ऐसा है तत्त्वज्ञान एक सम्पूर्ण जीवन विधान है। इसलिए चार क्षेत्र है कुल संसार। संसार और शरीर के बीच का शरीर प्रधान। शरीर और जीव के क्षेत्र का जीव प्रधान। जीव और आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-शिव के बीच आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-शिव प्रधान। आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-शिव और परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म-खुदा-गॉड-भगवान् के बीच का परमात्मा-परमेश्वर प्रधान, विधान। चार हुआ। चार क्षेत्र है। इन चार क्षेत्रों के नाम, रूप, स्थान, गुण, कर्म, प्रभाव कार्य का विधान, देखने की आँखें, प्राप्त होने वाली उपलबद्धियाँ सब अलग-अलग हैं, यहाँ तक की हम लोग जो शब्द उच्चारण करते हैं वो भी उन चारों क्षेत्रों के अलग-अलग हैं। जो नाजानकार है, वो इसमें खिचड़ी और ताल-मेल बनाते हैं लेकिन जो जानकार हैं, शरीर और संसार और शरीर के बीच शरीर प्रधान जो विधान है उसके शब्द भी अलग है। उसके जानने के विधान भी अलग है। उसमें रहने-चलने के विधान कर्तव्य भी अलग है। उसमें पाने के उपलब्धियाँ भी अलग है। शरीर और जीव प्रधान जो क्षेत्र है, उसके भी अपने शब्द अलग हैं। उसके भी अपने जानने की पद्धति अलग है, देखने की आँखें अलग हैं, पाने की उपलब्धियाँ, सब अलग-अलग होती हैं, ये चारों विधान।
तो संसार और शरीर के बीच का शरीर प्रधान जो विधान है इसको जानने के लिए शिक्षा है एजुकेशन, जानने का जो विधान है वो शिक्षा है, एजुकेशन है। देखने के लिए शिक्षा दृष्टि है। अखबार में सब समाचार देश-दुनिया का निकल रहा है। जो शिक्षित नहीं है वो सामने देखते हुये भी नहीं देख पायेगा। उसके लिए ये सटी हुई चीटियों का फोटो है अखबार। सटी हुई चीटी-चीटा का फोटो है अखबार। लेकिन जिसके पास शिक्षा दृष्टि है, वो अखबार देख कर के देश-दुनिया के समाचार को देख लेता है, जान लेता है। इसी प्रकार से ये शिक्षा दृष्टि ये शिक्षा जानने का माध्यम, शिक्षा दृष्टि, संसार जानने-समझने का माध्यम और सांसारिकता में करने पाने का माध्यम। अब रही शरीर तो शरीर प्रधान है। इसमें शिक्षा दृष्टि और स्थूल दृष्टि संयुक्त रूप में काम करते हैं। क्योंकि शरीर और संसार दोनों स्थूल क्षेत्र के हैं। तो इसको जानने के लिए शिक्षा है, देखने के लिए शिक्षा और स्थूल दृष्टियाँ हैं, स्थूल दृष्टियाँ हैं। पाने के लिए कर्म और भोग। कर्म करो, भोग भोगो। कर्म करो, भोग भोगो। यही इनके व्यवहार है।
जब आप शरीर और जीव के क्षेत्र में अपने को स्थित-स्थापित करेंगे, जीव प्रधान जीवन जीने का जीव-रूह-सेल्फ-अहं ये नाम, इसके नामकरण है। तो जब इसके प्रधान में जब आप ले चलेंगे, तब इनकी जानकारी के लिए मनमाना नहीं है। जीव की जानकारी प्राप्त करनी होगी तो शिक्षा से प्राप्त नहीं हो सकती। एक जन्म नहीं लाखों जन्म धारण कीजिये और शोध पी॰एच॰डी॰ करते रहिए, आप जीव नहीं जान पायेंगे, डाक्टरी, इंजिनियरिंग करते रहिए आप जीव नहीं जान पायेंगे। जीव जानना होगा तो आपको स्वाध्याय, सेल्फरेलिजेशन से गुजरना होगा। जैसे संसार शरीर जानने के लिए शिक्षा एजुकेशन है, वैसी ही जीव से सम्बंधित जीव जगत् जानने-देखने के लिए आपको स्वाध्याय की जरूरत पड़ेगी। स्वाध्याय में तीन चरण, स्वाध्याय में तीन चरण। श्रवण यानी कोई भी अपने आप स्वाध्याय नहीं कर सकता, जानता ही नहीं करेगा कैसे? पहले किसी जीव के जानकार से जीव की जानकारियाँ सुननी होंगी, श्रवण। पहला चरण है श्रवण यानी जो जीव का जानकार है। उसको जीव से सम्बंधित जानकारियाँ पहले सुननी होंगी। जब सुनेंगे तब आप स्वयं जीव हैं, आप मनन कीजिये, चिंतन कीजिये, जो सुन रहे हैं आप उसका मनन-चिंतन कीजिये, मनन-चिंतन आपको आभास करा देगा कि आप जो सुन रहे हैं वो सही है कि नहीं। क्यों? आभास करा देगा कि आप स्वयं जीव तो है ही हैं। ये हम जीव ही तो हैं। तो हम जीव जब हम जीव के विषय में सुनेगा तो आभास होने लगेगा कि इसकी जानकारी गलत आ रही है कि सही आ रही है। इसको कहते हैं मनन-चिन्तन। श्रवण पहला चरण। मनन-चिन्तन दूसरा चरण और निदिध्यासन। निदिध्यासन वह स्थित है जिसमे शरीर और जीव दोनों अलग-अलग आमने-सामने खड़े होते हैं। आपको सूक्ष्म दृष्टि से जाकर के उसमें दोनों को अलग-अलग जानना-पहचानना होता है। तो जो श्रवण सुने हैं, जो मनन-चिन्तन के माध्यम से आभासित किए हैं। उसी को स्पष्ट होने के लिए ये निदिध्यासन है। स्पष्ट होने के लिए कि हमें जो आभास हो रहा है, अब मैं उसे देख रहा हूँ, देखते हुये स्पष्ट हो रहा हूँ कि हम जो है एक सूक्ष्म आकृति है और वो हम है ये शरीर हम नहीं है। ये शरीर तो हमारा एक वस्त्र है, हमारी एक गाड़ी है, हमारा एक घर है। गौर कर रहे हैं कि नहीं कर रहे हैं। तो ये श्रवण, मनन-चिन्तन और निदिध्यासन। तीनों संयुक्त रूप में कहलाता है स्वाध्याय (सेल्फरेलाइजेशन)।
ये सांसारिकता क्या है? शरीर से, शरीर के लिए, शरीर तक, इन्द्रियों से, इन्द्रियों के लिए, इन्द्रियों तक। सांसारिकता है परिवारिकता है। शारीरिकता है। आप द सेल्फ, बाई द सेल्फ एण्ड फॉर द सेल्फ। Of the Self, by the Self and for the Self. जीव से, जीव के लिए, जीव के द्वारा, जीव तक। जो सारी स्थितियाँ है, वो है स्वाध्याय (सेल्फ रेलाइजेशन)। सेल्फ यानी सेल्फ यानी जीव। तो सेल्फ जीव को जानना है, जीव के द्वारा जानना है, जीव के द्वारा देखना है और अन्ततः जीव मय अभ्यास में लग जाना है। ये होता है स्वाध्याय (सेल्फ रेलाइजेशन)। जीव देखने की आँख है सूक्ष्म दृष्टि और उसकी अनुभूति है आनन्द। स्वरूपानन्द, आनन्द, स्वरूपानन्द। ये जीव के अनुभूतियाँ उपलब्धि है। और एक श्रेणी जब ऊपर उठेंगे जीव जब शरीरमय बहिर्मुखी इन्द्रियों से, सब इन्द्रियों को बन्द करके बहिर्मुखी होने के बजाय जब अंतर्मुखी होकर के बाहरी संसार-परिवार के तरफ जाने-देखने के बजाय, जब आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-शिव की तरफ चलने लगता है तो इस प्रक्रिया का नाम है योग, अध्यात्म, आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान, आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान, योग, अध्यात्म माने अधी उपसर्ग है आत्म शब्द है। जीव जब इन्द्रियों के माध्यम से पारिवारिकता में न जाने के बगैर जीव जब इन्द्रियों को बन्द करके आन्तरिक रास्ते से जब आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-शिव से मिलने चलता है तो इस मिलन की प्रक्रिया का नाम है योग। योग, इस योग में पहले जानकारियाँ है। आठ चरण है इसमें। यम, नियम, आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। आठ अंग हैं। बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की जय।
सीधे ध्यान के विषय में मैं बताने लगूँ, तो भ्रम हो जायेगा क्यों? प्रत्याहार के बगैर धारणा बनेगी ही नहीं। पाँचवा स्टेप है प्रत्याहार। पाँचवाँ सीड़ी है प्रत्याहार। पाँचवा मंजिल है प्रत्याहार। पाँचवा मंजिल बनायेंगे नहीं तो छठवाँ आयेगा ही नहीं। छठवाँ कैसे बनायेंगे और पाँचवा-छठवाँ रहेगा नहीं तो सातवाँ मंजिल किस पर बनायेंगे। प्रत्याहार के बगैर धारणा बनेगी नहीं। प्रत्याहार माने इन्द्रियों का अपने विषयों से विमुख हो जाना। तो जब इन्द्रियाँ अपने विषयों से विमुख हो जायेंगी तो परिवार रह ही कहाँ जायेगा। परिवार तो इन्द्रियों से है। परिवार तो इन्द्रियों के लिए है। परिवार तो इन्द्रियों जनित विषयों के लिए है। जब इन्द्रिय अपने विषयों में रह ही नहीं जायेगी तब परिवार माने क्या? परिवार रह ही नहीं जायेगा। परिवार रहेगा तो प्रत्याहार नहीं। प्रत्याहार होगा तो परिवार नहीं और जब परिवार में रहेंगे तो प्रत्याहार ही नहीं हुआ। तो धारणा कहाँ सेट करेंगे। परिवार में माताजी हैं, पिताजी हैं, पत्नी जी हैं, पतिदेव जी हैं यानी पुत्रजी हैं, पुत्रीजी हैं, भाईसाहब हैं, बहनजी हैं, नाना तरह के लोग है। इन नानात्व में एकत्व कैसे पाना चाहते हैं? परिवार माने नानात्व, अनेकत्व और धारणा माने एकत्व एक। सैटलाइट होना, कन्संट्रेट होना। जब आप इन इन्द्रियों में रहेंगे। इन्द्रियों माने दस। मन, बुद्धि दो संचालन के लिए तो बारह। बारह के बीच बैठकर के आप कन्संट्रेशन में, सैटलेशन में कैसे पहुँचेंगे? कैसे आप कन्संट्रेशन होंगे? कैसे आप एकीकत्व होंगे? सेटेलाइट कैसे होंगे। केन्द्रित कैसे होंगे। बारह इंद्रियाँ, मन, बुद्धि तो आपके साथ है। एक बार बनारस में कार्यक्रम चल रहा था। 42 लाउड स्पीकर लगे थे तो बी॰एच॰यू॰ के हेड आफ द डिपार्टमेंट, धर्म विभाग के थे उनके बंगले के सामने भी एक माईक लगा हुआ था। अब अपने बंगले में बैठकर के बड़े इत्मीनान से सत्संग सुनते थे। पहले दिन सुने, दूसरे दिन सुने, तीसरे दिन अपने को रोक नहीं पाये। पहुँच गये अस्सी क्षेत्र में जो पञ्च मंदिर है दुर्गा मंदिर के पूरब वही कार्यक्रम चल रहा था, वहाँ वो पहुँच गये। वहाँ सत्संग सुनने के बाद वो अपने को रोक नहीं पाये। तो फिर आए हम जहाँ ठहरे थे, न्यू कालोनी में। वहाँ कहने लगे कि हमको दो मिनट समय दो और फिर बातें हुई तो कहे कि हम एकांत में मिलना चाहते हैं, गुरुजी से। अब हमारे पास खबर आया एकांत में मिलने का। हम खबर भिजवाये कि अन्त में एक ही होता है, एकांत। याने अन्ततः जहाँ एक। ब्रह्माण्ड में हमने दो तो देखा ही नहीं।अन्ततः तो एक ही है भगवान्। अनादि है भगवान् अनन्त है भगवान् तो अन्ततः तो एक है ही है। तो दो चार है ही नहीं तो इसमें क्यों वो शंका करने लगे। अन्ततः तो हम एक है ही हैं। कहे कि ऐसा नहीं, ऐसा हम अकेले में मिलना चाहते हैं तो हम पूछे कि अकेले हम हो ही कैसे सकते हैं। ये हमारे पास पाँच ज्ञानेद्रियाँ हैं। पाँच कर्मेन्द्रियाँ है। मन है, बुद्धि है, अहंकार है, चित्त है तो दस चार चौदह गो तो सीधे बैठे हैं। इन चौदहों को रखकर के कैसे मिलूँ मैं उनसे। यही सचिव महोदय गये। गये तो महाराज जी तो कह रहे हैं कि चौदह गो तो हमारे सथवे हैं। हम अकेले कैसे मिलेंगे इन चौदहों को रखकर के, छोड़कर के। कहे कि नहीं, नहीं, नहीं, हम ऐसे नहीं कह रहे हैं, ये रखें कहे कि हमारे इर्द-गिर्द जो सेवक हैं, वो हमारे अंग-प्रत्यंग तो हैं, वो हमारे अंग प्रत्यंग तो हैं। हमारे इंद्रिय और ये मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार तो हैं। इनको छोड़कर मैं अकेले कैसे रहूँगा-चलूँगा? कहे ठीक है जिसको चाहे रख लें। कहने का मतलब ये है कि जहाँ अनेकता है उसमें यानी आप कुल संप्रेषण की बात करेंगे तो कैसे सम्भव है? जहाँ बहुत्व है वहाँ आप सेन्टरलाईज्ड होना चाहते हैं तो सेन्टरलाईज्ड तो किसी बिन्दु पर माना जायेगा जो एक होगा। दो ही बिन्दु हो जाता तो आप सेन्टरलाईज्ड किस पर होंगे। दो ही तीन बिन्दु हो तो आप किस बिन्दु पर केन्द्रित होंगे। दो ही तीन की संख्या हो, तो कहाँ अपने को कन्संट्रेट करेंगे। कहाँ अपने को सेटअप करेंगे, सुनिश्चित करेंगे? इसलिए परिवार तो प्रत्याहार नहीं और प्रत्याहार नहीं तो धारणा नहीं। ध्यान किसका आप करेंगे? धारणा के बगैर ध्यान होगा। इसलिए सीधे मैं ध्यान वर्णन नहीं करूँगा। जब मुझे वर्णन करना होगा तो थोड़ा-बहुत यम, नियम का संकेत करते हुये उसमे आसान, प्राणायाम का भी थोड़ा-बहुत अंश लेना होगा। लेकिन प्राणायाम और धारणा, प्राणायाम और धारणा दो अनिवार्य है योग के लिए। प्राणायाम और धारणा दो मिलकर के जाप होता है। जिसके माध्यम से ईश्वर को बुलाया जाता है। प्राणायाम और धारणा दो मिलकर के आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-शिव को बुलाता है और तब उससे मिलना और देखना। ये काम दिव्य दृष्टि ध्यान कराता है। ये तो है।

४१३. जिज्ञासु:- हमने गुरुजी से पुछ करके काफी तसल्ली प्राप्त की है और जब तक रहेंगे प्रयाग में तसल्ली प्राप्त करते रहेंगे। गुरुदेव महाराज की जय हो।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की जय। धन्यवाद तो भगवान् को मिलना चाहिए उसी की कृपा से उसका ज्ञान है।

४१४. जिज्ञासु:- जो भगवान् के हाथों मारा जाता है, वो परमधाम को जाता है कि..............

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- ये कोई जरूरी नहीं है। भगवान् जिसको मारे सब लोग परमधाम ही जायेंगे। ये कोई जरूरी नहीं है।

४१५. जिज्ञासु:- जैसे रावण?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- रावण तो गया।

४१६. जिज्ञासु:- परमधाम को।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हाँ, रावण तो गया। इसलिए नहीं कि भगवान् राम ने मारा। इसलिए कि वो तो जय-विजय थे रावण-कुंभकरण। जय-विजय थे तो उसमें वही यानी हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यप बने। जय-विजय को श्राप दिया सनकादि ने श्राप दिया तो हिरण्याक्ष-हिरण्यकश्यप बने। बाद में जब श्राप तो दिया था बहुत लम्बे पीरियेड के लिए। लेकिन भगवान् विष्णु तुरंत आये और उनको समझाये कि ये आपने क्या कर दिये? उसको सम कराया तो श्राप दे चुके थे। तो दिया हुआ श्राप को तो हटाया नहीं जा सकता। हाँ, संक्षिप्त कराये। तीन जन्म तक उसको लाये। ठीक है तीन जन्म आप लोग रहोगे। आसुरी योनि में, संसार में जाकर के जन्म-मृत्यु में और फिर वापस आ जाओगे। पहला जन्म जो है जय-विजय का हुआ हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यप के रूप में हुआ। भगवान् तो मारे थे कहाँ मुक्ति हुई? फिर वही तो आकर के प्रतापभानु और हरिमर्दन बने। हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यप ही आकर के प्रतापभानु और हरिमर्दन बने। तो भगवान् तो मारे थे हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यप को। कहाँ मोक्ष मिला, मुक्ति मिली? वही प्रतापभानु और हरिमर्दन जो है रावण और कुंभकरण बनें तीसरा जन्म में। तो तीन जन्म तो श्राप ही था, तो तीन जन्म का श्राप था रावण और कुंभकरण का तीसरा जन्म था। भगवान् मारकर के उसको जो है।  फिर अपने जय-विजय का ओहदा दे दिये। तो भगवान् के मारने मात्र से कोई मुक्त हो, ऐसा नहीं है।

४१७. जिज्ञासु:- भगवान् जी जो रामजी के जन्म स्थली है अयोध्या में। वहाँ वो मंदिर बनेगा कि..........

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- मन्दिर तो है ही है। अरे ! भइया मन्दिर है तो बनेगा ही बनेगा।

४१८. जिज्ञासु:- विवाद खतम होगा कि नहीं?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अरे ! विवाद क्या? धरती से मुसलमान खतम होंगे, ईसाई खतम होंगे, विवाद, ये मन्दिर-मस्जिद में झगड़ा कहाँ से रहेगा? धरती पर ईसाई-मुसलमान रह ही नहीं जायेंगे।

४१९. जिज्ञासु:- शासन में इतनी क्षमता तो है नहीं।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- शासन तो हिजड़ों की है, चोर-बेईमानों की है। इन सबों से थोड़े होगा। भगवान् के हाथों होगा।

४२०. जिज्ञासु:- तो भगवान् जी आप के हाथों होगा।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अब आपके हाथों होगा कि किसके हाथों होगा, भगवान् जी के हाथों होगा। भगवान्  करेगा करायेगा। ये हिजड़ा-कुजड़ा ये लोग करायेंगे। ऐ ! सोनिया के गुलाम मनमोहन मुँह लटकाये रहता है प्रधानमंत्री है ये। अब क्या कहें छोड़िये फिर सब मुँह गंदा हो जायेगा।
ऐसा कीजिये थोड़ा प्रतीक्षा कीजिये आप लोग। कहीं जीवित रह गये तो धरती जो है इसाइयत, इस्लाम से खाली होने जा रही है। केवल सनातन धर्म एक रहेगा धरती पर, केवल सनातन धर्म। केवल एक सत्य सनातन धर्म रहेगा। केवल एकमेव एक

४२१. जिज्ञासु:- देव वर्ग?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- देव वर्ग तो है ही है। देव वर्ग इस्लाम में नहीं है क्या? फरिश्ता माने। फरिश्ते तो देव ही हैं। तो देव वर्ग तो सब में है। सनातन। प्राचीनतम् सत्य पर जो, जिस पर सृष्टि स्थित है। वो सत्य सनातन धर्म। सत्य सनातन किसी व्यक्ति का नाम नहीं है। वैसे सनातन थे सनकादि में। लेकिन सनकादि वाले सनातन के नाम पर ये सनातन धर्म नहीं है। सनातन कोई व्यक्ति विशेष का नाम नहीं है। सनातन माने प्राचीनतम्। ये सनातन धर्म जो है, सृष्टि के पूर्व जो खुदा-गॉड-भगवान् है, उससे सम्बंधित है। जिसे सृष्टि के पश्चात् भी रहना है। बीच में जो डंड-कमण्डल है नाना तरह के सिक्खी जन तो कबीर पन्थ, तो ये गायत्री परिवार, तो आशो परिवार ये सब नष्ट होंगे। कुछ कोई भेद-भाव वाला डर नहीं रह जायेगा। एकमेव एक सत्य सनातन धर्म रहेगा। क्योंकि कल्कि धर्म  पतल होहि। वह हरि आ चुका है कल्कि के रूप में जो धर्म रक्षक, धर्म का पति होता है और धर्म नाम पर ये धंधेबाज जो है दुकान छाने हैं वह समय  आ रहा है कि एक सत्य की दुकान होगी मेले में और ये आडंबरी-ढोंगी-पाखण्डी लोग कोई दिखाई नहीं देंगे। जनता को ठगने-शोषण करने वाले कोनो नहीं रह जायेगा।

४२२. जिज्ञासु:- सुभाषचन्द्र बोस सुना जा रहा है कि अभी जीवित है?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की जय। यदि मैं कहूँ जीवित हैं वो कहे की लाकर के दिखाइये तो कहाँ से दिखाऊंगा? मैं कहूँ मर गये हैं वो कहे कि सर्टिफिकेट पेश करो तो कहाँ से लाऊँगा? इसलिये ये मेरा विषय नहीं है और मैं यहाँ नहीं बोलना चाहता, जिसका मेरे पास पुष्ट प्रमाण नहीं है। मैं वह नहीं बोलना चाहता जिसका मेरे पास पुष्ट प्रमाण नहीं है। इसलिये सुभासचन्द्र बोस का मेरे पास पुष्ट प्रमाण नहीं है। चाहे मरने का, चाहे जीने का। इसलिये इन दोनों में से मैं कुछ नहीं कह पाऊँगा। आप जैसे भइया ! हम भी पढ़ते हैं लेकिन इन दोनों से अलग रहते हैं। वो जीवित हैं कि वो मर गये हैं। इन दोनों से हम अलग रहते हैं। इसलिये कि कहने का अर्थ पुष्ट प्रमाण पेश करना। वो मैं कहाँ से लाऊँगा? कोई पत्रिका, कोई अखबार पुष्ट प्रमाण में नहीं आता है। कोई पेपर पत्र का प्रमाण में नहीं आता है। पुष्ट प्रमाण नहीं कहा जा सकता।

४२३. जिज्ञासु:- क्या अभी आपने भगवत् गीता में अभी उल्लेख किया कि सूर्य भगवान् और चन्द्रमा............

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- सूर्य भगवान् में आता ही नहीं, सूर्य तो एक ग्रह है। देखिए तारा छोटा सा है, ग्रह में।

४२४. जिज्ञासु:- इन सबकी पुजा जो है श्री भगवान् ने कहा है कि करने से बहुत सूक्ष्म लाभ होता है कि वास्तव में मैं भी सहमत हूँ। लेकिन आपने कही कि सन्त ज्ञानी की सेवा की जाय तो हम जानना चाहते हैं कि इस समय सन्त ज्ञानी हैं कौन? उसको समझाये?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- जो ज्ञान तो समझता हो। ज्ञान और वैराग्य से युक्त हो। भगवान् को जनाने वाला हो, ज्ञान वाला हो और परिवार वाला न होकर के भगवान् वाला हो। अपने जीवन को भगवान् और भगवद्ज्ञान के लिए समर्पित कर दिया हो।

४२५. जिज्ञासु:- अगर उदाहरण स्वरूप किसी का नाम जानना चाहे तो?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नाम जानने चाहते हैं तो सत्संग सुनिए। नाम तो आ ही जाता होगा। धरती पर एक समय में दो बार ज्ञानी सन्त नहीं होता। ज्ञानी ज्ञानदाता सन्त एक बार एक पुरे युग में वो भू-मण्डल पर एक भगवान् की ही शरीर होती है। ज्ञानदाता सन्त जो होगा पूरे युग में, पूरे भू-मण्डल पर एक बार एक ही शरीर होता है। वही सद्गुरु और भगवदावतार भी कहलाता है।

४२६. जिज्ञासु:- मैं प्रवचन् से श्रीमान् जी का पैतीस या तीस साल पहले वर्मा में सुना था, महामंडलेश्वर के नाम से। सदानन्द जी महाराज थे और आपका भाषण हमें इतना जंचा कि गीता का मैं अनुयायी हो गया। यहाँ तक कि आपके स्वर में आप थे या नहीं। आपने कहा था कि सोलहवां अध्याय का पहला श्लोक का ही अगर स्मरण मनुष्य कर ले तो वो किसी से डरेगा नहीं। उस पर यहाँ तक कि भयानक जानवर या भयानक अस्त्र-शस्त्र भी उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। तभी से मैं 10 साल से आ रहा हूँ। मैं आज तक कुछ भी कहने का मौका नहीं मिला और मैं उस महामंडलेश्वर स्वामी सदानन्द महाराज को अपने ह्रदय में धारण किया हुआ हूँ और मैं समझता हूँ कि वही ज्ञानेश्वर होकर के आप हैं। इसलिए मैं आपको नमस्कार करता हूँ। कम से कम ये बताने का कृपा करें।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की जय sss। जरा गीता लाना जी। बोलना तभी सत्य है जब वो व्यवहार में सही हो। कथनी और करनी दोनों जब तक होती हैं तब उसे सत्य कहते हैं। कथनी और करनी जब दोनों में टकराव होता है तो या तो कथनी झूठी होगी या जो व्यवहार है वो गलत होगा। कथनी और करनी तो वो महामंडलेश्वर पहले तो वो यह नहीं है। वो करपात्री के महामंडलेश्वर नहीं हैं। वो करपात्री के शिष्य थे, यह स्वर्गाश्रम जो है उसी में वो रहते हैं। ऋषिकेश आश्रम में। महात्मा सदानन्द के नाम से प्रचलित है। तो करपात्री के शिष्य है। वो क्या जाने परमात्मा के विषय में। वो क्या जाने? वो तो इतना डरपोक हैं सब। वो हैं वहीं उसके सामने कुत्ता दौड़ा दीजिये तो भागने लगेगा। बड़े जन्तु-जानवर की बात छोड़ दीजिये। बोलने के लिए तो कुछ भी बोला जायेगा। बोलने के लिए तो कुछ भी बोला जायेगा। मंच पर हैं तो कोई बाघ-शेर थोड़े आ रहा है कि उनको प्रेक्टिकल होगा कि वो भय खाते हैं कि नहीं, भयभीत होते है कि नहीं। कुल मिलाकर के गीता में भगवान् श्री कृष्ण के प्राप्ति वाला प्रकरण से मतलब रखना चाहिये। क्योंकि जब तक भगवत् प्राप्ति नहीं होती, भगवद् ज्ञान नहीं मिलेगा, संसार में असत्य क्या है और सत्य क्या है? ये जाना ही नहीं जा सकता। भगवद्ज्ञान के बगैर, तत्त्वज्ञान के बगैर इस संसार में झूठ क्या है और सत्य क्या है? जाना ही नहीं जा सकता। त्याज्य, ग्राह्य कैसे विधान लागू होगा? कर्तव्य मेरा क्या है? कैसे जानेंगे? जब तक असत्य और सत्य, झूठ और साँच दोनों को स्पष्टतः जानेंगे देखेंगे नहीं, तब तक किस आधार पर अपने कर्तव्य का निर्धारण करेंगे? हम शरीर हैं कि हम जीव हैं कि हम आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-शिव हैं कि हम परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म-खुदा-गॉड-भगवान् हैं? जब तक हम ये जानेंगे नहीं, तब तक हम अपने कर्त्तव्य का निर्धारण कैसे कर लेंगे?
हम शरीर होगा तो इसका कर्त्तव्य कुछ और होगा। हम जीव होगा तो इसका कर्त्तव्य-मंजिल कुछ और होगा। हम आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-शिव होगा तो इसका कर्त्तव्य-मंजिल कुछ और होगा। हम परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म-खुदा-गॉड-भगवान् होगा तो इसका कर्त्तव्य कुछ और होगा। जब तक ये पता ही नहीं चलेगा कि इन चार में से हम कौन है?शरीर है कि जीव है कि आत्मा है कि परमात्मा हैशरीर है कि जीव है कि ईश्वर है कि परमेश्वर है, शरीर है कि जीव है कि ब्रह्म है कि परमब्रह्म है, शरीर है कि जीव है कि शिव है कि भगवान् है, बॉडी है कि सेल्फ है कि सोल है कि गॉड है, जिस्म है कि रूह है कि नूर है कि अल्लातआला है। यानी शरीर है कि अहं है कि हंस है कि परमतत्त्वम् है। जब तक इन चारों को हम अलग-अलग जानेंगे नहीं, अलग-अलग देखेंगे नहीं, अलग-अलग परिचय-पहचान नहीं करेंगे, तब तक हम इसमें से कैसे कहेंगे कि हम कौन है? क्या है? और जब हम हम ही को नहीं जानेंगे। अपने अस्तित्त्व पद का पता ही नहीं होगा तो हम अपना कर्त्तव्य कैसे जान लेंगे। क्योंकि कर्त्तव्य तो अस्तित्त्व पद के अनुसार तय होता है। कर्त्तव्य तो पद अथवा अस्तित्त्व के अनुसार तय होता है। जब हमको अपने अस्तित्त्व पद का पता ही नहीं चलेगा तो हम कौन सा व्यवहार देंगे? औरत की शरीर एक होती है। एक ही जैसे होती है। कोई लड़की कहलाती है तो कोई बहन कहलाती है तो कोई पत्नी कहलाती है तो कोई माँ कहलाती है। हम जानेंगे ही नहीं कि उस औरत से मेरा सम्बन्ध क्या है? लड़की का है कि बहन का है कि पत्नी का है कि माता का है, हम उसके साथ कौन सा व्यवहार अदा करेंगे? कौन सा व्यवहार हम उसके साथ करेंगे? जब तक हम वास्तविक पद को नहीं जानेंगे, कर्त्तव्य का निर्धारण ही नहीं हो पायेगा। हम अपने कर्त्तव्य करेंगे कैसे? और वही जिम्मेदारी फट से पढ़ा-लिखा है अच्छा। कहता है भाई ! हाँ, परिवार भी तो जिम्मेदारी है निभाना। रे मूर्ख कहीं के ! जिम्मेदारी का अर्थ भी मालूम भी है कि खाली बोल देना है। अपने अस्तित्त्व के अनुसार कर्त्तव्य का निर्धारण होता है और ईमान से कर्त्तव्य के पालन को ही दायित्व कहते हैं, जिम्मेदारी कहते हैं। ईमान से ही अपने कर्त्तव्य के पालन को ही जिम्मेदारी दायित्व कहते हैं। कर्त्तव्य को, अस्तित्त्व का पता नहीं तो कर्त्तव्य कहाँ से आ जायेगा? और अस्तित्त्व कर्त्तव्य है ही नहीं तो जिम्मेदारी कहाँ से आ गयी? दायित्व कहाँ से आ गया? दायित्व होता है जिम्मेदारी निभाने का नाम। यानी दायित्व होता है जिम्मेदारी होती है कर्त्तव्य निभाने का नाम। कर्त्तव्य निर्धारित होता है अस्तित्व अथवा कर्त्तव्य के द्वारा। जब तक हम अस्तित्व नहीं जानेंगे कर्त्तव्य का ही पता नहीं चलेगा। जिम्मेदारी कहाँ से आ जायेगी? तो इस तरह से जो है तत्त्वज्ञान के लिये। ध्यान में होने की स्थिति। तत्त्वज्ञान वाला हो जायेगा तो भगवान् का रहेगा कि ब्रह्माण्ड में किसी और का रहेगा? तत्त्वज्ञान वाला भगवान् वाला होता है। उसका कौन क्या बिगाड़ लेगा? इसमें भी तत्त्वज्ञान ही है।

४२७. जिज्ञासु:- इससे अभय हो जाता है। मनुष्य उसके जान पर अभय हो जाता है।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- जब तत्त्वज्ञान वाला होगा तो संसार में अभय नहीं हो जायेगा तो क्या होगा? जब जन्म-मृत्यु उसका खतम हो जायेगा। भगवान् के शरण में है जन्म-मृत्यु खतम हो जायेगा, अमरत्व को प्राप्त हो जायेगा तो डरेगा किससे? अगर भगवान् का भय न हो। शरणागत के, तत्त्वज्ञान के विधान का भय न हो तो वो जो है सब लोगों को अकेले ठीक कर देगा। बानर हनुमान ठीक किया था, भगवान् के शरण के बल पर। तो वो तो तत्त्वज्ञान वाला को ऐसा होता ही है। ये कौन कहता है कि तत्त्वज्ञान वाला किसी से डरेगा? उसका भय भगवान् से होता है केवल और सत्य विधान से होता है। वो किसी देवी-देवता, भूत-प्रेत किसी और से नहीं डरता। लेकिन जादूगरी चमत्कार भी नहीं करता है। अब तत्त्वज्ञान पाये और चेलवन के तरह से आप कहिये कि मैं तो तत्त्वज्ञान पाया हूँ।
दो चेला थे। किसी गुरुजी के यहाँ से ब्रह्मज्ञान प्राप्त करके आ रहे थे। गुरुजी पढ़ा दिये कि चेला तेरे में भी भगवान् ब्रह्म, मेरे में भी ब्रह्म, हाथी में भी ब्रह्म, घोड़े में भी ब्रह्म, गाय में भी ब्रह्म, सुअर में भी ब्रह्म, सारे कण-कण में भी ब्रह्म। हम सभी ब्रह्म वाले हैं। सब ब्रह्म ही ब्रह्म हैं। ऐसा ज्ञान लेकर के दोनों चेला बेचारे आये। इधर से रास्ते में आये तो एक हाथी सनका हुआ था, पिलवान् चिल्ला रहा था कि भागो, भागो हाथी सनका हुआ है भागो। एक दोस्त कहता है अरे दोस्त ! भागो, भागो हाथी सनका है, वो पिलवान् हल्ला कर रहा है, हाथी सनका है भागो। वो दूसरा बोलता है-हैं ! अभी ज्ञान लेकर आ रहा है गुरुजी से कि मेरे में ब्रह्म, तेरे में ब्रह्म, हाथी में भी ब्रह्म सबमें ब्रह्म ही ब्रह्म तो मुझ ब्रह्म को हाथी ब्रह्म क्या करेगा? दोस्त बार-बार कहा कि ऐ कहा कि नहीं मैं नहीं भागूंगा। मैं भी ब्रह्म, हाथी भी ब्रह्म, ब्रह्म, ब्रह्म को क्या करेगा? हाथी बेचारा आया और इनको फाड़ दिया। उठाकर टांग खींचकर फाड़ दिया। अब बेचारा दोस्त जो बचा था, भागे-भागे गुरुजी के पास आया कहा कि गुरुजी आपने मेरे दोस्त को मरवा दिया। पूछा मैंने कैसे मरवा दिया? तो कहा कि आपने ऐसा ब्रह्मज्ञान दिया कि ऐसा-ऐसा हुआ। वो तो ब्रह्मज्ञान में लीन हो गया और जब हाथी सनका हुआ आ रहा था। पिलवान् चिल्ला रहा था भागो-भागो हाथी सनका है। मैंने भी कहा भागो सनका हाथी आ रहा है। कहा कि मेरे में ब्रह्म, हाथी में ब्रह्म ये सब ब्रह्म ही ब्रह्म है तो मुझ ब्रह्म को हाथी ब्रह्म क्या करेगा? और हाथी आया फाड़ दिया। आपने तो मरवा दिया मेरे दोस्त को। तो कहे कि अरे भाई ! थोड़ा समझने का कोशिश करो। जब यह दोस्त तेरा ब्रह्म था। यानी पिलवान् ब्रह्म की बात काटा। दोस्त ब्रह्म की बात काटा तो जब दो-दो ब्रह्म की बात काटा तो तीसरा ब्रह्म दंडित करेगा न। इसलिये हाथी ब्रह्म फाड़ दिया। इसमें मेरा क्या दोष है? यानी वो ब्रह्म सबमें देख रहा है तो पिलवान् ब्रह्म की बात उसको माननी चाहिए थी। मित्र ब्रह्म की भी भइया! ऐसा ही है अभय के नाम पर कहीं जाकर के आग में मत कूद जाइयेगा कि हम अभय हो गये हैं नहीं तो अगिया (आग) नहीं समझेगी कि अभय हो गये हैं। हाँ, यदि भगवद्मय आपने यदि अपने को ईमान से कर दिये हैं तो सत्य में यदि कोई आपको आग में डालेगा तो शायद भगवान् आपकी रक्षा करेगा। नहीं जलेंगे। प्रहलाद का रिकार्ड भी है। बोलिये परमप्रभु प्रभु परमेश्वर की जय sss। परिस्थिति आयेगी रक्षा हो जायेगा।

४२८. जिज्ञासु:- इसमें गीता में कहा गया है कि जीव जो है पुराने शरीर को छोड़कर नये शरीर में प्रवेश लेता है तो बच्चे कैसे मर जाते हैं? यही हम जानना चाहते हैं।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलो परमप्रभु परमेश्वर की जय sss। मैं दिखाता हूँ ऐसा। मैं दिखाता हूँ ऐसा कि जीव जो है जब चाहे शरीर को उतार कर रख दे और जब चाहे शरीर धारण कर ले। ये व्यास की पचड़ी है, पचखी है। भगवान् कृष्ण उस ज्ञान वाले नहीं थे, बूढ़ा ही शरीर जो है यानी वस्त्र बदलेगा, नया नहीं। ये व्यास ने घुसेड़ दिया है। भगवान् कृष्ण जी का तत्त्वज्ञान ऐसा नहीं था। वो तो ऐसा है वह जब ज्ञान देंगे तो ज्ञान प्राप्त कर्ता जब चाहे तब शरीर को वस्त्र जैसे उतार कर रख दे और जब चाहे तब शरीर को धारण कर ले। ठीक वस्त्र जैसे। ये तो मैं दिखाता हूँ। जैसे दो तारीख को इसको दिखाऊँगा और देखेंगे, जब चाहे तब उतार दे। जब चाहे तब धारण कर लें। तो भगवान् कृष्ण ऐसा दिखाये थे। व्यास ने उसको समझा नहीं तो वो नया-पुराना से जोड़ दिया। ये बात है। बोलो परमप्रभु परमेश्वर की जय sss
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गह्णाति नरोsपराणि । 
ये नवानि और जीर्णानि शब्द व्यास का है। भगवान कृष्ण का नहीं है। 

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