क्रम संख्या २३७-२९०

२३७. जिज्ञासु:- हमारे पर भी प्रभु कृपा कीजिये। ताकि हमको भी ये ज्ञान हो जाये।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं, नहीं, अब तो गाड़ी आगे बढ़ गई। जहाँ तक ज्ञान की बात करेंगे तो संभव नहीं है। अब ये है आश्रमों में रहना हो तो कोई बात नहीं। ज्ञान की बात कर रहे हैं तो बहुत तेजी हो तो बैशाखी हरिद्वार की प्रतीक्षा कीजिये। गारंटी नहीं दे रहा हूँ ज्ञान मिलेगा कि नहीं मिलेगा। ज्ञान तो मिलेगा समर्पण-शरणागत के बाद। भगवान् मिलेगा समर्पण-शरणागत होने-रहने के बाद ही। यदि ऐसा इस बीच में करते हैं तो जाँच-परख किया जायेगा। यदि आप समर्पित-शरणागत जिज्ञासु भक्त हैं तो ज्ञान मिलेगा, नहीं तो नहीं मिलेगा। ये है इसके बाद कार्यक्रम हरिद्वार में है ५ अप्रैल से २० अप्रैल तक। वहाँ तो आश्रम है, ये किसी का बाप-दादा का आश्रम नहीं है। अरे हमारा बाप-दादा का आश्रम है? आश्रम भगवान् का है, सबका है। मात्र वो हमारा थोड़े है, वो आपका भी है हमारा भी है। वो सबका है भगवान् का है। हम नोट रुपया कमाते हैं कि हम आश्रम बनवा देंगे? ये तो भगवत् कृपा है, हो जाता है।

२३८. जिज्ञासु:- हम यही सोचकर के चले थे कि हम भी संसार में रहते हैं। तो संसार वालों से हम क्या कहेंगे कि भगवान् का दर्शन हो गया। यह बात सोच रहे हैं।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं तो जब संसार में रहना होगा, घर परिवार में रहना होगा तो भूल जाइये, भगवान् नहीं मिलेगा। जब भगवान् का होकर रहना होगा, भगवान् के शरण में रहना-चलना होगा। धर्म-धर्मात्मा-धरती की रक्षा में लगना-लगाना होगा तन-मन-धन से बीबी-बच्चा के सेवा में रहेंगे तो भगवान् नहीं मिलेगा। जन कल्याण में उतरेंगे, ‘धर्म-धर्मात्मा-धरती की रक्षा में जब उतरेंगे तो भगवान् मिलेगा।

२३९. जिज्ञासु:- तो जन कल्याण की ही बात मैं..........

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- फिर तो भगवान् मिलेगा ही मिलेगा। लेकिन हमको दिखा दीजिएगा कि आप जन कल्याण में लगे हैं। भोग-व्यसन में बने रहना हो, भोगी-व्यसनी बने रहना हो तब आप ज्ञान के लिये लालायित मत होइये। भोग-व्यसन में बने रहिए।

२४०. जिज्ञासु:- भोग की जरूरत नहीं है। समय भी हमारा खतम हो गया है।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- जब तन-मन-धन से धर्म-धर्मात्मा-धरती की रक्षा में लगना-लगाना हो, जन कल्याण में अपने जीवन को लगना-लगाना हो, जीव के उद्धार और समाज के सुधार में पूर्णतः लगना-लगाना हो तब यहाँ सटिएगा।

२४१. जिज्ञासु:- ये तो हमारी धारणा है। पहले से थी।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- जब धारणा है तो फिर देर क्यों हो गया?

२४२. जिज्ञासु:- देर हो गया। हम यहाँ तीन दिन से आ रहे हैं।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- तीन दिन से हम क्लास ही कर रहे हैं प्रैक्टिकल का।

२४३. जिज्ञासु:- तीन दिन से आ रहे हैं। अब हमको जानकारी तो थी नहीं पहले।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं तो सत्संग में जो भाग नहीं लेगा उसको ज्ञान में भाग नहीं मिल पाएगा।

२४४. जिज्ञासु:- पहले से ज्ञान तो था नहीं इसका।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हर बार पिछली बार १७ तारीख से ही हम कार्यक्रम शुरू किए थे जान-बूझकर इस बार बढ़ा दिये कि किसी को ये कहने का मौका नहीं लगे कि हमको जानने का मौका नहीं लगा। तीन गाड़िया पूरे मेला में घूमती रहीं प्रचार में। ये किसी को कहने का मौका नहीं दिया कि हमको जानने का मौका नहीं लगा। अरे कहिए कि हम इतने सटे थे, इतने लीन थे व्यसन में कि हमको खोज नहीं थी जानने का मौका नहीं मिला।

२४५. जिज्ञासु:- ऐसी बात नहीं हम तो बाद में आए।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- तो फिर क्या हर्ज है? आप हो जाइए और चलिये सथा में। देखा जायेगा जब पात्रता आ जाएगी ज्ञान दे दिया जायेगा। हम आपको काम कराने के लिये थोड़े कह रहे हैं। ईमान-संयम जरूरी है। कोई सेवा कार्य करे न करे कोई जरूरी नहीं है। एक पैसा देंगे नहीं वो जरूरी नहीं है। ईमान और संयम अनिवार्यतः जरूरी है। ये तो अनिवार्य रूप से लागू होगा ईमान और संयम। शेष सब हो जायेगा।

२४६. जिज्ञासु:- कुछ को रखा भी जायेगा, रखे भी हैं।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- रखे हैं नहीं रखे हैं। ये मेरा विषय नहीं है। हमारे यहाँ जुड़ेंगे तो ईमान से संयम पूर्वक रहना होगा। शेष भगवत् कृपा।

२४७. जिज्ञासु:- सियावर रामचंद्र की जय। पहले बतावा जाय कि जो कुछ पुछ लेई गोण्डा के हम हैं यदि आपके कोई प्रश्न हम आपसे पूछ लें तो यहाँ के लोग मार तो नहीं डालेंगे? मतलब कहने का मेरे बात पर ये है महाराजजी कि इस देश को आखिर कितने भागों में बांटा जाये। इस देश की भी तो आखिर कोई मर्यादा है। इस देश की कोई मर्यादा हैं। आपके यहाँ जितने लोग हैं प्रायः नेपाल के लोग हैं। भाई हमारे अतिथि हैं। ये लोग गुणगान करते हैं उसके बाद में पूरे मंच को आप ऐलान करवाते हैं कि ये सब लूटते खाते हैं। आपसे प्रश्न है कि ये सब जो वैभव आपके श्री चरणों में है ये कहाँ से आता है?

२४८. सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की जय sss। भाई भगवान् दिखाते हैं हम। भगवान् मिलाते हैं हम। भगवान् दिखाते हैं हम। भगवान् है हमारे पास लक्ष्मिनिया कहाँ जायेगी? जब भगवान् है हमारे पास लक्ष्मिनिया कहाँ जायेगी? माया कहाँ जायेगी। मायापति भगवान्, लक्ष्मीपति भगवान्। जब भगवान् हमारे पास है तो ये माया लक्ष्मी कहाँ रहेगी? उनको तो रहना ही रहना है। और जहाँ माया और लक्ष्मी है लोग वहाँ कौन सा ये वैभव है?

२४९. जिज्ञासु:- पूरे मेला को क्यों चैलेंज करते हैं आप?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- इसलिए कि सब ठग-बटमार झूठ हैं। 

२५०. जिज्ञासु:- तो आप भी तो ठगी हो सकते हो?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हाँ, हो सकते हैं।

२५१. जिज्ञासु:- आप भी तो ठगी हैं क्योंकि समाज उधर कोई दूसरी बात होती है और फिर इतनी बड़ी पब्लिक को देखते हैं तो अपनी बात बदल देते हैं कि आपके यहाँ जो लोग हैं वो अपनी बात बदल देते हैं। जो बात आप करते हैं वो बात उतरता नहीं है महाराज जी।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- एक बात भइया जो है थोड़ा शांतिमय ढंग से बोले। इसीलिए हमने कुर्सी दिया है, इसलिए माइक दिया है। बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की जय। हमने इसीलिए कुर्सी देकर के आदर-सम्मान के साथ आप सभी बंधुजनों को आमंत्रित किया है कि यहाँ हमने आमंत्रित किया है आपको, कुर्सी माइक देकर के कि मेरी कोई बात यदि गलत लगे, मेरा कोई व्यवहार गलत लगे तो आप समाज में रखिए। इसलिए दिया है कि मेरी कोई बात, मेरा कोई व्यवहार गलत लगता है तो समाज में रखिए। इसमें नाराज होने की क्या बात है? मान लीजिए हमारे लोग हैं या हम हैं कोई ऐसा पंडाल है मेला में जो अपने खिलाफ कुर्सी और माइक दे रहा हो कि हमारे खिलाफ कोई जानकारी हो या हमारी कोई बात गलत लगे, कोई हमारा व्यवहार गलत लगे तो भरा समाज है समाज के बीच में रखिए। ऐसा एक पंडाल बताइए कि अपने खिलाफ बोलने के लिए कुर्सी माइक देकर के समाज के बीच में खुले मंच से कह रहा हो कि हमारे खिलाफ जो जानते हैं लोगों को बता दीजिये।

२५२. जिज्ञासु:- इस तरह से कोई लोगों को ललकारता भी नहीं किसी की निन्दा भी तो नहीं करता है। आपके यहाँ निन्दा होती है।

संत ज्ञानेश्वर जी:- मान लीजिए हम कोई गलत बात बोलते हैं, कोई किसी की निन्दा शिकायत करते हैं और हमारी निन्दा शिकायत गलत है तो इसीलिए न भइया के लिए कुर्सी माइक दिये हैं कि समाज में बता दीजिये और हम सचमुच में हम झूठे----गलत होंगे तो केवल अपनी गलती छोड़ेंगे नहीं, प्रायश्चित करेंगे।

२५३. जिज्ञासु:- भगवान् को किस तरह से प्राप्त किया जा सकता है?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- भगवान् का होकर के। भगवान् के शरण में रह-चल कर के।

२५४. जिज्ञासु:- हाँ, ये बात ठीक है।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- तो, ये जो बेठीक है भइया। वो बताइये न। हम ठीक वाला तो बोला ही जा रहा है। जो हम बेठीक बोल रहे हों, जो हम गलत बोल रहे हो, यही समाज को बताने के लिए भइया को हमने ये व्यवस्था दिया है। अकेले में तो नहीं। जिस समाज में मैं बोल रहा हूँ चुनौती दे रहा हूँ, उसी समाज के बीच में, अपने खिलाफ कि हमारे खिलाफ भइया के पास कोई जानकारी हो, चाहे वो हमारा व्यवहार हो, या हमारे कोई कथन-वचन हो, जो गलत लगे भइया को वो समाज के बीच में कह दे।

२५५. जिज्ञासु:- आप महाराज जी ! बहुत अच्छे हैं। वास्तविकता ये है कि आपके अंदर सहनशीलता भी है जिस तरह से मैं बोल जाता हूँ नहीं बोलना चाहिए लेकिन एक बात है कि इस तरह भरे मेला में जो भी सन्त आयें हैं वो सब सन्त तो श्रेष्ठ हैं। तो उनके लिए लोग इतना अपशब्द का प्रयोग कर देते हैं कि गला विदीर्ण हो जाता है। कसम से बता रहे हैं इसी पर शान्तिकुंज वाले हैं, प्रजापिता ईश्वरीय विश्वविद्यालय वाले हैं, बाबा जयगुरुदेव हैं और दुनिया लोग इसी तरह से संस्था खोल रखे हैं। भारत को कितने भागों में बांट देंगे ये लोग।। कितने पंथ बना देंगे आखिर?

२५६. सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की जय sss। मैं बहुत सहिष्णु नहीं हूँ, बहुत सहनशील नहीं हूँ। आप मेरे बड़े भइया हैं आपको बोलने का अधिकार हैं आपका यहाँ होना आपका अधिकार है। हमारा आपको सम्मान देना कर्तव्य है। हम सहिष्णु थोड़े हैं। हम आपके छोटे भाई हैं। नैतिकता कहती है कि आप नाराज हों, हम आप पर नाराज हों। अब रही चुनौतियाँ ऐसे ही लेखराज ब्रह्मकुमारी वालों को कहते हैं? ऐसे ही शान्तिकुंज वालों को कहते हैं? ये सब घोर-घोर-घोर ढोंगी- पाखण्डी हैं। वो सब लूटेरा ठग-बटमार हैं। वो सब घोर चोटी से लेकर एड़ी तक धूर्तबाज हैं। है क्षमता इस मेले में किसी गुरु की कि अपने खिलाफ बोलने के लिए भरी सभा में कुर्सी और माइक दे बकिया एकदम पोलमपोल हो जायेगा। उनको मेला छोड़कर भागना पड़ेगा।

२५७. जिज्ञासु:- नहीं महाराज ! ये बात तो नहीं है। अगर विवाह नहीं हुआ है। अगर विवाह नहीं हुआ हो तो बाराती हम जरूर गए हैं। मेरे पास इस तरह से पैसा नहीं है नहीं तो मैं भी मंच लगाकर के फ्री छूट दे सकता हूँ। लेकिन चाह चमारी क्यों मरी तू नीचों में नीच, मैं तो पूरण ब्रह्म पहले से ही था, यदि तू न होती बीच।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बात सही है भइया। तो इसीलिए हम चाहते हैं कि जो बीच में ये चाह चमारी चोरी आ गई है। इस चाह चमारी चोरी को भगा दिया जाये और ब्रह्म हो लिया जाये।

२५८. जिज्ञासु:- हाँ, तो हम ब्रह्म हैं ही हैं। जो स्वतः सिद्ध है उसको किसी को दिखाने की क्या आवश्यकता है?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- भइया उसी को तो दिखाने की जरूरत है। जो स्वतः सिद्ध है। उसी स्वतः सिद्ध को नहीं जानने के नाते लोग भरम-भटक करके इधर-उधर भटक जा रहे हैं। हमारे भइया तो स्वतः सिद्ध हैं तो इनको हम ही कुर्सी दे रहे हैं। अपना स्वतः सिद्ध भइया बता दें। जो स्वतः सिद्ध आप हैं बता दीजिये।

२५९. जिज्ञासु:- हम क्या हमारे लड़क दादा भी नहीं बता सकते हैं। वह अनुभव गम्य भजहिं जेहि सन्ता। आप पानी पीते हैं आप पानी का स्वाद इन सबको बता दीजिये। केवल पानी का स्वाद इनको बता दीजिये।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- भइया ठीक कह रहे हैं। सुन लीजिए। हम पानी पीकर के अपना स्वाद बताने वाले नहीं हैं। प्यासे को पानी पिला देने वाले हैं। तो स्वाद खुद जान जायेगा।

२६०. जिज्ञासु:- ये तो वाक् जाल हुआ।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अरे हम देखे हैं और दिखा देने वाले हैं। हम पानी पी रहे हैं तो कोई प्यासा होगा तो पानी पी लो भइया स्वाद जान लो। तो हम वही कहे कि जिसको हम देखे हैं जीव, ईश्वर, परमेश्वर को तो दिखाने का काम कर रहे हैं। हम पानी पी रहे हैं तो किसी भइया को पानी प्यास लगेगा पानी कहेंगे तो सीधे यहाँ क्या सड़क पर ले जाकर पिला देंगे।

२६१. जिज्ञासु:- हाँ, तो महाराज जी आज हम आप सब लोगों को बता रहे हैं कि वास्तव में आप लोग जाओ आशा रहित इच्छा रहित होकर के अपने घर में, महाराज जी कह रहे हैं हमारे आश्रम आइए तो रहिए अपने घर में माँ-बाप की सेवा करके और आशा रहित, इच्छा रहित एक क्षण के लिए हो जाइये ये भगवद् दर्शन हो जायेगा ये माँ गंगा की कसम खाकर के कहता हूँ आपको अवश्य भगवान् का दर्शन ह जायेगा जो कहेंगे प्राप्त कर लेंगे। क्योंकि किसी को दिखाने की क्यों आवश्यकता है? परमात्मा जब खुद दिखाएगा तब लोग देख पायेंगे।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बस हो गया, इतने। इतने में पूरा। अरे भइया जितना में लोग जान-समझ जाये, उतना बोलिए। जितना में लोग जान-समझ जायें कि भगवान् ऐसे मिल जायेंगे। उतना बता दीजिये।

२६२. जिज्ञासु:- तो क्या ये लोग पागल बैठे हैं। इनको इतना समझ में नहीं आया कि आशा रहित, इच्छा रहित हो जाइए तो भगवद् प्राप्ति हो जायेगी। सदानन्द घन की प्राप्ति हो जायेगी। लेकिन ये करेंगे खुद तब इनको प्राप्ति होगी।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अरे भइया ! आप कहते हैं कि पागल बैठे हैं। पागल इस पंडाल में पहुँचेगा, पागल तो आयेगा बड़बड़ायेगा, जायेगा। ये लोग पागल थोड़े हैं। यहाँ तो पा गइल बैठा है। और पाने वाला बैठा है। यहाँ जो पा गइल बैठा है। और पाने वाला बैठा है। यहाँ जो पा गइल है वो बैठा है। और पाने वाला बैठा है। पागल थोड़े बैठा है।

२६३. जिज्ञासु:- पाने के बाद जो गल जाये, उसको पागल कहते हैं। पाने के बाद जो गल जाये उसको पागल कहते हैं।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- इसीलिए न कहे कि पा गइल है इसमें।

२६४. जिज्ञासु:- अब भइया क्या-क्या मिला है देखा दो।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अच्छा उठा दो भइया।
(जिनको भगवान् मिला था उन लोगों ने हाथ उठाया)

२६५. जिज्ञासु:- ये तो बहुत-बहुत धन्यवाद है अगर आपको भगवान् की प्राप्ति हो गई तो। ऐसा भी तो हो सकता है कि ये सब आपके आश्रम के ही हों।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हाँ, आश्रम के तो है ही हैं। आश्रम के तो है ही हैं। आश्रम के नहीं होंगे, संस्था के नहीं होंगे तो कैसे पायेंगे। वो पायेंगे ही नहीं। तो क्या किसी दूसरा आश्रम वाला पायेगा क्या? तो जो पायेगा नहीं वो भी हाथ उठायेगा क्या?

२६६. जिज्ञासु:- जो भगवान् को देखा है वो आपके जैसा इतना बोलता नहीं है। ये बात बिल्कुल सत्य है।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अरे जो भगवान् को देखेगा वो नहीं बोलेगा तो----------
मूकं करोति वाचालं भगवान् वाला ही न है?

२६७. जिज्ञासु:- हाँ, तो आप गूंगे थोड़ी न हैं?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अरे हम भी गूंगे ही जैसे थे जब ढंग ही नहीं था बोलने का। भगवान् का कृपा हो गया, ज्ञान हो गया बोलने लगे।

२६८. जिज्ञासु:- श्री मान् जी के चरणों में प्रश्न मैं धृष्टता पूर्वक समर्पण करना चाहता हूँ।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं, नहीं, धृष्टता तो शब्द ही नहीं है। मैंने भइया को आदर से बुलाया है। भइया को जो लगे अपना रखे इसमें कोई धृष्टता नहीं, मैं इसको धृष्टता मानता ही नहीं।

२६९. जिज्ञासु:- शंकर भाष्य में प्रथम वंदना-------

अखण्डं सच्चिदानंदम् अवांग गोचरं आत्मानम् अखिलाधारम् आश्रय वृष्ठ सिद्धये।
पूर्व शंकराचार्य आदि शंकराचार्य महाराज जी ने शंकर भाष्य की जब रचना की है। उसमें अखंड जो अखंड स्वरूप है, सच्चिदानंद स्वरूप है। सच्चिदानंद स्वरूप है अवांग वाणी और मन से जो भी, दृष्टि से जो अगोचर है जिसको हम देख नहीं सकते और जो आत्मानम् अखिलाधारण सभी प्राणीयों के आत्मा के रूप में विद्यमान है सबके अंदर और ये शरीर सारा ब्रह्माण्ड, सारा विश्व अखिल संसार में जो व्याप्त है, अखिलाधारं आश्रये वृष्ठ सिद्धये, उसके शरणागत होकर के मैं अभीष्ट सिद्धि की कामना करता हूँ। जो अखण्ड स्वरूप हैं, सच्चिदानन्द स्वरूप है, जिसको हम वाणी और मन के द्वारा देख नहीं सकते। उस परमसत्ता को आप श्री मान् जी के दर्शन कराते हैं। वी कैसे संभाव्य है। प्रश्न है, शंका है हमको।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की जय sss
आदिशंकराचार्य का ही जो अंतिम में विवेक चूड़ामणि का उन्होने रचना किया, लास्ट में।
उन्होने सोचा कि बहुत से ग्रंथ रचे हैं हम। लेकिन ज्ञानीजनों के लिए तो हमने कोई ग्रंथ नहीं लिखा तो लास्ट में उन्होने ज्ञानीजनों के लिए विवेक चूड़ामणि लिखा। उसमें उन्होने लिखा है------

अविज्ञाते परेतत्त्वे शास्त्रधिस्तु निष्फला। 

यदि आपने उस परमतत्त्वम् को नहीं जाना तो सारा शास्त्रध्ययन व्यर्थ है। समझ में नहीं आयेगा। तो शंकर भाष्य भी हमारे भइया के समझ में नहीं आयेगा। पहले परमतत्त्वम् जानना पड़ेगा। अगला श्लोक उनका है कि—
शब्दजालं महारण्यम् चित्तभ्रमण कारकम् । 
ये शास्त्र जो हैं, ये ग्रंथ जो हैं एक जैसे महान् वन होता है, वैसे ही इतने सघन जाल के रूप में पड़े हुये हैं कि जैसे कोई महान् वन में घुस जाये अनजान अवस्था में तो भटक जाता है। उसी तरह से कोई ज्ञानहीन व्यक्ति जो परमतत्त्वम् को नहीं जानता है वो शास्त्रों में पढ़ेगा तो भटक जायेगा।
अतः प्रयत्नात् ज्ञातव्यम् तत्त्वज्ञान तत्त्वम् आत्मनः । 

इसलिए हर प्रकार से प्रयत्न करके, इसलिए हर प्रकार से प्रयत्न करके किसी तत्त्वदर्शी सत्पुरुष से सबसे पहले ज्ञान अर्जित करना चाहिए। सबसे पहले तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए और तब जो शास्त्र पढ़िए।  तो हम कहेंगे कि भइया को पहले परमतत्त्वम् को जानना चाहिए। हाँ, मन-वाणी की बात जहाँ तक कह रहे हैं तो कहाँ मैं कह रहा हूँ कि मन, वाणी से दिखाता हूँ? कहाँ लिखा है कि ये अदृश्य है? हाँ है लिखा अदृश्य है लेकिन किसके लिए अदृश्य है जो नहीं जाना-देखा। हम तो दृश्यमान कहते हैं, हम जो दर्शन की बात कहते हैं वो ऐसा दुनिया का कोई ग्रंथ नहीं है जो समर्थन न करे। सब ग्रंथों से समर्थित है। आदिशंकराचार्य जी के ग्रंथों से समर्थित है।

२७०. जिज्ञासु:- गीता में लिखा है-----

सर्व धर्माणि परित्ज्ये मामेक शरणं ब्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।। 

भगवान् ने गीता में कहा है कि सर्व धर्माणि परित्ज्ये मामेक शरणं ब्रज। मामेक शरण ब्रज, मात्र मेरे शरण में आ जाओ, और इस सांसारिक माया में लिप्त रहकर के हम परमात्मा के पास जा नहीं सकते तो वो जो परमतत्त्वम् है, क्या परमतत्त्वम् माया से परमब्रह्म से परे है क्या?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- परमब्रह्म ही तो परमतत्त्वम् है।

२७१. जिज्ञासु:- तो परमब्रह्म को जो हम पा जायेंगे तो परमतत्त्वम् की आवश्यकता क्या रह जायेगी?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- लेकिन परमब्रह्म मिले तब तो उनको पाने के लिए ही तो परमब्रह्म पाना माने परमतत्त्वम् पाना। परमतत्त्वम् पाना माने परमब्रह्म पाना। परमब्रह्म परमतत्त्वम् अलग-अलग वस्तु का नाम थोड़े है। जो परमब्रह्म है वही मूलतः परमतत्त्वम् है। परमतत्त्वम् ही तो जो मूलतः परमतत्त्वम् है, वही परमात्मा है, परमेश्वर है, खुदा है, अल्लाहतsला है, गॉड-फादर है, सुप्रीम लाँड है, सुप्रीम सोप्रेन है, सुप्रीम आलमाइटी है, भगवान् है। तो परमतत्त्वम् और ये सब अलग-अलग थोड़े है। परमतत्त्वम् को पाने के लिए ही तत्त्वज्ञान की जरूरत है।

२७२. जिज्ञासु:- वस्तुत: हम परमतत्त्वम् की आश्रय के लिए कौन सा साधन करना चाहिए?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- भगवान् की शरण में हो जाइये। पहले तत्त्वदर्शी सत्पुरुष खोजिये। तत्त्वदर्शी सत्पुरुष यदि मिल जाता है तो भली प्रकार दण्डवत् प्रणाम, सेवा-सुश्रुवा करते हुये उसको प्रसन्न मुद्रा में देखते हुये, निष्कपटा भाव से प्रश्न कीजिये। तब वो--------

उपदेक्ष्यंति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शीन:।। 
पहले आप गीता अध्याय ४ श्लोक ३४ देख लीजिए। 
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। 

ये आपके लिए है। जब ऐसा आप कर देंगे तब उपदेक्ष्यंति ज्ञानेनं तत्त्वदर्शीन: तब वो तत्त्वदर्शी जो सत्पुरुष है आपको उस तत्त्वज्ञान का उपदेश कर देंगे।

२७३. जिज्ञासु:- देवी भागवत् में लिखा है कि विष्णोर्माया भगवते सब मोहितं  जगत साक्षात् विष्णु की ही माया है जो सारे संसार को अपनी माया से सम्मोहित कर रखी है। 



सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बिल्कुल सही है।

२७७. जिज्ञासु:- तो इस सारे संसार में वर्तमान युग में इस भू-तल पर माया से परे कौन सा जीव है? और माया से परे नहीं है तो परमतत्त्वम् को जान ही नहीं पायेगा। अगर माया से आप युक्त नहीं हैं तो।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- भगवान् और भगवान् के चरण-शरण में जो प्राणी है उसके लिए माया कुछ नहीं है।

२७८. जिज्ञासु:- ये सब माया नहीं तो और क्या है?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- भाई! हमको क्यों बात कर रहे हैं? हम पहले अभी भइया से बताये हैं कि हमारे पास भगवान् है, हमारे पास परमात्मा-परमेश्वर है। जो मायापति है, लक्ष्मीपति है तो भगवान् हमारे पास है तो लक्ष्मी, माया कहाँ जायेगी ये लोग? वो तो यहीं रहेंगी। वो घूमे-फिरेंगे कहीं ठहरेंगे तो भगवान् जी के पास ही आयेंगी।

२७९. जिज्ञासु:- जो अवागं मनस गोचर है वो किसी के वश में रह सकता है क्या? जीव प्राणी के?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अवागं  मनस गोचर है ऐसा कोई भी ब्रह्माण्ड में क्या कि जो भगवान् के वश के बाहर है?
ऐसा भी कोई कुछ है क्या जो भगवान् के वश के बाहर है?

२८०. जिज्ञासु:- भगवान् के वश में माया है। माया के वश में आप हैं। तो माया से परे होंगे तभी हमको परमतत्त्वम् की प्राप्ति होगी।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- भगवान् के वश में माया है। माया के वश में आप हैं। तो आपको वश में रहना ही है तो माया छोड़कर भगवान् के वश में हो जाइये।

२८१. जिज्ञासु:- तो माया छोड़ेगी तो परमात्मा-परमब्रह्म मिलेंगे तब तो।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- आप छोड़ने का संकल्प लेकर हमारे सम्पर्क में हो जाइये। हम छुड़ा देंगे।

२८२. जिज्ञासु:- माया छूट जायेगी?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- छूटेगी ही छूटेगी।

२८३. जिज्ञासु:- माया तो छूटना यहाँ तक होता है कि आदमी शुकदेव जैसे शुक्राचार्य जन्म लेकर के लंगोट तक त्याग दिया। ऐसे तो माया छोड़ने वाले कोई नहीं है सब रखे होंगे अपने पास में। कौन माया छोड़कर आये हो भइया। सब नहीं रखे हो तब।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- फिर वही बात। हमसे बात कर रहे हैं भइया। कहाँ लक्ष्मण हनुमान, कहाँ अर्जुन ये सब पैसा छोड़ दिये थे? राजजी रूप में तो थे। भगवान् के जब होकर रहेंगे टीपी पैसा छूटेगा कि लक्ष्मिनिया हमारे छोड़ने पर भी पीछे-पीछे सटी रहेगी।

२८४. जिज्ञासु:- भगवान् ने कहा सर्व धर्माणि परित्जये मामेक शरण ब्रज।
वो तो दूसरे धर्म का आश्रय ग्रहण करने के लिये कहते ही नहीं भगवान् अपने गीता में अठारवें अध्याय में कहा।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- भगवान् कह रहे हैं कि मेरे शरण में आ जा, सब धर्म छोड़कर। तो भगवान् के शरण में बुला रहे हैं न, तो आप भगवान् के शरण में हो जाइये।

२८५. जिज्ञासु:- धर्म तो छोड़ना पड़ेगा न?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- जो माता धर्म, पिता धर्म, देव धर्म, कौन धर्म, कौन धर्म ये जो पचास गो पाले हैं वो तो छोड़ना ही पड़ेगा।

२८६. जिज्ञासु:- तो कौन सा धर्म ग्रहण करें?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- भगवान् वाला।

२८७. जिज्ञासु:- भगवान् वाला कहाँ पर प्राप्त है?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- भगवान् के यहाँ।

२८८. जिज्ञासु:- भगवान् के यहाँ पहुँचे कैसे महाराजश्री?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- जो तत्त्वदर्शी है वो जानेगा।

२८९. जिज्ञासु:- तत्त्वदर्शी पहुँचा देगा?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हाँ।

२९०. जिज्ञासु:- तत्त्वदर्शी के पास हम कैसे पहुँच सकते हैं?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- पहुँचे ही हैं, शरण में हो सके तो आपका भाग्य। पहुँच गये हैं भाग्यशाली हैं। न ठहर पायें अभागे हैं। 

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