क्रम संख्या २९१-३१९

२९१. जिज्ञासु:- शास्त्र युक्त है कि----- जनम जनम मुनि जतन कराहीं। अन्त राम कहीं आवत नाहीं।।
जन्म जन्मांतर तपस्या करते हैं अंत में राम मुख से नहीं निकलता। और जीवन में एक दस मिनट के सत्संग से परमात्मा के लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है। मनु-शतरूपा तपस्या किये और ये अगर आप तत्त्वतः दर्शन कराते हैं तो कृतार्थ ओ गई जनता। भगवान् का दर्शन करते ही हम भी कृतार्थ हो गये।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अरे भाई ! हम जिसको भगवान् का दर्शन कराते हैं वो देखता है कि वो कृतार्थ हो गया। उसको दिखलाई देता है कि वो कृतार्थ हो गया। जिसको दर्शन कराते हैं उसको दिखलाई देता है कि वो कृतार्थ हो गया।

२९२. जिज्ञासु:- राम तो कहे कि घटाकाश होता है।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अब लगे वेदान्त पढ़ाने। पहले पढ़ों न भइया। वेदान्त पढ़ों पहले।

२९३. जिज्ञासु:- शंका तो यथार्थ है।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- क्या शंका है?

२९४. जिज्ञासु:- हमको शंका यही है कि परमतत्त्वम् की प्राप्ति कैसे हो?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- तत्त्वदर्शी सत्पुरुष से।

२९५. जिज्ञासु:- तत्त्वदर्शी सत्पुरुषों के पास हम कैसे समझें कि तत्त्वदर्शी सत्पुरुष हैं?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- तत्त्वदर्शी सत्पुरुष जो होगा वो भगवान् मिला देने, दिखा देने, परिचय-पहचान करा देने, मुक्ति-अमरता कृतार्थ होने का बोध करा देना ये सब वो कर लेता है, करा लेगा। आप अपने को समर्पित-शरणागत कर दीजिये, हो जाइये।

२९६. जिज्ञासु:- पूर्ण ब्रह्म परमात्मा का दर्शन हो जायेगा?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- परमब्रह्म परमात्मा का नहीं तो और दूसर परमात्मा होता है क्या?

२९७. जिज्ञासु:- अवांग गोचर का होता है क्या?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- उसी का। जो आप कह रहे हैं।

२९८. जिज्ञासु:- वैसे शंका हमारी यथावत है। आपसे प्रार्थना करना चाहते हैं-

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- जब यथावत है तो क्या प्रार्थना करेंगे? हम कह रहे हैं आपका शंका यथावत क्यों हैं? इसलिए कि आपको समर्पण करना नहीं है।

२९९. जिज्ञासु:- परमतत्त्वम् को तो हम जान नहीं पाये। 

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- परमतत्त्वम् पाने आये हैं तो लौटकर के भाग लेने के लिए क्या? भाई किसी भी कार्य का एक विधान है। जल ही है तो उसका एक विधान है पीने का। ऐसा कोई चीज ब्रह्माण्ड में नहीं है जो बगैर विधान के प्राप्त हो। तो परमतत्त्वम् पाने का एक विधान है जो आपको बतला रहे हैं। उस विधान से गुजर कर के प्राप्त कर लीजिये। अब आप कहे कि हम आये हमको नहीं मिला, परन्तु हम आये और कुर्सी पर बैठे हमको परमतत्त्वम् नहीं मिला। मेरा शंका-समाधान नहीं हुआ।

३००. जिज्ञासु:- हम वेदान्त के पहले प्रश्न पर आ रहे हैं उसी पर हम चल रहे हैं कि जो घटाकाश है.......

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- वेदान्त माने क्या होता है?

३०१. जिज्ञासु:- वेदान्त जो वेद का है उसका अन्त हो जाता हो जाता है वहाँ पर उसकी वेदान्त परमतत्त्वम् को जो परमतत्त्वम् होता है, वो परमतत्त्वम् को सीमा को बतलाता है। वही तत्त्व बतला देता है वेदान्त।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- वेदान्त आप बोलेंगे?

३०२. जिज्ञासु:- आप बोलिये।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- तत्त्व हम दिखला रहे हैं, तत्त्व हम मिला रहे हैं तो बार-बार वेदान्त आप बोल रहे हैं। हम तो एक बार भी वेदान्त नहीं बोले।

३०३. जिज्ञासु:- नहीं तो हम तो प्रश्न वेदान्त से ही किये हैं।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- सवाल है आप वेदान्त जानते ही कहाँ हैं? भइया ! आप जानने के लिए तो तैयार होइये। हम जना-मिला देंगे।

३०४. जिज्ञासु:- हमारी वेदान्त कहता है कि जैसे घटाकाश है..........

संत ज्ञानेश्वर जी:- अरे भाई ! वेदान्त पढ़ने  के लिये पहले ज्ञान चाहिए। प्रज्ञाहीनस्य पठनं यथाअंधस्य च दर्पणम्। किसी ज्ञानहीन व्यक्ति का ग्रन्थ पढ़ना वैसा ही है जैसे अन्धे द्वारा  दर्पण देखना। जब अंधा ही है तो दर्पण क्या देखेगा? भगवान् विष्णु की वाणी है। ज्ञानहीन पुरुष ग्रन्थ क्या जानेगा?

३०५. जिज्ञासु:- जब चक्षु नहीं होती तो हम वेदान्त से प्रश्न ही नहीं करते।

संत ज्ञानेश्वर जी:- हम अब भी कह रहे हैं कि चक्षु नहीं है। चक्षु रहता, चक्षु रहता तो दिख रहा होता। चक्षु रहता तो दिख रहा होता।

३०६. जिज्ञासु:- वेदान्त कहता है कि जिसे घटाकाश जो तत्त्व दर्शन कर लेता है वो स्वयं उसमें मिल जाता है।

संत ज्ञानेश्वर जी:- अरे भाई ! ऐसा ही होता है। तो तत्त्व का ज्ञान प्राप्त करता है। परमतत्त्वम् आत्मतत्त्वम् अद्वैत्तत्त्वम् भगवत्तत्त्वम् जब प्राप्त होता है तो दिखलाई देता है कि जो दर्शन करता है, प्राप्त करता है, वह ब्रम्हाण्ड सहित उसी में प्रविष्ट रहता है। ये दिखाई देता है। जो भी दर्शन करता है अपने आप को उसमें प्रविष्ट हो जाता है। ऐसा दिखाई देता है।

३०७. जिज्ञासु:- यशोदा ने परमात्मा के मुख में देखा कि ब्रम्हाण्ड अपने मुख में दिखाया।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अब जिसे मिलेगा मुख में ही मिलेगा।

३०८. जिज्ञासु:- मुख में दिखाया भगवान ने।

सन्त ज्ञानेश्वर जी :- अरे भाई ! यहाँ भी मुख ही में मिलेगा देखने को।

३०९. जिज्ञासु:- इसके बाद उन्होने प्रार्थना किया कि हमारे माया को ख़त्म कर देना।

सन्त ज्ञानेश्वर जी :- यहाँ भी माया ख़त्म करने के लिये प्रार्थना लोग करते हैं, यहाँ यहाँ माया ख़त्म करके और भगवान के साथ कर दिया जाता है।

३१०. जिज्ञासु:- तो परमात्मा ने तुरन्त यशोदा को अपने ब्रम्हाण्ड का दर्शन मुख में कराकर के माया से तुरन्त मुक्त कर दिया।

सन्त ज्ञानेश्वर जी :- हाँ भाई, जो नहीं चाहता है माया से मुक्त होकर के बैठा है। बहुत इसी में बैठे हैं।

३११. जिज्ञासु :- वेदान्त कहता है कि जैसे घटाकाश होता है भग उसके ऊपर रखा होता है। तो उसके आगे....

सन्त ज्ञानेश्वर जी :- अब तो हम स्वीकार कर रहे हैं वही होता है। भइया ! जो-जो बोलेंगे ऐसा होता है, तो वैसा होता है, ऐसा होना चाहिए तो ऐसा होता है। ऐसा हो गया तो वही मिलता है। अब मिलने वाले से आप पूछिए यही मिलता है कि नहीं मिलता है।

३१२. जिज्ञासु:- पूज्य सद्गुरु जी से यह पूछना चाहते हैं कि पूर्व तत्त्वज्ञानी विष्णु, राम, कृष्ण तिलक लगाते हैं आप क्यों नहीं लगाते हैं?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय ! हमको लगता है कि भगवान् तिलक लगाये भी, न लगाये भी, उनका भक्त लोग, पुजारी लोग तो तिलक लगाइ-बनाइ देते हैं। तिलक लगाने का कुछ अर्थ होता है। खास करके यह आत्मा वालों के लिए है। परमात्मा वाला, परमात्मा वाले ज्ञानी जन तिलक लगावें, नहीं लगावें, ऐसा कोई नियम-विधान नहीं है। ज्ञानी जन के जीवन के लिये कोई नियम विधान नहीं होता है। दुनिया के कोई भी ग्रन्थ नहीं है कि ज्ञानी के रहन-सहन को किसी भी विधान में बांध दे।ये भगवान् विष्णु, राम, कृष्ण तिलक नहीं लगाते थे, उनके लोगों ने उनको तिलक लगा दिया। हमें भी कोई लगा देता है तो लगवा लेते हैं, मना नहीं करते हैं। आप भी तिलक लगाने आयेंगे तो मैं मना नहीं करूँगा। सीधे आगे सिर कर दूँगा, भले ही बाद में उसको पोंछ-पाछ दें, क्योंकि हम तिलक वाले नहीं है।

३१३. जिज्ञासु:- दूसरे पूर्व के तत्त्वज्ञानी है, यह लोग महाराज श्री वह लोग तत्त्वज्ञानी नहीं हैं, तत्त्वज्ञान दाता हैं। पूर्व का तत्त्वज्ञान दाता भगवान् है, वह जो है दिव्य दृष्टि, तत्त्व दृष्टि दूर बैठाकर देते हैं।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- मुझे भी जब दर्शन कराना होगा जिस दिन जीव दर्शन कराना होगा, सूक्ष्म दृष्टि देकर के ही जीव दर्शन कराऊँगा । जिस दिन आत्मा-ईश्वर-शिव-ब्रह्म का दर्शन कराना होगा, दिव्य दृष्टि देकर के दर्शन कराऊँगा । जिस दिन परमात्मा-परमेश्वर-खुदा-गॉड-भगवान् का दर्शन-परिचय-पहचान होगा ज्ञान दृष्टि देकर के ही कराऊँगा।

३१४. जिज्ञासु:- दिव्य दृष्टि दूर से दिया जाता है कि माथा पकड़ करके। दिव्य दृष्टि, अभी सारे बहुत सम्प्रदाय हैं भौतिक जगत् में, तो कहाँ से दिखाते हैं?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं, नहीं, हमारे यहाँ ऐसा कुछ नहीं हैं। हमारे यहाँ ऐसा कुछ नहीं हैं। हमारे यहाँ सीधे आपको बतला दे रहा हूँ शंकर जी का मूर्ति फोटो देखा है आपने? उनके पास तीसरा नेत्र हैं देखा है आपने? वही तीसरा नेत्र देता हूँ। उसी से सारा दर्शन कराता हूँ। न इधर दबाता हूँ, न उधर दबाता हूँ।

३१५. जिज्ञासु:- समय की परिभाषा क्या है? क्या सरल मस्तिष्क वाला है समय?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- काल, कर्म तो माया क्षेत्र में होते हैं। इसमें काल, कर्म कैसा? यह तो अकाल पुरुष वाला है, धर्म वाला है। काल, कर्म तो माया के क्षेत्र में होता है। काल कर्म परमेश्वर के यहाँ कहाँ है? वह तो अकाल पुरुष है, धर्म वाले हैं।

३१६. जिज्ञासु:- समाधिस्थ अवस्था क्या है?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- जीव जब आत्मा को पाकर के जब आत्मा में स्थित हो जाता है उस आत्मा में स्थित का नाम निर्विकल्प समाधि या सबीज समाधि या सम्प्रज्ञात समाधि तथा दूसरा निर्विकल्प समाधि या निर्बीज समाधि या असम्प्रज्ञात समाधि। यही असली समाधि है। जब तक अलग रह करके हम कुछ सीन देख रहे हैं, तब तक सभी सम्प्रज्ञात समाधि है, सुविचार समाधि है। यह दोष पूर्ण है, तो समाधि की दो प्रकार होते हैं। सविचार और निर्विचार, सविकल्प और निर्विकल्प यानी सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। तो पहले समाधि जो सविचार, सविकल्प, सम्प्रज्ञात वाला है यह दोष पूर्ण है। असली समाधि निर्विचार, निर्विकल्प, असम्प्रज्ञात वाला है। इसमें जीव का आत्मामय स्थिति में हो जाता है। जब जीव आत्मामय स्थिति में हो जाता है और ठहरता है उसका नाम है असली समाधि।

३१७. जिज्ञासु:- यहाँ हमारे जितना ऋषि-महर्षि हुये हैं यह सब कहते हैं। ईश्वर कण-कण में व्याप्त है यदि ईश्वर कण-कण में व्याप्त है तो वह हमें कैसा दिखाई पड़ेगा और हमें ईश्वर की दर्शन कैसे हो सकता है। इसके विषय में...........

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- पहले तो मैं इस मान्यता को ही नहीं स्वीकारता कि ईश्वर और परमेश्वर कण-कण में होता है। कण-कण में तो जीव ही नहीं होता है, ईश्वर-परमेश्वर कैसे हो जायेंगे। यह जो धारणा हैं बिल्कुल झूठी और काल्पनिक हैं चाहे जिस किसी ऋषि-महर्षि, योगी-यति, आलिम-औलिया, पैगम्बर, प्रोफेट्स सारा ने मान्यता दिया गया हो बिल्कुल झूठा और कल्पना पर आधारित है। सच्चाई इसमें कुछ नहीं है, क्योंकि परमात्मा कण-कण तो छोड़ दीजिये धरती पर ही नहीं होता है। इस ब्रह्माण्ड में नहीं होता है। वह तो बियोंड यूनिवर्स होता है। वह तो इस ब्रह्माण्ड से परे समय पर-----जब-जब होई धरम की हानि, बाढ़ें असुर अधम अभिमानी.........तब-तब जब-जब और तब तब धरी प्रभु मनुज शरीरा..........

३१८. जिज्ञासु:- हरि ब्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मै जाना।। इसमें हरि से कितना प्रेम हुआ जाये तो प्रकट हो जाते है।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- ऐ भइया ! देखिये दो समय है एक समय है अवतार बेला का। दूसरा समय है अवतार रहित बेला। अवतार रहित बेला में आत्मा का महत्व व्यवहार में श्रेष्ठ मानी जाती है। हालांकि भक्ति-सेवा उससे श्रेष्ठ है लेकिन व्यवहार में आत्मा वाले श्रेष्ठ घोषित कहलाया जाता है। क्योंकि यहाँ साधना होती है दर्शन होती है ईश्वर का। इसलिए वह श्रेष्ठता के मान्यता में आ जाता है। ऐ शंकर जी हरि व्यापक सर्वत्र समाना कब कहे थे उस समय को देखिए किसी भी चित्र का सही अर्थ भाव आपको देश काल परिस्थिति के आधार पर मिलेगा। मनमाना नहीं। यह कब का है तो दोहा, चौपाई आप इसको गौर कीजिये। चारों तरफ धरती बेचारी देखी---धर्म वाले ही अधर्म करने लगे हैं। ऐ धरती बेचारी देखी कि अतिसय देखइ धर्म की ग्लानि। परम सभीत धरा अकुलानी।।
धरम परमप्रभु परमेश्वर की विधान होता है धर्म जो है ईमान, सच्चाई, संयम से चलने वाला जीवन-विधान है। धर्म जो है परमप्रभु परमेश्वर का सत्य-प्रधान दोष रहित विधान है। वह विधान जब लुप्त होने लगता है। उस सत्य विधान की जब हानि होने, ग्लानि हों लगती है तो धरती बेचारी व्याकुल हो जाती है कि धरती को भरण-पोषण के लिये परमप्रभु परमेश्वर ने बनाया साधु, सज्जन के लिये, सयंमी के लिये, दुर्जन इसको कब्जा कर लेते हैं। दुर्जन इस पर कब्जा कर लेते हैं तो धरती बेचारी परेशान हो जाती है। देखइ सकल धर्म बिपरीता। कहहि न सकइ रावण भयभीता।। जितने ऋषि-महर्षि होते हैं सब भक्ति सेवा करने के लिये भगवान् ही बन जाते हैं। आज हजारों भगवान् जी हैं। आपके मेला में पण्डाल में हैं, जानकारी जीव की भी नहीं है, उल्टा धरम में चल रहे हैं यानी विपरीत धर्म अपना रहे हैं। आये जनमानस के कल्याण के लिये जनमानस का धर्म धन दोनों शोषण करने में लगे हुयें हैं। सारे के सारे पण्डाल वाले जो कोई कहे न मैं प्रमाणित करके बतला दूँ। सरकार दे रही है, हम लोगों को टेंट पडाण्ल आने वाले स्नार्थियों के सहायता-सहयोग के लिये है। इसी पण्डाल में रहने का भाड़ा-किराया लिया जा रहा है। इन्ही गुरु महात्मा लोगों द्वारा, इन्ही धर्मात्मा लोगों द्वारा। यानी ठहरने का पैसा लिया जा रहा है खाना दे रहे हैं जनता सेवा करने के लिये उस खानवा के पैसा महात्मा जी लोग ले रहे हैं। यहाँ रहने का भाड़ा किराये वसूल रहे हैं। टेंट दिया सरकार ने जनता के सेवा करने के लिये, टेंट में रहकर जनमानस से पैसा वसूल रहे हैं। यह विपरीत धर्म है। यह सब धर्म नहीं है। धर्म माने हम जनता का कल्याण सोचें धर्म माने हम जनता के सेवा जनता के सहयोग सोंचे यानी धर्म वह नहीं है कि अपने कैम्प में आने वाले जनता को कैसे दोहन-शोषण करें कैसे धन वसूलें। ये कभी धर्म नहीं रहा।  उस समय का ऋषि-महर्षि जी लोग भी करने लगे। जो चेला उनके शरण में आया इसको अपने में फँसाकर के एक बार भी भगवान् के तरफ एक बार भी उन्होंने मुड़ने नहीं दिया। वशिष्ठ जी के बहुत शिष्य चेला थे एक से उन्होंने नहीं कहा---राम भगवान् जी हैं स्वीकार कर लो, एक चेला को राम जी के तरफ नहीं मोड़ें जबकि अपने गुरुवाई अपने क्षमा-प्रार्थना करते हुये हाथ जोड़कर के रामजी के चरण-शरण, भक्ति-सेवा किया लेकिन किसी शिष्यों को नहीं रामजी के पास जाने दिया। यही याज्ञवल्य ने किया, यही भारद्वाज ने किया यही बाल्मिकी ने किया, वहीं अगस्त सारे मुनियों ने किया। किसी भी ऋषि-महर्षि-ब्रहर्षि ने अपने किसी शिष्य को भगवान् के तरफ नहीं मोड़ा, अपने भगवान् बनकर के भटकाये रखा। आज भी ऋषि लोग यही कर-करा रहे हैं लाखों शिष्यों को फंसाकर के ठग रहे हैं। जानकारी जीव की भी नहीं है वसूली उसका सब कर रहे हैं। यह सब विपरीत धर्म हैं। ऐसे धर्म को देखकर पृथ्वी परेशान हो जाती है। अब सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावण भयभीता।। रावण के भय से विपरीत धर्म करने वालों को रावण सरंक्षण देता था। सही धर्म में चलने वालों को मार-काट कर के फेंक देता था यानी विपरीत धर्म वालों को सरंक्षण देता था धर्म निरपेक्ष दरोगा जी, एस॰पी॰साहेब इस समय के तरह से तैयार है, खबरदार जो जैसा करेगा, धर्म करेगा जो मन करेगा वही धर्म कहलायेगा। खबरदार दूसरे को लेकर दूसरे के पण्डाल में मत जाना। लूटो, मिलो बांटो, खाओ। शान्ति बनाये रखो, हल्ला होना नहीं चाहिये। शोर नहीं मचना चाहिये। तुम ठीक हो, सही हो। उनको मतलब है शान्ति से। क्योंकि सरकार वही चाहती है धर्म-निरपेक्ष संविधान है संविधान के नियम का पालन करना है। अब लीजिये यह हजारों पंडाल क्या है? लूटने का तो बहाना है। सत्य तो एक था एक रहने वाला है। अब सब लोग सत्य खोजिये वह एक ही को संचालन में सब होती, लूट-पाट नहीं होता। पैसा-रूपया प्रधान नहीं बनता, प्रधान बनता जनकल्याण प्रधान बनता है। जनता के सेवायें प्रधान बनती हैं। उनका सहयोग तो आज हम क्या कर रहे हैं? आप सभी ऋषि-ब्रह्मर्षि-महर्षि सब लोग भगवान् बनकर के बैठे थे। धरती बेचारी सामान्य तो थी वह जब चलने लगी तो ऋषि-महर्षि-ब्रह्मर्षि लोग छोड़कर के भागने लगे जो मिला वह कह रहे हैं भगवान् मिला है। एक ऋषि-महर्षि-ब्रह्मर्षि कह दे कि भगवान् मिला है। एक नहीं मिला। नारद बाबा मिले नारद बाबा धरती पर अपना परमप्रभु का पता बताओं मैं उनकी पुकार करना चाहती हूँ। आज मुझे यह भार सहन नहीं हो सकता है। यह धर्म की ग्लानि, यह विपरीत धर्म की व्यवस्था, मुझे परमप्रभु का पता बताओ। मैं उनको पुकार करूँगी, वह आकर के मेरी रक्षा करेंगी, भार हरेंगे। नारद जी बोल गए पता नहीं। चलो-चलो ब्रह्मा जी बतायेंगे, सृष्टि के रचयिता हैं। ब्रह्मर्षि भी साथ में हुये धरती बेचारी गो रूप धरी साथ में नारद बाबा भी साथ ही गये। सब मिलकर गये ब्रह्माजी के पास। ब्रह्मा जी दूर से ही नारद बाबा, ब्रह्मर्षि, धरती बेचारी को देख लिये।सब मिलकर गये ब्रह्माजी के पास। पहले से ही समझ गये कि काम तो गड़बड़ा गया। हम भी प्रभु जी को नहीं जानते, चलो, चलो, चलो, चलो शंकर जी के पास चलो वही बतायेंगे परमप्रभु के विषय में। बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय ! अब ब्रह्मा जी, सुरेश (इन्द्र), नारद बाबा और कुछ ब्रह्मर्षि सब लोग मिलकर के चल दिये। महादेव जी के यहाँ, शंकर बाबा के यहाँ और भी देवी-देवता साथ हो लिये। अब सभा होने लगा। सभा होने लगा। शंकर जी ने कहा वह परमप्रभु कहाँ मिलेगा? कैसे पुकारा जाय? तो सभा का अर्थ होता है हर किसी को बोलने को छूट मिलता है। सब का मतलब होता है जो जानकार होता है उसको सभा में बोलने का मौका दिया जाय। वही सभा में भी हुआ। बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा।। सब देवी-देवता, ऋषि-महर्षि मिलकर के विचार करने लगे। वह परमप्रभु कहाँ मिलेगा ताकि हम उसका पुकार करें, तो कोई कह रहे हैं पुर बैकुंठ में रहता है उसी में कोई कहा ना, ना, ना कोई कह रहा है भाई ! बैकुंठ वाला नहीं है वह क्षीरसागर में सोया है न, क्षीरसागर में जो सोया है वही परमप्रभु है। उसी में कोई कहा------जाके ह्रदय भगति जसि प्रीती। प्रभु तहँ प्रगट होहि तेहि रीती।। वह तो सबके ह्रदय में रहता है जैसे धरती है वैसे ही परमप्रभु प्रकट होता है। सब लोग ऐसे-ऐसे अपने मत देते रह गये। अन्त में पंक्ति बारी महादेव जी का हो गया, शंकर जी सर्टिफिकेट भी दे रहे हैं।
हे गिरिजा ! उस समाज में मैं भी था, मुझे भी एक वचन बोलने का मौका मिला। हरि ब्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहि मैं जाना।। तो वहाँ शंकर जी बोल रहे हैं कि हरि हरि व्यापक सर्वत्र समाना। क्योंकि उस समय शंकर जी आत्मा वाले थे, शंकर जी आत्मा वाले हैं, परमात्मा वाले नहीं हैं। आत्मा एक रोशनी है जिसका प्रकाश चारों तरफ फैला हुआ है वैसे ही परमात्मा परम आकाश रूप परमधाम में रहता है और उसका दिव्य ज्योति, अलिमे नूर, स्व-प्रकाश चारों तरफ ब्रह्माण्ड मे फैल जाता है तो अभी तो शंकर जी आत्मा वाले थे आत्मा वाले व्यापकता की बात कर दिया। जब वही शंकर जी जब राम रूप में यानी सर्वव्यापी थे तो शंकर जी, ब्रह्मा जी, इन्द्र जी, द्गारती महर्षि-ब्रह्मर्षि ये पुकार किसका कर रहे थे? जय सुरनायक ! जन सुखदायक ! यह पुकार किसका हो रहा है जब भगवान् व्यापक है ही तो। ऊपर से आदेश हो रहा है।
गौर कीजियेगा जिसमें देवराज इन्द्र हैं, इसमें सृष्टि के महानिरीक्षक नारद बाबा हैं जिसमें सृष्टि के संहारक शंकर जी हैं। देवता और पृथ्वी को भयभीत जानकर उनके करुणा युक्त बचन सुनकर शोक सन्देह हरने वाली आकाशवाणी ऊपर से हुई।
जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेशा।
तुम्हहिं लागि धरिहऊँ नरबेसा।।
अंशन्ह सहित मनुज अवतारा।। 
इससे स्पष्ट होता है कि भगवान् न तो सर्वत्र, न कण-कण न घट-घट में है न उनको कोई जानता है बल्कि वह परमधाम से अवतरित होकर मनुष्य का शरीर धारण करते हैं।
यह आकाशवाणी आ रही है वह कौन हैं? जो इन्द्र को, ब्रह्मा को, नारद को, ब्रह्मर्षियों को शंकर जी को कह रहे हैं कि डरो नहीं, डरो नहीं, तुम्हारे लिये हि धरहूँ नर भेषा। वे लोगों को कह रहे हैं कि तेरे लिये मैं आ रहा हूँ। नर वेष धारण करके आ रहा हूँ, यह कौन था? आगे आइये 1-2 लाइन और जब राम जी के रूप में भगवान् का अवतार हो जा रहा है। भगवान् जी राम जी के रूप में विचरण कर रहे हैं राम लक्ष्मण जा रहे हैं। शंकर जी सती के साथ कह रहे हैं। वह शंकर जी क्या कह रहे हैं? जय सच्चिदानन्द ! जगपालन ! शंकर जी स्वयं कह रहे हैं जय सच्चिदानन्द जगपालन हार। सती को आश्चर्य लग रहा है। महादेव हि जगदीश हि शंकर जी है महेश्वर हि ये जो दशरथ के राजकुमार को नमस्कार प्रणाम कर रहे हैं वह जान समझ नहीं पाई। जय सच्चिदानन्द जगत पालनहारे। शंकर जी सच्चिदानन्द को कहाँ देखा राम में। सर्वव्यापकत्व की परिभाषा समाप्त हो गयी। आगे क्या कहा अमर गाथा गाने के बाद राम, रामेति रामेति.............राम नाम वरनने।। राम ने वह सर्वव्यापी का भ्रम समाप्त कर दिये। जब नहीं रहता है न लेकिन वास्तव में भगवान् का ज्ञान जहाँ होता है वहाँ भगवान् परमधाम, परमआकाश, बिहिस्त, पैराडाइज इंटर्नल पीस का वासी है, सर्वव्यापी नहीं है। सर्वव्यापकता कैसा है अब आप देख लीजिये सर्वव्यापी का अर्थ यह नहीं है कि भगवान् इसी में घुसा है। सर्वव्यापी का अर्थ है पंखुड़ी चारों ओर हाथ-पैर नहीं है। पंखुड़ी को चारों ओर हाथ नहीं है क्या इसका अर्थ यह है कि पंखुड़ी के चारों तरफ हाथ है वैसे ही परमेश्वर ही है। ब्रह्माण्ड परमेश्वर में होता है। ब्रह्माण्ड परमेश्वर में होते हैं। उसमें आप देखेंगे गीता अध्याय 13 श्लोक 13-
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोsक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥
सबको घेर कर स्थित है, वह भगवान है। सबमें भगवान नहीं है। यह व्यापकत्व की परिभाषा है व्यापकत्व माने इसीलिए नहीं व्यापकत्व माने ऐसे यह ब्रह्माण्ड मानिये।  ब्रह्माण्ड के सब ओर भगवान। जब दर्शन भगवान का कराऊँगा तो यही भगवान मिलेगा दर्शन में जिसमें ब्रह्माण्ड हैं। दिखाई देगा जब दर्शन होगा तो दिखाई देगा अपने आप सहित सारा ब्रह्माण्ड उसी भगवान में दिखाई देगा। व्यापकत्व की परिभाषा सर्व आवृत्ति तिष्ठति वाला है। सबमें घुसा हुआ नहीं है।

३१९. जिज्ञासु :- अभी आपके द्वारा बताया गया कि किसी गुरु या महर्षि-ब्रह्मर्षि ने किसी शिष्य को भगवान के पास नहीं पहुँचाया जबकि मतंग ऋषि के आश्रम में सेवरी रहती थी और श्री राम जी के दर्शन हुआ। प्रहलाद को खम्भा से भगवान का दर्शन हुआ। जब जन-कण में व्याप्त नहीं हो सकते हैं। वह खम्भा में से कहाँ से आए। हिरण्यकश्यप ने पूछा – तुम्हारे खम्भा में भी है। हमारे अंदर भी है, तुम्हारे अन्दर भी है क्या? उसमें ईश्वर ने व्यापकत्व दिखाई सब में होता है कि ईश्वर कण-कण में होता है और दूसरी बात आपने बताया।

सन्त ज्ञानेश्वर जी :- बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय ! देखिए भगवान मिलने से पहले प्रहलाद नारद जी का शिष्य था, लेकिन प्रहलाद वह शिष्य नहीं था कि अपने गुरु से चिपका। उस समय प्रहलाद आत्मा वाला था लेकिन उसका संस्कार उसको आत्मा तक ही नहीं सीमित किया। संस्कार प्रबल था प्रहलाद आत्मा वाले को पीछे छोड़कर के नारायण, नारायण नारायण जपना शुरू किया। नारायण पर विश्वास-भरोसा किया। नारायण पर अपने को रख दिया। वह श्रीमन् नारायण वाला बना। अब आप बताइए जिसका पिता त्रेलोक्य विजयी है जो तीनों लोकों का राजा था। राजकुमार हो जिसका पिता अपने क्षेत्र में ईश्वर कहला रहा हो, भगवान अपने को घोषित करके बैठा हो, उसका लड़का भी ईश्वर कहलाता है न ऐसे राज्य को, ऐसा पिता को ठोकर मार दिया, सारे पीड़ाओं को झेला, सारे यतनाओं को झेला श्रीमन् नारायण के नाम से, भगवान के नाम पर। जब तक सहज सामान्य परिस्थिति रहीं तब तक भगवान प्रकट नहीं हुये, रक्षा करते रहे। अब यहाँ दो परिस्थिति आ गई एक तरफ हिरण्यकश्यप वरदान मर्यादा का पालन और दूसरे तरफ प्रहलाद की रक्षा। एक तरफ हिरण्यकश्यप को मिले वरदान की मर्यादा का पालन और दूसरी तरफ प्रहलाद की रक्षा। ये प्रहलाद के लिए भगवान जी खम्भे से प्रकट हुये। ऐसा नहीं है कण-कण में रहने वाले खम्भे से प्रकट हुये। ऐसा नहीं है कण-कण में रहने वाले खम्बे से प्रकट हुये। यह नहीं है भगवान् अपने समर्पित भक्त के प्रति जब जहाँ जैसे परिस्थिति के अनुरूप, तब तहाँ वैसे ही प्रकट हो करके रक्षा करता है अब यहाँ परिस्थिति आई कि हिरण्यकश्यप को घर में मरना नहीं था, घर या घर के बाहर मरना नहीं था, वर था। जब घर बनता है तो सारा बरामदा में खम्बा होता है। वह उरयानी के बगल में होता है। जहाँ बैठा जाये तो न घर कहलायेगा न बाहर। न घर घर में मरना था न बाहर। इसलिये वह खम्बे में आये, न घर कहलायेगा, न बाहर। हिरण्यकश्यप को न दिन में मरना था, न रात में तो सूर्यास्त के बाद जब हल्का सा अन्धेरा होने लगा वह न दिन ही कहलायेगा, न रात ही कहलायेगा। उस सन्धि-बेला में यह आये। इसके बाद हिरण्यकश्यप को वर था कि न आदमी मारे, न जानवर मारे। आधा शरीर आदमी का, सिर सिंह का लिवा आये, नर-सिंह दोनों का संयुक्त रूप होकर आये, न नर कहलाये न जानवर कहलाये। इसके बाद न धरती पर मरे, न आसमान में मरें। इन्हीं परिस्थितियों को देखते हुये खम्बा फाड़कर आये। वहीं बैठ के खींचे जंघा पर लेटा लिये, न धरती है न आसमान और फाड़े। इसका मतलब यह नहीं कि खम्बे में भगवान् था। रोज ही सैकड़ों खम्बा तोड़ा जा रहा है। किसी में तो पैदा नहीं हुये अभी तक, प्रह्लाद को छोड़ कर। रोज ही खम्बा फाड़ा जा रहा है, खम्बा टूट रहे हैं, बन रहे हैं किसी में से तो भगवान् पैदा नहीं हुआ। भगवान् खम्बे में नहीं है। इसका मतलब प्रह्लाद जैसे समर्पित भक्त-सेवक के लिए जब जहाँ जैसे जरूरत पड़ेगी। तब वह वहाँ तैसे ही वहाँ प्रकट हो करके अपने भक्त सेवकों की रक्षा करेगी। वहाँ तो खम्बे से आये। द्रौपदी के लिए तो खम्भें से नहीं आये थे। साड़ी ही हो गये पचासों साड़ियाँ में भगवान् जी हैं। द्रौपदी देख रही थी। अरे ऐ मेरे पांच पाण्डव हैं। इनके सामने ये दु:शासन क्या कर सकता है। जब खीचनें लगा साड़ी तो कुछ बंधा नहीं होता है, खींच दिया तो अब सवाल यह उठ रहा है पाँचों पाण्डव मुँह लटकाये हुये हैं। मुनि जी जहाँ भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य हैं इन लोगों को नहीं दिखाई देता है कि कैसे किया जा सकता है। वह सह नहीं सके, देख रहे है कि सब मुँह लटकाये पड़े हैं, देखिए कि जो महाराज धृतराष्ट्र वह कैसे सहन कर ले। अपने ताकत का भी प्रयोग किया, अपने पास भी तो ताकत थी, देखी कि मैं भी थक रही हूँ, जब सब तरफ से थक गई तब भगवान् कृष्ण को याद किया उसने तब याद किया वह तो जब याद किये क्या स्थिति हो गई। सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है, पता ही नहीं चला। दु:शासन धूल के संकीर्ण में था थक गया अम्बर बन गई वहाँ तो, सारी बन गई तो सब सारी भगवान् जी है। सारी बीच नारी है ऐसा नहीं है। अपने समर्पित शरणागत भक्त सेवकों के लिए भगवान् उसका नाम है जो जब जहाँ जैसे जरूरत होगी वह प्रकट होकर के शरणागत भक्त सेवकों की रक्षा करेगा। उसका अर्थ यह हो गया।

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