क्रम संख्या १५६-१८६

१५६. जिज्ञासु:- एक दिन आपने बताया था कि जो संसार है वह स्वप्न से भी ज्यादा झूठ है?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हाँ, अब भी कह रहे हैं। जो स्वप्न है, वैसे तो स्वप्न झूठ है ही है लेकिन ये संसार जो है वो स्वप्न से भी बद्तर झूठ है। स्वप्न तो इससे बहुत अधिक सच है। स्वप्न तो इससे बहुत अधिक सच है और हर प्रकार से इससे अधिक सच है। ये तो एकदम कुछ है ही नहीं। वो तो कुछ है। स्वप्न तो कुछ है, ये तो कुछ है ही नहीं। ये तो ड्रामा मायाजाल है, मायाजाल है। मायाजाल माने देखने को है, प्रयोग को है, अस्तित्व में कुछ नहीं। मायाजाल माने भवजाल देखने के लिए तो है, व्यवहार के लिए लग रहा है है लेकिन जब अस्तित्व खोजने लगा तो पता चला कुछ नहीं। स्वप्न तो कुछ है इससे बहुत अधिक सच है स्वप्न। बहुत अधिक सच है स्वप्न। हालांकि झूठ वो भी है सच वहाँ भी नहीं लेकिन देखा जायेगा, तुलनात्मक अध्ययन के रूप में देखा जायेगा तो इस संसार से अभूत अधिक बहुत अधिक सच स्वप्न है। हर प्रकार से बहुत अधिक सच है। ये तो १७ को दिखायेंगे। जब १६ से प्रैक्टिकल हो गया तो १७ को दिखलायेंगे कि देखो न कहाँ संसार है? कहाँ इलाहाबाद है? कहाँ तेरा चित्रकूट है? कहाँ तेरा घर-परिवार है? थोड़ा हम भी देखना चाहते हैं थोड़ा हमको भी दिखला दो। कोई जादू-मंतर नहीं होगा। वही वेद-पुराण, रामायण की पद्धतियाँ ही रहेंगी। उससे बाहर का कहीं कुछ नहीं। ऐसा नहीं कि हम कोई जादू-मंतर की बात करेंगे। फेंक कर के करेंगे, अरे जादूमंतर तो उतने देर रहेगा न? जादूमन्तर तो २०-२५ वर्ष नहीं रहेगा न? जो बीसियो वर्ष से लोग चल रहे हैं उनका तीन पीढ़ी, खड़े हो जाइये महात्मा जी। इनकी तो तीन पीढ़ी २३-२४ वर्ष से मेरे साथ सटा हुआ है। तीन पीढ़ी २३-२४ वर्ष से मेरे साथ सटा हुआ है। बैठ जाइये। इनके बाप-माई भी, इनका भाई छोटा भी, इनका परिवार भी, इनकी पत्नी भी, इनके लड़के-बच्चे भतीजे भी, सब इसी आश्रम में ही तो संस्था में ही तो हैं। तीन पीढ़ी लगभग २३-२४ वर्षा से। जादू-मंतर कुछ मिनट-घण्टा के लिए है। कुछ पैसा तन के लिए है। यहाँ किससे हम पैसा माँगते हैं?
इसमें बस वही गीता, उपनिषद्, वेद, पुराण, रामायण, बाइबिल, कुर्रान उसी पद्धति से।

१५७. जिज्ञासु:- स्वामी जी ! माया को जादू कहा जा सकता है न?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हाँ, जादुई खेल तो है ही है। जादुई खेल मायावी खेल है ही है। माया माने झूठा ऐसा खेल जो दिखाई दे व्यवहार में हो लेकिन अस्तित्व खोजोगे तो पता चला कुछ नहीं। जादू भी ऐसा ही है, खेल है। अन्तर इतना ही है कि जादू एक इंसान का खेल है और ये भगवान् का खेल है। वो इंसान का खेल है ये भगवान् का खेल है। उससे थोड़ा ये दुरूह पड़ता है। ये थोड़ा भारी पड़ता है।

१५८. जिज्ञासु:- महाराज जी ! इतना बताइये कुछ लोग पैदा हुये, पैदा होते ही पागल हैं, जन्मजात पागल हैं तो वो कैसे ज्ञान प्राप्त करेंगे?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- तत्त्वज्ञान पाना होता तो पागल ही नहीं होते। वो तो ऐसे ही अक्षम हो गए। हमने कहा भाई पात्रता तो अनिवार्य है न? वो तो ऐसे ही अक्षम हो गये। उनको मिलना ही होता तो पागल होते ही नहीं। प्रकृति ने पहले ही अक्षम घोषित कर दिया।

१५९. जिज्ञासु:- एक बार रघुनाथ बोलाए इसी में आया था----बैठे गुरु द्विज........

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- एक बार रघुनाथ बोलाए। गुरु द्विज पुरवासी सब आए।।
बैठे गुरु मुनि और द्विज सज्जन.........

१६०. जिज्ञासु:- इसमें सभी नहीं बैठे?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- लग तो ऐसे ही रहा है, चौपाई यही कह रही है।

१६१. जिज्ञासु:- इसमें सभी नहीं बैठे?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- यदि हम ये पूछें कि सीता का दूसरा वनवास कैसे हो गया था? उस धोबी को क्या कहेंगे?

१६२. जिज्ञासु:- कहा गया है कि राम राज बैठे त्रिलोका। हर्षित भयउ गयउ सब शोका॥
भयउ न कहूँ काहूँ तन कोई। राम प्रताप विषमता खोई। विषमता सारी समाप्त हो गयी।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अब रही चीजें देखिये जहाँ तक सवाल ये है। अभी-अभी राजनाथ सिंह जब आए थे। तो पूरे दिन के अन्दर ही सारा अपराध सब ठीक-ठाक कर रहे थे उत्तर प्रदेश में। केवल पन्द्रह दिन के अन्दर। घोषित भी कर रहे थे हमने सारे अपराध पर काबू पा लिया है। शायद उत्तरोत्तर अपराध की वृद्धि ही हो रही है। हमारे राम जी के राज्य के विषय में बात जो कहनी है। देखिए आप साफ कपड़ा पहनते हैं तो साफ कपड़ा पहनते हैं तो धूल का कण भी गंदगी महसूस होता है और जब गंदा कपड़ा पहनते हैं तो गोबर भी लग जाय तो सूख जाता है तो मसल देते हैं तो वो छुट जाता है। तो राम का राज्य इस तरह का था कि उसमें जरा सा भी कहीं लिकेज हो जाता था, वो भी आज्ञा में। इतना कठोर नियम लागू किया रामजी ने धोबी के कहने पर। इसको क्या कहा जाय ? आप बता दीजिये। आप अपनी बात रख रहे हैं तो हम भी तो अपनी बात रख रहे हैं। नहीं, उस धोबी को क्या कहा जाए ? जिसके चलते......

१६३. जिज्ञासु:- रामचरित मानस एक सदग्रन्थ है इसमें धोबी का कोई वर्णन नहीं है कहीं पर, अगर हो तो उसको बताया जाय महाराज ।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- रामचरित मानस भक्ति प्रधान ग्रन्थ है। शायद लव-कुश की घटनाएँ रामचरित मानस में राम जी के राज्याभिषेक के बाद कोई मुख्य घटनाएँ नहीं हैं। बस वही स्टाप कर दिया गया है। उसमें से उत्तर काण्ड आ जा रहा है। संकेत दे दिया गया है उसके बाद रामचरित मानस में कुछ है ही नहीं। यदि आगे पूरा देखना चाहते हों तो बाल्मीकि रामायण देखिए या अध्यात्म रामायण देखिए। यदि उसके आगे का राम राज्य गद्दी का उद्धरण देखना चाहते हों तो कोई प्रमुख उद्धरण या तो बाल्मीकि में जाइये अन्यथा अध्यात्म रामायण में जाइये। बाल्मीकि रामायण समकालिक बाल्मीकि जी ने लिखा है और अध्यात्म रामायण जो है शंकर-पार्वती वाला अमर कथा है। अध्यात्म रामायण शंकर-पार्वती वाला अमर कथा है या तो उसको देखिए जो राम जी की ही गाथा है या बाल्मीकि रामायण देखिए। जो समकालिक एक लेखक की चाहे एक ब्रह्मर्षि का लेख है। तुलसीदास तो एक भक्त थे। तुलसीदास तो उतने ही तक राम के राजगद्दी तक ले जाकर स्टाप कर दिया।

१६४. जिज्ञासु:- उसमें जो कुछ लिखा हुआ है सब कुछ सत्य नहीं है?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- देखिए। दुनिया का एक भी ऐसा सद्ग्रन्थ नहीं है जो पूर्णतः सत्य और पूर्णतः असत्य हो। हमने अब तक जहाँ तक पाया है जो भी ग्रन्थ देखने को मौका लगा है, वेद है उपनिषद् है, चाहे रामायण है, कुर्रान है, गीता है, पुराण है, बाइबिल है, पुराण है कोई भी ग्रन्थ अब तक देखने को इस शरीर को मौका लगा है यानी एक भी ग्रन्थ ऐसा नहीं है जो पूर्णतः सत्य हो अथवा पूर्णतः असत्य हो। एक भी ग्रन्थ हमने नहीं पाया है जो पूर्णतः सत्य हो अथवा पूर्णतः असत्य हो।

१६५. जिज्ञासु:- मिक्सिंग है?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हाँ, मिक्सिंग है।

१६६. जिज्ञासु:- आधार तो उसी का लिया जाता है सद्ग्रन्थ का ही। तो सद्ग्रन्थ को उसको कैसे कह दें फिर? जब मिक्सिंग है तो उसको सत्य का........

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- इसलिये सद्ग्रन्थ कहेंगे कि सत्य उसमें है और प्रधानतया है। प्रधानता सत्य कि ही है। यानी उद्देश्य सत्य ही को लेकर उसकी रचना हुई है। इसलिये वो सद्ग्रन्थ है। उपन्यास में सत्य की प्रधानता नहीं होती है। कहानी की प्रधानत होती है। इसलिये उसे सत्य नहीं कहेंगे। साहित्य में साहित्य की प्रधानता होती है। इसलिये उसको सद्ग्रन्थ नहीं कहेंगे। उसको सद्ग्रन्थ नहीं कहेंगे। उसमें सत्य को लेकर ही रचना हुई है, उसमें मिक्सिंग ओमेटिंग भी है, मिक्सिंग भी है, भूल-चूक भी है तो अब उस ओमिटिंग उस छूट के लिए कुछ जुड़ जाने के लिए या कुछ भूल-चूक के लिए सद्ग्रन्थ का अस्तित्व तो नष्ट नहीं हो जाएगा। मान लीजिए हमारे उंगली में कोई घाव हो गया या अंगुली कट गई या समूचा हाथ कट गया, तो इसका मतलब हमारे अस्तित्व में तो ये नहीं होगा कि हम हैं ही नहीं। इसलिये वो सद्ग्रन्थ कहायेगा।
हमारे हम ग्रन्थ लिख रहे हैं तो यानी परमेश्वर के विषय में, ईश्वर के विषय में, जीव के विषय में, हम भक्ति के विषय में लिख रहे हैं तो जितनी हमारी जानकारी है वो तो जा रही है उसमें हमारे भूल-चूक भी जा रहे हैं। तभी कहा गया है वो सद्ग्रन्थ है ही नहीं भइया। ऐसा कहना उचित नहीं होगा।

१६७. जिज्ञासु:- तो महाराज जी ! सद्ग्रन्थ लिखा तो जाता नहीं, लिखवाया जाता है न?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- दोनों बातें हैं। ये बात सही है। अभी-अभी कुछ लिखना शुरू कीजिये धर्म का। अभी आप इसका प्रयोग कर सकते हैं दो-चार पाँच दिन में प्रयोग हो जाएगा। लिखना धर्म के विषय में शुरू कर दीजिये तो प्रारम्भ में लिखना पड़ेगा। एक दो दिन काफी परेशानी होगी। उसी लिखने में एक ऐसा समय आ जाएगा। तो लगेगा कि इतना तेज कोई हमको दे रहा है लिखने के लिए कि हम लिख ही नहीं पा रहे हैं। तो लिखा भी जाता है लिखवाया भी जाता है। दोनों बातें हैं। ग्रन्थ केवल लिखवाया ही नहीं जाता है, लिखा भी जाता है और केवल लिखा ही नहीं जाता है, लिखवाया भी जाता है। दोनों बातें हैं। है सही है कि लिखवाया जाता है, लेकिन लिखा भी जाता है।

१६८. जिज्ञासु:- महाराज जी ! एक प्रश्न और है। ये मृत्यु जो है शरीर की होती है या जीव की?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- देखिए। एक बात है ये शरीर की मृत्यु कहा जाएगा। क्यों? जीव तो मरता नहीं है। जीव का नया शरीर धारण करना जन्म है। जीव का शरीर छोड़कर जाना शरीर की मृत्यु है। जीव की मृत्यु कैसे हो जाएगा?

१६९. जिज्ञासु:- इस तरह से माना कि सभी जीव जो है, अजर और अमर है?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- एक बात गौर करें। इसको अजर-अमर की उपाधि इसलिये नहीं दिया गया कि कष्ट यातनाओं से जहाँ अजर-अमर का लोक है, उस तरह से देखेंगे उस सिस्टम से। चूँकि प्रतिनिधित्व करता है अजर-अमर का ही अंश है, परमेश्वर का सीधा अंश है। परमेश्वर का अंश है वो, ये परमेश्वर से सीधा ईश्वर और ईश्वर से सीधा जीव। तो अंश होने के नाते वो भी मरता नहीं है, वो भी जलता नहीं है, वो भी कटता नहीं है, लेकिन कष्टी है, यातनामय है, शरीरों में आता है, शरीरों से जबर्दस्ती छुड़ाकर ले जाया जाता है। तो इन बातों को लेकर के उसको अजर-अमर की टाइटिल में नहीं रखा गया क्योंकि अजर-अमर की टाइटिल में जाने के बाद वहाँ सच्चिदानंदमय होना-रहना है। वहाँ कोई दु:ख-यातना तकलीफ नहीं रह जाता है। वहाँ किसी दूसरे का शासन नहीं रह जाता है। वहाँ दूसरे के अधीनता और दूसरे के हमारा तड़पन नहीं रह जाता है और जीव इन सभी दु:ख-कष्ट तड़पन से युक्त होता है।

१७०. जिज्ञासु:- जब तक शरीर रहता है तभी तक या शरीर छोड़ने के बाद भी?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं, नहीं, उसकी गति तो शरीर छोड़ने के बाद होती है, देवलोक में।

१७१. जिज्ञासु:- शरीर में रहते हुये जीव की गति..........

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- शरीर में रहने में तो यहाँ मृत्युलोक में होता है। शरीर छोड़ने के बाद उसकी गति होती है, देवलोक में। आप किसलिए गए थे, क्या करके आए हो, इसका असली हिसाब-किताब तो वहाँ होता है। यहाँ तो नकली हिसाब-किताब हैं। इसकी असली दुर्गति तो वहाँ होती है क्योंकि यहाँ तो हम झूठ बोलकर के, छल करके अपने को बचा लेंगे। वहाँ तो ये भी नहीं होगा। यहाँ के हर क्षण की जो विचार कर रहे हैं, जैसे परावाणी हैं, परा, पश्यन्ति, मध्यमा, बैखरि। जब परा में आपका चिंतन-विचार आ रहा है, उसी समय हमको ये करना है अभी करना है। अभी करना है या नहीं, अभी करना है या नहीं, बैखरी में तो अभी आया ही नहीं, मध्यमा में भी नहीं, पश्यन्ति में भी नहीं, अभी परा में आया उसी समय इसकी कापी चली गई, वो सुप्रीम कम्प्यूटर के माध्यम से। और क्या आप सोचेंगे। उसका सारा लेखा-जोखा वहाँ दाखिल हो गया। आपके सामने तो पश्यन्ति से पता चलेगा, पकड़ में आयेगा। आप तो परा से जब पश्यन्ति में आयेगा तब पकड़ेंगे लेकिन परा से ही उसकी फोटोकापी चली गयी, वहाँ आप क्या झूठ बोल सकते हैं? वहाँ सारा लेखा आपके सामने से गुजरेगा और आप केवल यस कहने के लिए मजबूर होंगे। आपके लिए नहीं शब्द ही वहाँ नहीं होगा, केवल यस कहने के लिए मजबूर होंगे। इसलिये असली हिसाब, लेखा-जोखा तो वहाँ होता है। यहाँ क्या होता है? यहाँ तो आपसे कहे, और हम ही झूठ बोल देंगे कि नहीं कहे। बात किनार हो गई। अभी हम आपको गाली दिये हैं और कह दें कि नहीं गाली दिये हैं। बात किनार हो गई। वहाँ ये नहीं होगा कि हम नहीं किए हैं। वहाँ सामने फोटो रील निकल रहा है कैसे हम कह पायेंगे कि नहीं किए हैं। वो कम्प्यूटराइज है, रील निकल रहा है। कैसे कहेंगे कि नहीं किए हैं? कैसे कहेंगे कि नहीं सोंचे हैं? कैसे कहेंगे कि नहीं सोचे हैं? कैसे कहेंगे कि नहीं किए हैं? जो सामने रील निकल रहा है, फोटो निकल रहा है। इसलिये असली हिसाब-किताब तो वहाँ होता है। यहाँ क्या हिसाब-किताब है? यहाँ तो जो है उसकी डूप्लीकेसी है। यहाँ तो जो है उसकी डूप्लीकेसी है। असली तो वहाँ है।

१७२. जिज्ञासु:- महाराज जी ! क्या जीव भी वृद्ध और युवावस्था में प्रवेश करता है?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हाँ, हाँ होता है जीव तक ये लागू होगा। बाल्यअवस्था लागू होगा, युवावस्था लागू होगा, वृद्धावस्था लागू होगा। जीव तक ये लागू होगा, ईश्वर पर ये लागू नहीं होगा। आत्मा पर लागू नहीं होता। आत्मा पर दोष-दुर्गुण अवस्था ये सब कोई लागू नहीं होगा। जीव तक तो लागू होगा।

१७३. जिज्ञासु:- महाराज जी ! बहुत से लोग ऐसे मिलते हैं कि जो वृद्धावस्था में है तो छोटे से बालक से भी ठीक से बात नहीं कर पाते हैं। उसमें भी लक्षण है...........

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- वो तो संस्कारिक चीज है। जैसे लड़का है बहुत तेज है, पढ़-लिख लिया है, बहुत छोटा है। और बड़ा लड़का नहीं पढ़ रहा है। आगे तो बेवकूफ है, फेल हो गया। ये संस्कार पर आधारित है। जैसे यहाँ हम लोगों की नौकरी-चाकरी सामान्य जीवन का बेस शिक्षा बनता है, वैसी सभी प्राणियों के लिए जीवन मिलने का बेस (आधार) संस्कार होता है। तो ये उम्र का इससे कोई प्रभाव नहीं करेगा। संस्कार प्रभावित करेगा।

१६४. जिज्ञासु:- जीव की अवस्था नहीं होती है?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अवस्था तो होती ही है?

१६५. जिज्ञासु:- जो अविनाशी है, उसकी अवस्था निर्धारण होता है।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- आपको अभी तो बताए थे, जीव किस तरह अविनाशी है, अविनाशी आत्मा भी है।

१६६. जिज्ञासु:- परमात्मा भी है।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- परमात्मा तो खैर है ही है। लेकिन वो अमर शब्द आत्मा पर लागू नहीं होता है, जीव पर लागू कैसे होगा? क्योंकि इसलिए लागू नहीं होता है कि जीव विलय कर जाएगा। जीव का जो है आकृति है, वो छीन जायेगी। आत्मा हो जाएगा। इसलिए वो परिवर्तनशील है।

१६७. जिज्ञासु:- जीव आत्मा हो जाएगा या आत्मामय हो जाएगा?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं, नहीं, जीव आत्मा भी बन जाएगा। दोष-गुण से निवृत कर दीजिये वो आत्मा बन जाएगा। आत्मा को दोष-गुण से आवृत कर दीजिये, जीव हो जाएगा और आत्मा भी उत्पन्न होती है और विलय होती है। इसलिए इसको अमर नहीं कहा जा सकता। नाश चूँकि नाश होता है पदार्थ का। मैटेरियल जो थिंग है इसका नाश होता है तो जीव का, आत्मा का नाश नहीं होता है। फिर भी ये रूप परिवर्तित होता है। ये उत्पन्न और विलय होते हैं। इसलिए इनको अमरत्व का दर्जा नहीं मिलेगा। परमेश्वर में कोई परिवर्तन नहीं होता। परमेश्वर में कोई परिवर्तन नहीं होता। अवतार भी है परमेश्वर जो अवतार धारण करता है, विष्णु जी का, राम जी का, कृष्णजी का तो जब परमेश्वर का दर्शन रामजी करायेंगे तो अपने रामजी शरीर को सामने नहीं कर देंगे। जो परमेश्वर सृष्टि के पूर्व थे, उसी को दिखायेंगे। विष्णु जी अपने शरीर को सामने नहीं किये कि लो देख लो, परमेश्वर खड़ा हो गये। ऐसा नहीं होगा। वो जो सृष्टि के पूर्व परमेश्वर था, जब सृष्टि के पूर्व जो परमेश्वर था, उसी को परमेश्वर के रूप में बतायेंगे-दिखायेंगे। उसी को राम जी बताये-दिखाये, उसी को कृष्णजी बताये-दिखाये, उसी को २० को दिखाया जायेगा। ये सदानन्द को खड़ा नहीं कर देगा कि ये देख लो सदानन्द परमेश्वर है। ऐसा नहीं होगा। उस परमेश्वर का दर्शन होगा जो सृष्टि के पूर्व था। जिसे सृष्टि के पश्चात् भी रहना है। ये सृष्टि जिसका खेल है, उस परमेश्वर को दिखाया जायेगा।

१६८. जिज्ञासु:- ये परमेश्वर का अवतरण क्या कोई विशेष जीव पर ही होता है क्या?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- जीव का अवतार?

१६९. जिज्ञासु:- नहीं, परमात्मा किसी श्रेष्ठ जीव पर ही अवतरित होता है?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं, परमात्मा जिस शरीर में अवतरित होगा, उसका जीव, उसका आत्मा दोनों से मर्ज कर जायेगा। उसका जीव, उसका आत्मा दोनों वो उस परमात्मा में मर्ज कर जायेगा।

१७०. जिज्ञासु:- बोलता तो महाराजजी जीव ही है न?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं, रामजी के साथ, कृष्णजी के साथ जो बोल रहा था, वो जीव नहीं था। वो परमेश्वर था। नारद बाबा के साथ जो बोल रहा था, यानी सनकादी के साथ जो बोल रहा था, परशुराम जी के साथ जो बोल रहा था, वो ईश्वर था, यानी आप देखेंगे कि आद्यशंकराचार्य जितने शंकराचार्य जितने अंशावतारी हैं उन शरीरों से जो बोल रहा था, वो ईश्वर था और स्वाध्यायी लोग जो है, जो स्वाध्याय में है, जो अहं ब्रह्मास्मि मैं अपना रहकर के चल रहे हैं साधना में, वो जो है उनके शरीर से जो बोलता है, वो जीव है और सब गृहस्थजी लोग शरीर हैं। शरीर से अलग उनको मालूम ही नहीं है कि शरीर से अलग भी हम कोई चीज होता है। तो सब जीव ही थोड़े हैं। जो जीव कुछ नहीं जानते हैं, हम शरीर है, हाँ भई आपका क्या नाम है?

१७१. जिज्ञासु:- नाम महाराजजी जीव का ही तो होता है।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं, नहीं, हम आपका नाम पूछ रहे हैं?

१७२. जिज्ञासु:- महाराज जी ! हमारा नाम प्रदीप कुमार है।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अब प्रदीपकुमार आपका नाम है कि जीव का नाम है कि आत्मा का नाम है कि परमात्मा का?

१७३. जिज्ञासु:- जीव का नाम हो जायेगा।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- प्रदीप कुमार?

१७४. जिज्ञासु:- जी।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- गलत। ये शरीर का नाम है।

१७५. जिज्ञासु:- महाराज जी ! जब शरीर छोड़ देता है ये कहता कि प्रदीप मर गये।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- ये हुआ कि शरीर छोड़कर जीव नहीं रहा। प्रदीप कुमार मर गये। अब गौर करेंगे। ये नाम जो है जीव के साथ नहीं आया है। जिसने इस नाम का नामकरण किया है, प्रदीप कुमार। वो जानता ही नहीं कि जीव क्या होता है? वो तो शरीर देखा था, शरीर का नामकरण किया है। उसको तो पता ही नहीं कि जीव भी कोई चीज होता है।

१७६. जिज्ञासु:- क्षमा कीजिये। अगर कोई बालक माँ के गर्भ से पैदा होता है, मरा हुआ है। संसार वाले नहीं नाम लेते हैं। अगर उसमें जीव सजीव होता है तो सजीव का नाम होता है, निर्जीव का नाम नहीं होता है। बालक बालिका ही कहा जाता है।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अब आप एक बात और गौर करेंगे। बालिका-बालिका जो भी पैदा होगा, मरा हुआ पैदा होगा तो आगे उसको रहना नहीं है, इसलिए उसको सम्बोधन की आवश्यकता भी नहीं है। सम्बोधन की आवश्यकता तो उसकी है, जिसको आगे रहना है। तो आपको आगे रहना था इसलिये माता-पिता गुरुदेव ने आपके शरीर को देखकर के नामकरण कर दिया। जीव को देखा ही नहीं। जीव का नामकरण क्या करेंगे? जीव का नामकरण क्या करेंगे? जीव को तो उन्होने देखा ही नहीं, जाना ही नहीं। नामकरण तो जो जानेंगे-देखेंगे न उसी का तो करेंगे। जो देखे जानेंगे उसी का तो नामकरण होगा। जो जाने ही नहीं, देखे ही नहीं उसका नामकरण कैसा?

१७७. जिज्ञासु:- बोल-चाल में महाराजजी यही सुमिरण होता है कि फलां व्यक्ति मर गया। ऐसे ही बोला जाता है।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हाँ, बोला जाता है ऐसा। अब फलां व्यक्ति मर गया। फलां व्यक्ति मर गया। तो फलां व्यक्ति शरीर ही तो था न, शरीर ही न मर गया। जीव तो मरा नहीं। फलां व्यक्ति मर गया। व्यक्ति जीव का नाम नहीं है। व्यक्ति शरीर का नाम है। फलां व्यक्ति मर गया। यानी जो हम नाम रखे थे व्यक्ति का वो व्यक्ति अब क्रियाशील नहीं रहा। एक राजा जो है अपने राज में छोड़ा था हाथी। मरने वाला हाथी था मरणासन्न था। कहा कि कोई आकर के हम से कहे कि हाथी मर गया तो खैरियत नहीं होगा। हाथी का रिपोर्ट हर किसी को देना है। अब हर कोई चाहता था कि हाथी ही आगे बढ़ जाए। हम कहे कि मर गया तो फाँसी दे देंगे राजा। अब क्या करें? और चलते-चलते किसी गाँव में हाथी मर गया। ये टेक्स बुक की बात बता रहा हूँ। चलते-चलते किसी गाँव में हाथी मर गया। अब गाँव वाले परेशान की अब हम क्या करें? राजा को क्या रिपोर्ट दें। कहेंगे हाथी मर गया तो हमको तो सजा हो जायेगी, फाँसी की सजा हो जायेगी। हाथी का रिपोर्ट देना भी राजा को जरूरी है। अब गाँव भर बैठकर के परेशान रहा। बड़ी विचित्र स्थिति हुई। उसी में कोई वृद्ध निकला कहा कि ठीक है आप लोग मत घबराइये, हम जा रहे हैं राजा से रिपोर्ट दे देंगे। आप लोग मत घबड़ाइये। वो गया तो कहा कि हुजूर ! हमें एक विचित्र संदेश रिपोर्ट लेकर आए है।
हुजूर ! हाँ तो क्या? हाथी वो जो छोड़ा गया था। वो हमारे गाँव में एक जगह पड़ा हुआ है। न हिल रहा है, न डुल रहा है, न सांस ले रहा है, न सूढ़ हिला रहा है और न कुछ खा रहा है, न कुछ पी रहा है। हुजूर ऐसे पड़ा हुआ है। पूछे कि हाथी मर गया क्या रे? हाथी मर गया क्या रे? तो हुजूर ये हम कैसे कह सकते हैं? हुजूर ये हम कैसे कह सकते हैं? तो उसी तरह से सम्बोधन कहने के लिए मर गया, जो नाम शरीर का था, वो व्यक्ति मर गया। तो मरते शरीर ही तो है। जीव मरता है? यदि प्रदीप मर गया, तो प्रदीप जीव का नाम होता, तो मरता ही नहीं।

१७८. जिज्ञासु:- तो महाराज जी ! शरीर तो सामने ही पड़ा रहता है न?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- वही तो मरा हुआ है।

१७९. जिज्ञासु:- मरा हुआ है, मर गया। ये बोला जाता है न? मरा हुआ है नहीं कहा जाता है?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- आप जब व्याकरण पढ़ेंगे तो मर गया भी पास्ट टेन्स ही है। मरा हुआ भी। मरा हुआ, मर गया। क्या अन्तर विशेष आपको हुआ? अब अन्तर इतना ही है कि मरा हुआ है। तो पहले से मरा हुआ है। थोड़ा अन्तर कर देंगे पास्ट परफेक्ट टेन्स हो जायेगा। मर गया, तो मर गया तो मर गया, ये भी मर गया, बड़ा कहेंगे तो पास्ट प्रेजेंट टेन्स कह देंगे। लेकिन है तो मरा ही न? मर गया। मर गया अभी। जो मर ही गया, मरा हुआ है कहेंगे। जब पहले से मुर्दा पड़ा होगा। मरा हुआ है कहेंगे, जब पहले से मुर्दा पड़ा हुआ होगा। सामने देख रहे हैं, स्वास ले रहा है, स्वास बन्द हो गया। क्या हो गया भाई? फलां मर गया। मरा हुआ है तो पहले से मुर्दा देखेंगे तो बोलेंगे। क्यों? व्यक्ति ही न मरा? जीव को तो मरा कहा नहीं जायेगा। जीव तो छोड़कर गया है मरा तो है नहीं, वो तो शरीर छोड़ दिया चला गया।  

१८०. जिज्ञासु:- मुक्ति?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हाँ, हुए हैं। जो बन्धन है कर्म का बन्धन, जिस बन्धन में फँसकर के आवागमन चक्र चल रहा है। जिस मायाजाल में फँसे हुए हैं उसी से मुक्त हो जाना, बाहर हो जाना, मुक्ति है। मोक्ष मुक्ति के साथ-साथ परमप्रभु से जुड़कर के अमरत्व को हासिल कर लिया और अमरत्व में आपने जोड़ दिया अपने को तो मुक्ति और अमरता संयुक्त रूप में मोक्ष है। उसी का नाम दूसरे लोग निर्वाण रख लिए।

१८१. जिज्ञासु:- कैवल्य।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- उसी का नाम जैनियों ने कैवल्य रख लिया।

१८२. जिज्ञासु:- इन लोगों ने निर्वाण और कैवल्य रखा है उनको क्या हुआ कैवल्य निर्वाण?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- इसी में तो, जैनियों में तो कोई मुक्त ही नहीं है। जैन में तो कोई मुक्त है ही नहीं।

१८३. जिज्ञासु:- ये निर्वाण और कैवल्य ये सब कैसे............

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- वो तो नाम ले लिया उन लोगों ने ऐसे था कुछ मिला नहीं उन लोगों को। मिला नहीं। जो मुक्ति देने वाला है, मोक्ष देने वाला है उसको तो स्वीकारोक्ति किये लोग नहीं हैं। उनको तो स्वीकारोक्ति...आत्मा की स्वीकारोक्ति उन लोगों को है और आत्मा मुक्ति दे ही नहीं सकती है। आत्मा के वश का मोक्ष है ही नहीं।

१८४. जिज्ञासु:- ये लोग जो लिखे हैं, कैवल्य और निर्वाण वगैरह........


सन्त ज्ञानेश्वर जी:- ये लिखने के लेख देते हैं सब, उसके लिए क्या कीजिएगा। अब गौतम बुद्ध है, सिद्धार्थ थे। अब वो हो गया बुद्ध, सब बोध करा रहे हैं। कहाँ बोध हुआ था इनको? ये मध्यम मार्ग अपना लिए। सत्य मिला ही नहीं तो बोध कैसे होगा। ये तो मध्यम मार्ग अपना लिए थे। ये विचारक थे, बुद्ध कह दिया गया। विचारक थे, बुद्ध कह दिया गया। कहाँ इनको बोध हुआ था सत्य का? कहाँ ये सत्य को प्राप्त हुए थे। ये तो अपने को पीछे हट गये थे सत्य पाने से। इनको बोध कहाँ हुआ था, लेकिन सब बोध, बुद्ध-बुद्ध कहते हैं। इसका क्या हो जायेगा। कह देने से वो मिल जायेगा? निर्वाण कह देने से निर्वाण मिल गया। कैवल्य कह देने से कैवल्य कह देने से मिल जायेगा या उस स्थिति से गुजरना पड़ेगा। उसको हासिल करना पड़ेगा।


१८५. जिज्ञासु:- अभी सुबह प्रातः हम लोग स्नान के लिए घाट पर गये थे, वहाँ एक बोर्ड लगा हुआ था गंगे तव दर्शनात् मुक्ति ये क्या?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अरे भई ! इतना कहने पर भी लोग घर द्वार छोड़कर के कम से कम एक स्थल पर आवें। एक आयेंगे तो कम से कम सुनने-जानने को मिलेगा, विचारधारा बनेगी। गंगा के दर्शन से ही मुक्ति हो जाती तो ब्रह्माजी को ज्ञान लेने की क्या जरूरत थी। वो चरणामृत विष्णु जी की गंगा जी हैं और क्या हैं? सद्गुरु की चरणामृत ही तो है गंगा जी। तो इनके दर्शन से मुक्ति हो जाएगा? एक बात गौर करें। देखिए। सीधे झूठ कह देना थोड़ा सा लौकिक मर्यादा को ठेस करना मानना होगा। ये तो झूठ तो है ही है। 


१८६. जिज्ञासु:- अगर सत्य है तो कहने में तो कोई हर्ज नहीं है।


सन्त ज्ञानेश्वर जी:- वो नहीं, एक लौकिक मर्यादा है जिस माध्यम से। जैसे मंदिर है, मूर्ति है। कोई मूर्ति भगवान् नहीं है। किसी मंदिर, गिरिजाघर, मस्जिद में भगवान् अल्लातsला नहीं रहता। भगवान् कहीं मंदिर-मस्जिद में बंधा होता है क्या? लेकिन एक प्रतीक है धर्म का, जिस माध्यम से हमारे आपके अंदर एक अवधारणा स्थित होती है, कायम होती है कि धर्म है और उसी माध्यम से चलकर के प्राइमरी स्कूल में कौन नौकरी मिलेगी? किसी में नौकरी प्राप्त होने का, किसी में विद्वता प्राप्त होने का कोई लक्षण प्राइमरी नहीं है। लेकिन प्राइमरी स्कूल वह प्रारम्भिक स्थिति है जिससे गुजरकर के ही हम मास्टर डिग्री भी हासिल करेंगे। रिसर्च डिग्री भी हासिल करेंगे। अभी प्राइमरी माने कुछ नहीं तो थोड़ा सा अच्छा नहीं लगेगा। इसलिये कर्मकाण्ड कुछ है ही नहीं। हम लोग ऐसा नहीं बोल सकते। क्योंकि देख रहे हैं कि संसार ही कुछ नहीं है। ये कर्मकाण्ड कुछ है ही नहीं। सीधे हम लोग ऐसा नहीं बोल सकते। झोपड़ी कुछ है ही नहीं। चूती है, धूप आता है। ऐसा नहीं बोला जाएगा। महल कि व्यवस्था कर लीजियेगा, उसके सामने झोपड़ी कुछ नहीं है और झोपड़ी उजाड़ दिया जाय और महल की व्यवस्था ही न हो। तो उस बेचारे के लिए परेशानी बढ़ गई। इसलिये तब तक किसी चीज को नहीं में मत जाइए, जब तक उसके लिए उससे अच्छी व्यवस्था न दे दीजिये गंगा तव दर्शनात् मुक्ति हम गंगा के दर्शन के मुक्ति की बात की है कम से कम जितने लोग स्नान कर रहे हैं, उनकी अंदर ऐसी धारणा तो धर्म के मुक्ति शब्द याद आपके लिए आयेगा। अब उसी में जो संस्कारी होगा। जो जिज्ञासु होगा मुक्ति शब्द का खोज करेगा कि मुक्ति है क्या चीज? मुक्ति कि खोज करने में पता चलेगा कि ऋग्वेद का मंत्र है ---ऋते ज्ञानान्न मुक्ति ज्ञान के बिना किसी की मुक्ति हो ही नहीं सकती। ज्ञान के बिना किसी की मुक्ति हो ही नहीं सकती। ज्ञान क्या चीज है, भगवान् का मिलना। भगवान् मिलेगा वही मुक्ति-अमरता दे देने का अधिकार रखता है। जैसे पूरे देश में फाँसी की सजा किसी को हो गई, देश में केवल एक राष्ट्रपति ऐसे हैं, राष्ट्रपति महोदय ही एक ऐसा पद है और एक राष्ट्रपति ही एक ऐसा पद है जो प्राणदान दे सकता है और कोई अटल जी (प्रधानमंत्री) नहीं दे सकते। अटल जी नहीं दे सकते। नारायण साहब (राष्ट्रपति) फट से दे देंगे। तो जो प्रधान है उसको ये अधिकार मिलता है मुक्ति का। तो सृष्टि का जो प्रधान परमेश्वर है तो केवल वही मुक्ति दे सकता है। ये कार्यकर्ता लोग जो है ब्रह्मा, इंद्र, शंकर ये लोग मुक्ति नहीं दे सकते। अदिशक्ति मुक्ति नहीं दे सकती। गंगा कौन है मुक्ति देने वाली? ये कौन होती है मुक्ति देने वाली? लेकिन आप खुलकर के इस तरह से खुलकर इस तरह से हम लोग सीधा विरोध करें कि नहीं, नहीं ऐसा नहीं तो ये उचित भी नहीं है क्योंकि मुक्ति के नाम पर लोग आये तो सही। गंगा के पास आये ये बहुत बड़ा भीड़ मेला लग रहा है। मेला को देखते हुये सन्त-महात्मा भी आये तो उनके उपदेश मिलने की बारी आई। उपदेश में मुक्ति शब्द जानने की बारी आई और जानते हुये हम मुक्ति को प्राप्त कर लेंगे। जब रहे ही नहीं, गंगा की महत्ता साफ खत्म कर दिये। जब कोई आयेगा ही नहीं। कोई आयेगा ही नहीं। वो जो जानने का भी रास्ता खुल रहा है वो भी खत्म हो जाएगा। जानने का रास्ता ही खत्म हो जाएगा। इसलिये यानी कपिल मुनि जब अपनी माता देववती को उपदेश दे रहे थे तो कहे कि होम जाप जो आहुती कि जा रही है मंदिर में मूर्ति के सामने वो सब व्यर्थ है। ये सब व्यर्थ है। फिर भी करना है। कहा है श्रीमद्भागवत् महापुराण में ये सब व्यर्थ है। ये सब व्यर्थ है। फिर भी करना है। कहा है श्रीमद्भागवात् महापुरान में ये सब व्यर्थ है फिर भी करना है। क्यों? जब व्यर्थ है तो क्यों करना है? इसलिये कि करना है जब हम उस होम जाप आहुति को करेंगे। आहुति को करेंगे तो करते-करते चलेंगे तो जो कोई जानकार जब कभी भी हमको जानेगा। हम आहुति करते हैं, हम ये पुजा-पाठ करते हैं, तब वो हमको सही रास्ता बताएगा। तो ये व्यर्थ है तो इसके जगह पर सार्थक क्या है? वो सही रास्ता देगा। हम करेंगे ही नहीं तो रास्ता बताने वाला भी नहीं मिलेगा। हम करेंगे ही शुरू ही नहीं करेंगे तो कोई जानेगा कैसे कि हम अमुक करना चाहते हैं? तो हमको जानेगा नहीं कि हम जानना चाहते हैं, करना चाहते हैं तो बतायेगा कौन? इसलिये बहुत से चीजें ऐसी हैं जो गलत हैं, झूठी हैं लेकिन उनको झूठा गलत कहा नहीं जा सकता है। उससे एक उत्प्रेरण मिलता है। अब मन्दिर है, मस्जिद है, गिरिजाघर है, गुरुद्वारा है, मूर्तियाँ हैं। क्या वो भगवान् जी हैं? लेकिन नहीं। उस मान्यता में हमने आपके अंदर एक अवधारणा कायम किया। भगवान् नाम का कोई चीज था, भगवान् होता है, जब मूर्ति के यहाँ जायेंगे, मूर्ति के माध्यम से ग्रंथ में जायेंगे। ग्रन्थ के माध्यम से हमको जानने का मौका मिलेगा कि आखिर ये मूर्ति कैसे यहाँ आ गई? ये मूर्ति क्या है? किसकी है? क्यों है? ये सब जानने का मौका तभी तो मिलेगा, जब सामने मूर्ति रहेगी। मन्दिर में जायेंगे। अब कुछ रहे ही नहीं, सामने हमको उत्प्रेरण कहाँ मिलेगा कुछ जानने-सुनने का। इसलिये उनकी मान्यता को कायम रखना है। इसलिये उनकी मान्यता को कायम रखना है न कि भगवान् वहाँ हैं? ऐसा है।
तो बहुत ऐसे बात हैं जो कि गलत हैं, झूठ हैं लेकिन उसको खुल्लमखुला गलत-झूठ नहीं कहा जा सकता। 

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