क्रम संख्या १२६-१५५

१२६. जिज्ञासु:- जो चार महावाक्य कहे गये हैं तत्त्वमसि’ , ‘अहं ब्रह्मास्मि........

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- चारों झूठ। चारों झूठ।

१२७. जिज्ञासु:- तो शंकराचार्य जी का कथन झूठ हो गया?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- शंकराचार्य जी का कथन देखें कि भगवान् जी का कथन देखें?

१२८. जिज्ञासु:- इसकी पुष्टिकरण करने की कृपा करेंगे।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- इसकी पुष्टि 5 तारीख को जब दर्शन करा लूँगा, तो दिखलाई देने लगेगा कि अहं ब्रह्मास्मि माने क्या? ‘तत्त्वमसि माने क्या? ‘सत्य अनंत ब्रह्म माने क्या? ‘सर्व खल्लिदं ब्रह्म माने क्या? ‘अयं आत्मा ब्रह्म माने क्या? ‘ज्ञान अनंत ब्रह्म माने क्या? ‘एकोब्रह्म द्वितीयो नास्ति माने क्या? ये सब तो देखने को मिलेगा। 2-3-4-5 तारीख को। चार दिन जो प्रेक्टिकल का क्लास है उसमें सारे महावाक्य जी लोग दिखाई देने लगेंगे कि कितना झूठ, कितना सच है?

१२९. जिज्ञासु:- विज्ञान आज का विज्ञान, आधुनिक वैज्ञानिक जी लोग मानने लगे हैं कि जल में ईश्वर की सत्ता विद्यमान रहती है। यही कारण है कि जब उसका विभाजन किया जाता है। परमाणु शेष पर पहुँचते हैं। जब परमाणु का भी विभाजन करते हैं तो न्यूट्रान, इलेक्ट्रान, प्रोट्रोन तीन.........

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- जब परमात्मा नहीं है। जब मान लीजिये तोड़ते गये, तोड़ते गये कण में देखने के लिये तो अणु तोड़े तो दो भाग परमाणु हो गया। परमाणु तोड़े तो प्रोटॉन, इलेक्ट्रॉन, न्यूट्रान हो गये । उसको तोड़े, इलेक्ट्रान को तोड़े तो फिर उसमें मेसान बन गया। पाई मेसान, मे मेसान यानी ये मेसान जब बन गये। उस मेसान को जब तोड़ा गया। उस मेसान को जब तोड़ा गया तो अन्तिम रूप क्या बना? साउण्ड एंड लाइट ये साउण्ड एंड लाइट शक्ति है। न कि ईश्वर और परमेश्वर।

१३०. जिज्ञासु:- शक्ति ही तो शक्तिमान की सत्ता है।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अरे भाई जब से ये समुद्र है। लेकिन ये हर गिलास का जल समुद्र नहीं है। समुद्र उसका नाम है जहाँ से जल आता है और अंत में जहाँ जाकर ठहर जाता है। उस अथाह जलराशि का नाम समुद्र है। जहाँ से सारी शक्तियाँ पैदा होती है। अंततः जिसमें जाकर सारी शक्तियाँ ठहरती है। उस सर्वोच्च सत्ता-शक्ति का नाम परमात्मा-परमेश्वर है।शक्ति का नाम परमात्मा नहीं है। शक्ति जहाँ से पैदा होती है जहाँ ठहरती है उस सर्वोच्च सत्ता-शक्ति का नाम परमात्मा-परमेश्वर है। हर जल का नाम समुद्र नहीं है। जहाँ अथाह जलराशि है उस जलराशि का नाम समुद्र है। जल का नाम समुद्र नहीं है। यदि जल ही समुद्र होता तो ये गिलास समुद्र है।

१३१. जिज्ञासु:- चलिये। ठीक है यहाँ आ गये हम इस बात पर कि ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुख राशि।।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- सही बात है। जीव ईश्वर का अंश है, ईश्वर परमेश्वर का अंश है। जीव ईश्वर का अंश है, ईश्वर परमेश्वर का अंश है।

१३२. जिज्ञासु:- हाँ, ठीक है। अंश हैं, न कि सम्पूर्ण हैं।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- सबका भाई। सबका अंशी परमेश्वर, परमेश्वर का अंश ईश्वर, ईश्वर का अंश जीव, जीव के अंश से हो जाती है शरीर।

१३३. जिज्ञासु:- अच्छा, यही आपका कथन भी है।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- और यही हमारा कथन भी है और यही सही भी हो रहा है और शास्त्रों में भी यही है। यही तो मेरा कहना है।

१३४. जिज्ञासु:- यही अहं ब्रह्मास्मि हमें भ्रम में डाल दिया था।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- आप सुन लीजिये। सच्चाई ये है कि अहं ब्रह्मास्मि गलत है।
अहं भ्रमास्मि है। अहं भ्रम है। अहं ब्रह्मास्मि’ गलत है। अहं भ्रमास्मि’ है, यानी अहं एक भ्रम है। अहं एक भ्रम है।

१३५. जिज्ञासु:- इतना बड़ा दर्शन शंकराचार्य जी का। फेल हो रहा है हमें गंवारा नहीं हो रहा है।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- एक श्लोक शंकराचार्य जी का बोलूँ।
वदन्तु शस्त्राणि यजन्तु देवान् कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवता:।
 आत्मेक्यबोधेन बिना विमुक्तिर्न सिध्यति ब्रह्मशतान्तरेsपि।।
।।वि॰चू॰/६।।
गौर कीजियेगा, यानी चाहे शास्त्रों की व्याख्या करते-करते सौ ब्रह्माओं की आयु बीत जाय। चाहे देवता लोगों का यज्ञ जाप करते-करते सब कर्म करते-करते सौ ब्रम्हाओं की आयु जाये। चाहे सब सुकर्म करते-करते सब कर्म करते-करते सौ ब्रम्हाजी लोगों की आयु बीत जाय। चाहे सभी देवता का पुजा-पाठ करते-करते सौ ब्रम्हाओं की आयु बीत जाये लेकिन जब तक आत्मा और परमात्मा का एकत्वबोध नहीं होगा, तब तक मुक्ति सिद्ध नहीं होगी। अर्थात् जब अहं ब्रम्हास्मि ही जब सब है तो मुक्ति किसकी? कैसे? जब ब्रम्हा की सौ ब्रम्हाओं की आयु यानी  ब्रम्हा भी मुक्त नहीं है। क्य ब्रम्हा अहं ब्रम्हास्मि वाला नहीं है क्या? तो उसका भी सौ ब्रम्हा यानी वो भी मरता-जन्मता है, उसकी भी आयु सुनिश्चित है सौ वर्ष अहं ब्रम्हास्मि कहाँ गया कहाँ गया? ब्रम्हा भी मरता-जन्मता है क्या? तो ब्रम्हाजी मरते-जन्मते नहीं है क्या? और जब ब्रम्हाजी अहं ब्रम्हास्मि नहीं हैं तो आप लोग अहं ब्रम्हास्मि कहाँ से आ गये?

१३६. जिज्ञासु:- स्वामी जी ओशो के बारे में आपका क्या कहना है?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- इतना भ्रष्ट, महापतित, धर्म भ्रष्ट, धर्म का मूल......फिलास्फर था और पतित था, दीमक था धर्म का।

१३७. जिज्ञासु:- वो तो तर्क देता है अपने पक्ष में।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- तर्क उसका कौन है जरा किताब लाइये उसके किताब का कोई तर्क सही हो, हम सामने मंच से घोषित कर रहे हैं। तर्क भी उसका भ्रष्टों के लिये है। हमको लग रहा है कि 5 प्रतिशत भी तर्क उसके सही नहीं है। जो तर्क की परिभाषा में आवें। तार्किक तो था ही फिलास्फर है। लाजिक से आई॰ए॰ किया। फिलास्फी से बी॰ए॰ किया, फिलास्फी से एम॰ए॰ किया। टाप किया। फिलास्फर हो गया। हर चीज को तर्क पर सिद्ध करना चाहता, ईश्वर परमेश्वर तर्क में सिद्ध करने लगा। गुरु तर्क पर सिद्ध करना चाहता, ईश्वर परमेश्वर तर्क में सिद्ध करने लगा। गुरु तर्क पर सिद्ध करने लगा, धर्म तर्क पर सिद्ध करने लगा। अरे वो था घनघोर पतित। लाभ जरूर कर रहा है इसका। फल भी भोगा इसका। फल भी भुगत करके भोग रहा है नरक में। भुगत करके आया नरक में, भोग भी रहा है और इतना भोगेगा, और इतना भोगता रहेगा कि जल्दी रहेगा कि जल्दी जन्म भी नहीं मिलेगा उसको।

१३८. जिज्ञासु:- ये तर्क दिया है सुनियेगा।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलिये। लेकिन तर्क उसका देने के साथ किताब रखते तो अच्छा था। तर्क वो देंगे तो हम दिखायेंगे न कहाँ गलत है वो?

१३९. जिज्ञासु:- उनका मत है कि समाधि की अवस्था में दो चीजों का नहीं होना आवश्यक है एक अहं समाप्त हो जाना चाहिये। इगो (इगो लेसनेस) माने अहंकार समाप्त हो जाना चाहिये, यानी अहंकार रहित और समय, समय समाप्त हो जाना चाहिये, टाइम। (टाइम लेसनेस) और दोनों स्थिति काम के अवस्था में प्राप्त होता ही है। इगो लेसनेस और टाइम लेसनेस। फिर उसी में प्रथम स्टेज बता रहा है कि काम की अवस्था में.........

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- वही तो कहने का मतलब मतिभ्रष्ट था। काम की अवस्था में दोनों स्थिति समाप्त नहीं हो जाती है। क्षमताहीन हो जाती है और कुछ क्षण विशेष के पश्चात् ही वो फिर तेज हो जाती है। प्रज्जवलित जो अग्नि है उसमें कितना ही घी लगते रहेंगे तो अग्नि बुझेगी नहीं तेज होगी। काम एक ऐसी चीज का नाम है यदि रोज ऐसा करने लगे, पराग रहे और रोज आप काम से लिप्त बने रहें तो काम भरता नहीं है तेज होता है। काम से आप दूर हो जाइये। दो-चार महीना छः महीना काम से दूर हो जाइये। तो अच्छी भी लड़की आने पर कोई काम की भावना उत्पन्न नहीं होगी। 

१४०. जिज्ञासु:- ये तो काम को दबाना हुआ।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नहीं, नहीं, फिर आप हमारी बात नहीं समझे। एक होता है कि हमारे अंदर काम की पूर्ति हुई, हमारे अन्दर कामना हुआ और सामने कोई लड़की हुई लेकिन मर्यादा देखकर हम उसको दबा लिये। एक हुआ कि हमारे सहज स्थिति लड़की आ रही है, बहन है लड़की है अपनी है ये स्थिति कब आयेगी? जब चार-छः महीना, साल भर यदि काम से विमुक्त रहे चाहे अपनी पत्नी ही साथ में रह रही है। उससे हम विरक्त रहें, विमुक्त रहें सहज भाव में यदि थोड़ा सा हमको ऐसा रहने का मौका लग गया तो फिर वह आकर्षण उसमें नहीं रह पायेगा।

१४१. जिज्ञासु:- लेकिन साल भर उनसे दूर रहें। ये काम का ऊर्जा कहीं न कहीं ये विस्फोटक तो बनेगी ही।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- एक बात बताइये। क्या काम से काम की ऊर्जा समाप्त हो जाती है या प्रज्जवलित होती है।

१४२. जिज्ञासु:- नहीं उसका दिशा चेंज हो जाता है। अगर काम को सही दिशा में नहीं लगाया जाय।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- काम की दिशा समझा दीजिये।

१४३. जिज्ञासु:- काम का ये दशा है न कि ओशो के अनुसार इसको सृजनात्मक रूप में लगाइये।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- काम का अर्थ ही सृजन करना तो कौन से सृजनात्मक कह रहे हैं?

१४४. जिज्ञासु:- रूप में लिया गया।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- वो नहीं कह रहे हैं जरा सृजनात्मक रूप का वर्णन कीजिये। ये देखिये दो तीन है योग लक्ष्मी। एक प्रेम लक्ष्मी थी, योगमाया। अरे आपके पूने में। और दूसरा एक प्रेमादेवी, प्रेमशीला थी, जो अमेरिका में उनको जो घटना घटी थी। हम लोग गये थे वार्ता के लिये। तो प्रेमशीला को प्रतिनिधित्व रूप में वार्ता के लिये भेजे थे। तो बातचीत जब होने लगा तो उस समय वो मौन व्रत ले ली थी। मौन व्रत लेकर के वो केवल अपने सन्यासियों से मिल रहे थे। बाहरी से नहीं मिल रहे थे। तो प्रेमशीला से बात-चीत यही होने लगी। तो भई कहे कि प्रेम। हम लगे कुरेदने। क्या प्रेम? कैसा प्रेम? धर्म का एक प्रेम है। हम कहे कि भई प्रेम को बताइये न प्रेम क्या है? वही एक प्रेम। अंत में हम भी वही कुरेदने लगे। भई आप प्रेम प्रेम चिल्ला रही है, प्रेम तो माँ से भी होता है, प्रेम तो बेटा-बेटी से भी होता है। प्रेम तो दोस्त-मित्र से भी होता है। इसमें प्रेम तो प्रेम तो पत्नी से भी होता है। इसमें किस प्रेम को हम प्रेम कहें? ये सब जो है हम ये जानना चाहते हैं कि ये जो काम जो सृजन में लगाना है काहे सृजन जरा बता दीजिये।

१४५. जिज्ञासु:- सृजन से ये तात्पर्य है कि जैसे समाज की अवस्था प्राप्त हो रही है।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- समाज कहाँ होता है इसमें? काम में समाज ही कहाँ होता है?

१४६. जिज्ञासु:- काम में अहं समाप्त हो जाता है।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- काम में कहाँ समाप्त होता है अहं?

१४७. जिज्ञासु:- राजा भी है तो इस समय उसे बोध नहीं होता है कि मैं राजा हूँ।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- क्षणिक। ये तो मतिभ्रष्टता ही न है? ये तो मतिभष्टता हुआ न? ये तो विनाशक स्थिति हुई न? समाधि उसका नाम है जो क्षणिक हो? या समाधि उसका नाम है जो हमको स्थायित्व में ले जाय? स्थिरता में ले जाय। आपको पता है सबीज समाधि भी वर्जित है, त्याज्य है। सबीज समाधि, सविकल्प समाधि, विचार समाधि भी त्याज्य है। समाधि वो है जो निर्विकार समाधि हो, निर्बीज समाधि हो। आप यहाँ एक भ्रष्ट क्रियाकलाप लाकर के राक्षस की वृत्ति जो है मतिभ्रष्ट बन गया। भ्रष्टता बना दिया। कहीं चैन उसको मिला।

१४८. जिज्ञासु:- करोड़ों शिष्य हो गये उसके।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- इसलिये कि भ्रष्टता का जमाना है। जब एक बार आया न। अवतार बेला देखिये शंकर जी का जब स्थिति आया न, तो उस समय कामदेव इस रूप में अब तो उसको कामदेव कहेंगे। वो भगवान् का अवतार है कामदेव का प्रतिनिधित्व किया था। उसमें सब काममय हो गये थे। करोड़ों कह रहे हैं, सब काममय हो गया थे, हर पेड़-पौधा, हर कीड़ा-मकोड़ा यानी सब जो जहाँ सृष्टि में था। सब काममय हो गया था, एक समाधि में बैठे शंकर को छोड़कर के और उसी बदमाशी में वो जो है उनके पास भी चला गया कि इनको भी काम से युक्त बना दें और उसी उत्प्रेरण में लगा। तो शंकर की स्थिति देखे की बड़ा गजब स्थिति हो गया। वे ताके, भस्म हो गया। उसमें तो सभी काममय हो गये थे, इससे क्या हो गया? आप पढ़िए न शास्त्रों को। उस समय जितने थे, सब काममय हो गये। जो कोई प्राणी मात्र धरती पर था सब काममय था।

१४९. जिज्ञासु:- तो क्या हुआ, नुकसान हो गया?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अरे उसी का नाश हो गया। जो ऐसा कर रहा था और स्थिति संभाली गई। उसी तरह से इसका नाश हुआ है। ये शरीर थोड़े छोड़ा ये तो नाश हुआ है उसका। पहले रजनीश था, तो आचार्य रजनीश बना, तो भगवान् रजनीश बना, तो भगवान् बना, तो भगवान् को छोड़कर के बुद्ध बना, मैत्रेय बना, जब उसको भी त्याग दिया और बाद में एक कवि है एक पाश्चात्य जगत का, लेखक कवि है ओशो, अब अपने को ओशो घोषित कर दिया और ओशो कहने में नरक में नाश हुआ है उसका। क्या दुर्गति हुई है? अब आप संस्था में जाइये तो पता चलेगा। कोई दुर्गति उसकी बाकी नहीं लगी है। वो मरा थोड़े है, उसका तो नाश कैंसर से और एड्स से, पीड़ित होकर के, सब दुर्गति, अधिकतर तो यही झेलकर के गया है। बचा है तो वहाँ झेल रहा है नरक में।

१५०. जिज्ञासु:- दस हजार वर्षो से काम धूमिल हो रहा है। काम अभी समाप्त नहीं हुआ।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- तो कौन कह रहा है काम समाप्त हो तो सृजन ही रुक जाय।

१५१. जिज्ञासु:- नहीं, नहीं, विकृत बनाया गया समाज में, ममता बढ़ी।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हर ऐसे समय देखिये। जैसे दिन होता है। प्रातः होता है, गति में शाम हो जाता है। रात होती है, फिर प्रातः होती है। प्रातः होता है, रात होती है। ये तो एक सृष्टि की गति होती है न। सृष्टि की सारी चीजें चक्रिय है। कालचक्र, कर्मचक्र, आवागमन चक्र यानी हर चीजें चक्रीय है। तो काम का प्रकट होना, तेज होना, काम का नष्ट होना ये तो वही हो रहा है। ये अवतार होता है ऐसे ही समय में, जब काम छा जाता है। काम छाता है तो भ्रष्टता छाती है। भ्रष्टता छा जाती है तो अवतार आया होता है। आता है तो सब तहस-नहस कराकर के फिर ठीक करा करके और सत्य प्रधान समाज कायम करके ही रहेगा। इस समय छाया हुआ है काम लेकिन नाश होगा काम का और सब सहज होगा। बहुत जल्दी इसका समाप्ति होगा देख लीजियेगा। काम इस तरह से फ्री नहीं रह जायेगा।

१५२. जिज्ञासु:- उसने कहा था कि नपुंसक कभी राजनेता नहीं हो सकता है,

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- नपुंसक तो वही होकर मरा। नपुंसक केवल उसी अर्थ में मत लीजिये। नपुंसक मतलब किसी एक भाव में न रहना। न आचार्य रह पाया। न भगवान् रह पाया। न बुद्ध रह पाया। न मैत्रेय रह पाया। यदि जिंदा होता तो सत् भतरी कुमारी के तरह से जैसे वेश्या रोज पति बदलती है, वैसे रोज उसका टाइटिल बदलता था। ओशो होने में मर गया नहीं तो ओशो से बदलकर कुछ और बना होता। ये नपुंसकता से बढ़कर क्या है? स्थिरता नहीं रहना नपुंसकता है। यदि पौरुषत्व होता तो स्थिर होता। बन गया आचार्य आचार्य बना रहता, भगवान् बन गया भगवान् बना रहता। बुद्ध बन गया बना रहता। ओशो बन गया, बना रहता, जो बन गया बना रहता। अब इससे बढ़कर नपुंसकत्व क्या है? कि कहीं स्थिरता नहीं मिली। हर जगह बदलता चला गया। कुछ भी बन नहीं पाया।
हमारा उनका कोई दुश्मनी नहीं है व्यक्तिगत लेकिन एक सत्य सिद्धान्त को समझे बगैर वो  धर्म को जो समाप्त करने का कोशिश किया, इस बात को उसकी पद्धति को लेकर के हमारी बात है।

१५३. जिज्ञासु:- जिज्ञासु एक प्रश्न है रामायण में आया है पार्वती ने कहा शंकर जी से गूढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं।। वह गूढ़ तत्त्व क्या है?

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय। देखिये गूढ़ तत्त्व उसी का नाम है जो परमेश्वर है, ‘परमतत्त्वम् है। परमेश्वर माने देखिये एक चीज होता है। एक हम लोग पानी कहकर के सब लोग जानते हैं। कोई कहता है भई हमको जलपान दें या एक गिलास पानी दे दें। फट से एक गिलास पानी लेकर आयेगा, पानी दे देगा। जल कहने पर दे देगा। अंग्रेजी में वाटर कहा जायेगा दे देगा, अंग्रेजी पढ़ा होगा तो। भईया हमको एक गिलास H2O लाना। अब साइंस का विद्यार्थी होगा तो समझ जायेगा कि क्या माँग रहा है। लेकिन केवल साइंस का विद्यार्थी नहीं होगा, वो माँगते रह जायेंगे वो चले जायेंगे और वो नहीं देगा। यानी H2O माने जल। यानी वो जल का तात्त्विक विवेचन है H2O। H2O जो है जल का गूढ़ तत्त्व है। गौर करते हैं कि नहीं कर रहे हैं। वैसे ही एब्सोल्यूट जो ब्रह्माण्ड है इसका जो गूढ़ तत्त्व सीधे कह दिया जायेगा कोई वस्तु लेकर गूढ़ तत्त्व कहा जायेगा। जैसे जल का गूढ़ तत्त्व क्या है? गूढ़ तत्त्व क्या है? और धर्म के क्षेत्र में रहने वाली पार्वती है। धर्म के क्षेत्र मेन वार्ता हो रही है इसलिये यहाँ गूढ़ तत्त्व परमतत्त्वम् के विषय में आयेगा, भगवत्तत्तवम् के विषय में है। जिससे सृष्टि की उत्पत्ति होती है, जिससे सृष्टि चालित-संचालित हो रही है और अन्ततः जिसमें सृष्टि विलीन हो जाती है। वो जो मूल स्त्रोत है, वो जो मूल तत्त्व है, वो बोध तत्त्व है। उसी के विषय में जानने की बात पार्वती कह रही है। लेकिन वो शंकर के वश में था कहाँ? वो तो परमेश्वर रिजर्व रखता है। वो शंकर कैसे बता सकते थे?

१५४. जिज्ञासु:- गीता में जो बात आयी है तो कोई तो इस आत्मा को आश्चर्य भाँति देखता है, कोई कोई तो उसको सुनकर कर भी नहीं जानता है।

सन्त ज्ञानेश्वर जी:- है गीता अध्याय २ का श्लोक २९ है।
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चवद्वदति तथैव चान्य: । 
आश्चर्यवच्चैनमन्य: श्रणोंति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैवकश्चित् ॥
गीता २/२१ ॥   
कोई-कोई जो देखता है वह आश्चर्य की ज्यों देखता है, जो बोलता है वो आश्चर्य की ज्यों बोलता है। जो सुनता है आश्चर्य की ज्यों सुनता है। बहुत तो ऐसे हैं कि श्रुत्वाप्येनं वेद न चैवकश्चित् बहुत तो ऐसे हैं कि सुनकर के भी उसे नहीं पकड़ पाते हैं, समझ नहीं पाते हैं। तो जब वो तत्त्व सामने होगा। प्रायौगिक दर्शन के दिन जब दर्शन कराया जायेगा। दर्शन के दिन मूल तत्त्व प्रकट होगा आपके सामने तो सब लोग देखते रहेंगे, आश्चर्य में पड़ जायेंगे। न नहीं कर सकते हैं कि नहीं हो रहा है, न हाँ कर सकते हैं कि हो रहा है। न कह सकते हैं कि झूठ है, न कह सकते हैं कि सही है और घण्टों तक हम खेल खिलाते रहेंगे, हँसते रहेंगे कि कह दीजिये कि गलत है, गलत भी नहीं कह सकते हैं। बाइबिल खुली रहेंगी वहीं पर, यही सुप्रीम नालेज,गॉड है। वेद खुला रहेगा, उपनिषद खुले रहेंगे कि यही परमात्मा परमपिता परमेश्वर है। पुराण खुला रहेगा यही परमात्मा-परमपिता-परमेश्वर है। सारे ग्रन्थ जितने हैं अधिकतर खुले रहेंगे कि यही है और आपको लगेगा कि ये परमेश्वर है ! हम भी चुप हो जायेंगे। कह दीजिये कि गलत है, कह दीजिये नहीं देख रहे हैं। तो हँसा खेला देंगे घण्टा, दो घण्टा हम भी मजा ले लेंगे। तब जब सृष्टि उत्पत्ति, स्थिति संचालन वाला जब प्रक्रिया शुरू होगी, तब नो डाउट वाला स्थिति आयेगी। जब वो मिलेगा तो आश्चर्य की ज्यों मिलेगा। आश्चर्य माने झूठ नहीं, आश्चर्य माने अपने क्षमता-शक्ति से परे का। ऐसा विधान जो गलत भी न लगे और क्षमता-शक्ति अपनी पकड़ भी न सके। वो आश्चर्य कहलाता है। तो परमेश्वर किसकी क्षमता-शक्ति में पकड़ में आने वाला है। अरे ! वो खुद न पकड़वाये तो कौन पकड़ सकेगा उसको। परमब्रह्म परमेश्वर एक ऐसा अस्तित्व है कि स्वयं न जनावें पकड़ावे, तब ब्रह्माण्ड में कोई भी ऐसा नहीं है जो उसको पकड़ पावे, जान पावे।
जग पेखन तुम देखनिहारे। विधि हरि संभु नचावन हारे।।
तेउ न जाने मरम तुम्हारा। और को जाने जाननिहारा।।
सोइ जानत जेहू देइ जनाइ। जानत तुम्हहि तुम्हइ हो जाइ।
तुम्हरि कृपा तुम्हहिं रघुनन्दन। जानत भगत भगति उर चन्दन।।
तो परमेश्वर एक ऐसा चीज है, वो यदि न जनावे, वो यदि अपने को न पकड़ावे तो कोई भी ऐसा नहीं है तो जान-पकड़ सके। वही गूढ़ तत्त्व है। जो पार्वती कह रही हैं, पूछ रही है।

१५५. जिज्ञासु:- उस तत्त्व को जानने के लिये गुरु के प्रति शिष्य को कैसा होना चाहिये?

संत ज्ञानेश्वर जी:- पहले तो गुरु गुरु है ही नहीं । ज्ञान नहीं है तो गुरु कैसा? भगवान् के प्रति समर्पित शरणागत होना चाहिये। जब भगवान् के प्रति पूर्णतः समर्पित-शरणागत हो जायेंगे जो ज्ञान देने वाला है ज्ञानदाता वो जाँच करेगा कि आपका समर्पण-शरणागत में कोई लेकिन नहीं है तब आपको ज्ञान देगा। ज्ञान माने उस गूढ़ तत्व को प्रकट करायेगा। वो आपके सामने प्रकट होगा और तब जो भी चीजें पानी-मिलनी चाहिये परमेश्वर से उस गूढ़त्र तत्त्व से मिलते हुये दिखाई देगा। ब्रह्माण्ड में जो जो भी प्रार्थना उठा लीजिये, भजन उठा लीजिये, कीर्तन उठा लीजिये, प्रेयर ले लीजिये, नमाज ले लीजिये कहीं भी परमेश्वर प्राप्त वाले को परमेश्वर से जो मिलना चाहिये वो सब परमेश्वर से मिलता हुआ दिखाई देगा, उस गूढ़ तत्त्व से। सब दिखाई देगा मिलता हुआ। लेकिन पूर्णतः समर्पण-शरणागत उनके प्रति होना-रहना अनिवार्य है।
देखिये यानी जो धरती भरा-पूरा अन्न दे रही है न, उसका भी उसको लौटना पड़ता है फिर वो अन्न देती रहे। जल चढ़ता है शंकरजी के मत्था पर जिनके यहाँ गंगाजी बहती है। विष्णुजी के मत्था पर नहीं, और किसी देवता के मत्था पर नहीं। क्यों? बीज लौटाया जाता है कि आप अपना गंगाजी बहाते रहिये, धरती भरी-पूरी बनी रहे। भइया ये सारा भगवत् कृपा से ये जो कुछ भी बातें हुई है कम से कम भगवान् का जयकार बोलकर दो-चार शब्द उनको बोलकर उनको लौटा दिया जाय। ताकि फिर बना रहे। कैसा? बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय।
कुछ लोग सोचते होंगे परमेश्वर का जय हो जायेगा तो हम लोग, हम लोग मनमाना वाले, शैतान वाले वो बोल देगा तो हम लोगों का गड़बड़ ही मामला है। तो नहीं बोलेगा तो भी जय-विजय तो परमेश्वर के यहाँ दरबान होते हैं। जय-विजय तो उसका होना ही होना है। अरे बोलकर के थोड़ा वाहवाही अपने तरफ लेलेना है। बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय ! बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय !! बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय !!! सत्यमेव नानतम्। 

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