३१. जिज्ञासु:- अन्य महापुरुषों के नाम के पहले जो श्री
श्री १०८ या श्री श्री १००८ या जबकि आपके नाम के सामने एक भी श्री नहीं लिखा है।
इस रहस्य को जानने की मेरी जिज्ञासा है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की
जय sss। ये भइया देखिए श्री श्री वाली। ये जो एक
श्री वाले तो भगवन विष्णु हो गए। एक श्री रखने वाले तो भगवान् विष्णु हैं। अब ये
श्री श्री का ये जो शुरू हुआ ये जो लक्षण शुरू १०८। १०८ का अर्थ होता था। जैसे
अंकों में ज्ञान को एक संख्या में बोलना हो तो १०८ कह दीजिये संपूर्ण ज्ञान इस १०८
में है। १०८ का मतलब हुआ ८ जो ईकाई के स्थान पर है,
० दहाई के स्थान पर है, १ सैकड़ा
के स्थान पर है। दहाई ८ का मतलब हुआ अष्टधा प्रकृति ये जो पाँच पदार्थ है आकाश,
वायु, अग्नि,
जल, थल ये पञ्च महाभूत हो गए। और मन,
बुद्धि, अहंकार। ये अष्टधा प्रकृति भी
कहलाती है
गीता में इसको इसको अष्टधा प्रकृति कहा गया है। तो इस
आठ का अर्थ हो गया प्रकृति। सारा ब्रह्माण्ड। आठ का अर्थ,
संकेत है सारा ब्रह्माण्ड। ० का अर्थ है आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म जो निराकार है। उस
निराकार आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म का संकेत ० है और जो परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म है
उसका संकेत १ है। तो इस १०८ का मतलब था सम्पूर्ण ज्ञान। सम्पूर्ण ज्ञान। तो जो
ज्ञानीजन होते थे ऐसे महात्मन जो ज्ञानी महात्मा हैं,
ज्ञान-वैराग्य वाले हैं उनकी टाइटिल थी श्री श्री १०८ श्री अमुक। जैसे डाक्टर जो
पी-एचडी॰ कर लिया तों डाँ॰ फला। तो उसी तरह से उनकी टाइटिल हो गई डाँक्ट्रेट की।
उसी तरह से १०८ उनकी टाइटिल होती थी। अब कुछ जो है जिनको इनका रहस्य पता नहीं था
१०८ माने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सारा ज्ञान। प्रकृतिस्थ का ज्ञान,
आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म का ज्ञान और परमात्मा-परमेश्वर का ज्ञान,
तीनों ज्ञान स्थित हो जिनमें उसकी टाइटिल १०८ है। अब रही बातें जिसको इसका पता
नहीं था, अब साधु-महात्मन,
देखे कालीदास के तरह से। विद्योत्मा जब पंडितों को परास्त करने लगी और कही थी जो
पंडित हमको हरा देगा, उसी से शादी करूँगी। अब तो
पंडितों की बेइज्जती होने लगी। जो आता था वही परास्त होता था- जो आता था वही
परास्त होता था। अब सब पंडित मिलकर एक प्लान बनाए कि इसकी शादी ऐसे मूर्ख से करायी
जाए, ऐसे मूर्ख से करायी जाए कि इसका जीवन ही
बर्बाद हो जाए। अब मूर्ख खोजते-खोजते जंगल में एक ऐसा मिला कि जिस डाली पर बैठा था
उसी को काट रहा था। तो पंडितजी लोगों ने सोचा कि अब इससे बढ़कर मूर्ख कौन होगा?
अब
जो है उसी को धीरे-धीरे उतारे लोग और समझाकर-बुझाकर चलो मिठाई खिलायेंगे,
तुम्हारा ब्याह करायेंगे। पूरा उसको एकाध महीना सजाकर के खूब बढ़िया तब पगड़ी बाँधकर
पंडित का पोशाक पहना कर के और उसको खूब अभ्यास कराया गया। बोलना मत जो करना होगा,
इशारा करना। बोलना मत, तेरा ब्याह करायेंगे। तेरे को
खूब खाना खिलायेंगे, मिठाई खिलायेंगे। अब एक महीना तक
उसको खूब यही रटाया गया था। और खूब बड़ा पगड़ी बंधवाकर के सारे पंडित ले गए कि ये
हमारे गुरु हैं और एक महीना का व्रत लिए हैं। बोलेंगे नहीं इशारा में शास्त्रार्थ
करना है। अब जो है विद्योत्मा कही ठीक है तो विद्योत्मा एक उंगली उठाई कि ईश्वर
यानी परमेश्वर एक कि अधिक-अनेक? तो
मूर्ख कालीदास ने सोचा वह मूर्ख, हमारी
एक आँख फोड़ना चाहती है। जब एक उंगली देखा तो फट से दो उंगली उठा दिया। तू हमारी एक
फोड़ेगी तो हम तुम्हारा दोनों फोड़ देंगे। अब मचा हल्ला कि ईश्वर दो,
भक्त और भगवान् दो। अब होते होते पंडितजी लोगों की संख्या अधिक थी,
बाजी मर ले गए। तब फिर पाँचों उंगली उठाई। उसका मतलब था कि पंचभूत या और कोई चीज।
अलग-अलग रहकर के बलवान मजबूत होता है या एकीकृत होकर के?
सृष्टि रचना कैसे माने पाँच उठाकर के बोली। वो सोचे कि हमको चांटा मारने को कह रही
है। सोचा कि चांटा मारने को हाथ कर रही है। ये सोचा कि हम घूसा मारेंगे। जब चांटा
दिखाई तो हम घूसा मारेंगे। तब क्या पंडितजी लोग हल्ला मचाए। संघ में,
संघटन में- ‘संघे शक्ति कलयुगे’
। कोई कम संघटन से होगा, विघटन
से, अलग-अलग से नहीं होगा। जीत मान लिया गया। शादी
हो गयी। तो उसी तरह से अब कहानी तो और है। कालीदास तो काली के वर से हुए। यानी वो
बाद की बात है। अब यहाँ देखें महात्माजी लोग,
उपदेशक जी लोग, ये तो १०८ लिख रहा है तो हम १००८
लिखेंगे। इनके हम १० गुना हो जायेंगे। तो श्री श्री १००८ श्री। तो कोई श्री श्री
१०००८ श्री। तब सोचा सब की बढ़ते-बढ़ते क्या होगा?
तो करपात्री उठा बनारस का तो- ‘श्री
श्री अनन्त श्री’। अब आइए हमारे आगे। आइए। अब तो
अधिकतर लिख रहे हैं-श्री श्री अनन्त श्री। तो भइया यही तो १०८ श्री की कहानी है।
और हम जब एक भी श्री नहीं रखे हैं तो कहाँ श्री उसमें रहे। हमारे यहाँ ‘श्री’
साइड में है लोग। और बहुत श्री हैं हमारे यहाँ लोग। लेकिन साइड में हैं। हमारे जब
एक भी श्री नहीं रखे हैं तो वहाँ श्री दिखाकर क्या करेंगे?
बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की जय sss। हमारे
यहाँ श्री सब व्यवस्था के लिए हैं लोग। करती हैं,
होता है।
३२. जिज्ञासु:- क्या ब्रह्मा-विष्णु-महेश शरीरधारी हैं?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हाँ, किन्तु वे स्थूल शरीर नहीं, दिव्य शरीर वाले हैं।
जिज्ञासु :- क्या ईश्वर ब्रह्मा-विष्णु-महेश से ऊपर हैं?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- यहाँ ईश्वर के ऊपर या बड़े
अथवा नीचे या छोटे होने का प्रश्न नहीं है। परमेश्वर से आदि-शक्ति के जरिये
ईश्वरीय शक्ति प्रवाहित होती है, उसी से
क्षमता शक्ति की प्राप्ति होती है किन्तु यह क्षमता शक्ति व्यक्ति से व्यक्ति में
पात्रतानुसार भिन्न-भिन्न होती है। यह उसके धारणीय क्षमता पर निर्भर करता है। इसी
प्रकार ब्रह्मा-विष्णु-महेश की क्षमता-शक्ति जो उन्हें प्राप्त है वह मानव क्या
देव वर्ग से भी अधिक है इसलिए वे क्रमशः विधायिका के प्रधान,
कार्यपालिका के प्रधान और न्यायपालिका के प्रधान कहे-माने जाते हैं।
३३. जिज्ञासु:- स्वामी जी,
वेद को मनीषियों ने अपौरुषेय ग्रन्थ कहा है। आपका क्या ख्याल है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- जितने
भी सद्ग्रन्थ हैं, सब के सब ही अपौरुषेय हैं किन्तु
यदि भौतिक दृष्टि से देखा जाय तो कोई भी ग्रन्थ अपौरुषेय नहीं। यदि वास्तव में
तात्त्विक दृष्टि से देखा जाय तो----यदि ज्ञान दृष्टि से देखा जाय तो सारे
सद्ग्रन्थ ही अपौरुषेय होते हैं। मानवेतर (मानवीय स्तरसे परे) तो कोई भी सद्ग्रन्थ
पौरुषेय होता ही नहीं और मानवीय स्तर ही पौरुषेय है।
३४. जिज्ञासु:- अथर्व वेद के कितने मन्त्र मौलिक हैं और
कितने नहीं?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- वेदव्यास एक योगी थे इसलिए
गीता लिखते समय उन्होंने प्रत्येक अध्यायों में ‘योग’
शब्द घुसेड़ दिया है---कर्म योग, सन्यास
योग, बुद्धि योग,
ज्ञान योग, विषाद योग,
ज्ञान-विज्ञान योग आदि-आदि हर जगह अपना योग शब्द लाकर घुसेड़ दिया है,
जबकि श्री कृष्ण जी महाराज ऐसा नहीं कह सकते थे। अब यहाँ यह देखना है कि किसी भी
ग्रन्थ के लेखक का अपना स्तर क्या है। निश्चित ही ग्रन्थ लेखन में उसका अपना स्तर
अवश्य ही छाप डालेगी और यहीं मौलिकता लुप्त होने लगती है। यह तभी पता चलता है जब
सर्वोच्च ज्ञान रूप भगवद् ज्ञान रूप तत्त्वज्ञान से गुजारा जाय और प्रत्येक स्तर
की यथार्थ स्थिति जानी-समझी जाय। ठीक इसी प्रकार किसी भी ग्रन्थ के उन
मंत्रों-श्लोकों को सामने से गुजरना पड़ेगा तब कहीं पता चलेगा की कितना ऋषि द्वारा
प्रक्षिप्त अथवा मिलावट है और कितना मौलिक।
३५. जिज्ञासु:- किसी भी ग्रन्थ के मौलिकता को यथार्थ
स्थिति दिखाने के लिए किसी सन्त-महात्मा को ऐसा कुछ करना चाहिए जिससे उसका मौलिक
रूप सामने आ जाये।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हाँ,
अब ऐसा होगा ही और हो ही रहा है। जो भी ग्रन्थ संशोधित किया जायेगा उसके मौलिकता
के रूप में-----उसे उसी ग्रन्थ द्वारा प्रमाणित करते हुए किया जायेगा। अर्थात्
संशोधन भी, सच्चाई का प्रमाण भी उसी ग्रन्थ
से लिया-दिया जायेगा।
३६. जिज्ञासु:- परमेश्वर इतना सर्वशक्तिमान है कि उसे
अवतार लेने की क्या आवश्यकता है? वह तो
जहाँ है वहीं से ही सब ठीक-ठाक कर सकता है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- प्राकृतिक विधान जब मानवीय
विधान से प्रक्षिप्त एवं प्रदूषित हो जाता है अर्थात् ब्रह्माण्डीय-विधान जब
मानवीय विधान (मानवीय व्यवस्था) से प्रदूषित हो जाता है,
तब दैवीय विधानानुसार ठीक-ठाक किया जाता है। किन्तु यह प्रदूषण जब बहुमुखी पतन
लेकर फैल जाय और विशेष रूप से जब धरती पर अनेकानेक
परमात्मा-परमेश्वर-भगवान-खुदा-गॉड बनना शुरू हो जाते हैं तब देव वर्ग भी भयभीत हो
जाता है यहाँ तक कि आदिशक्ति भी भयभीत हो जाती है। क्योंकि परमात्मा-परमेश्वर का
अवतार परमगोपनीय विधान के अन्तर्गत होता है। वे देव वर्ग अथवा आदिशक्ति यह नहीं
समझ पाते कि वास्तव में वास्तविक परमात्मा-परमेश्वर उनमें कौन है। इसलिए वे उन
बनने वाले ‘भगवानों’
को भयवश रोक-टोक नहीं पाते। ऐसे अवसर पर ब्रह्मा-शंकर-नारद एवं स्वयं आदिशक्ति
(महामाया या मूल प्रकृति या अव्यक्त प्रकृति ) के पुकार पर वह परम प्रभु धरती पर आ
जाता है और किसी एक मानवीय शरीर को अधिग्रहीत कर क्रियाशील हो सारी दूषित
व्यवस्थादि को ‘ठीक ठाक’
करता-कराता है। अब आप कहें कि उसे एक जगह बैठे ही सब कुछ कर देना चाहिए तो जरा
देखिए कि प्रधानमन्त्री एक जगह बैठे ही अपने शासन-प्रशासन के अन्तर्गत क्या नहीं
कर सकता है फिर उसे किसी स्थिति परिस्थिति में किसी विशेष घटना-दुर्घटना स्थल पर
जाने की क्या आवश्यकता है? आखिर
वहाँ जाकर वह क्या करता है? जो करता
है वह तो दिल्ली में बैठे ही कर सकता है। ठीक उसी प्रकार परमात्मा भी अपने वहाँ से
सब कुछ कर सकता था, मगर भक्तों से मिलने और दुर्जनों
को समझाने-‘ठीक’
करने करवाने हेतु धरती पर आ जाता है। यदि वह ऐसा न करे तो सृष्ट्यान्तर्गत कोई हो
ही नहीं जो उसे तत्त्वतः जन-देख पाये तथा सृष्टि-ब्रह्माण्ड के किसी भी विषय-वस्तु
की रहस्यात्मक जानकारी प्राप्त कर सके। फिर उस परमप्रभु द्वारा चालित-संचालित
उन्मुक्त एवं सच्चा जीवन पद्धति रूप धर्म को समाज में कैसे लागू किया जा सकता है
अर्थात् नहीं लागू किया जा सकता है।
३७. जिज्ञासु:- और जगहों पर क्या अधर्म-अन्याय-अत्याचार
(प्रदूषण) नहीं होता कि परमात्मा-परमेश्वर भारत में ही अवतरित होते हैं।
सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस:- अब
सवाल यह है कि चाहे आन्ध्र के पी॰वी॰ नरसिंह राव हों,
चाहे लखनऊ के अटल बिहारी वाजपेयहों,
प्रधानमन्त्री पद पर ये दिल्ली के ही क्यों हो जाते हैं?
अब कहा जाय कि सभी प्रधानमन्त्री दिल्ली ही में क्यों चले जाते हैं,
अलग-अलग जगहों पर क्यों नहीं जाते? जैसे
मुख्यमन्त्री हर प्रदेश में होते हैं पर कोई भी प्रधानमन्त्री दिल्ली को ही सटता
है। वैसे ही अंशावतारी प्रौफेट-पैगम्बर तो सभी प्रान्तों देशों में आवश्यकतानुसार
आते या भेजे जाते ही रहते हैं लेकिन पूर्णावतार सुसंस्कृत भारत में वह भी भारत के
उ॰प्र॰ में जहाँ की संस्कृति सम्पूर्ण विश्व में फैली है,
उसमें ही अवतरित होता है। उ॰प्र॰ ही भगवान् के अवतार की भूमि है।
३८. जिज्ञासु:- श्रीराम और श्रीकृष्ण जी क्या
पूर्णावतार अथवा साक्षात् परमब्रह्म परमेश्वर ही थे?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हाँ, जिनके एक अंश से
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति दूसरे अंश से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का चालित होना
और तीसरे अंश से नियंत्रित होता रहता है, वह परमब्रह्म-परमेश्वर सम्पूर्ण अंशी रूप वाला ही
श्रीविष्णु-श्रीराम और श्रीकृष्ण के रूप में अवतरित हुया था जिसमें श्रीराम और
श्रीकृष्ण नर रूप में साक्षात् पूर्णावतार थे।
३९॰ जिज्ञासु:- उस परमात्मा की तो कोई प्रतिमा नहीं
होती?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हाँ,
अब आप ही बताइये कि वह परमात्मा एक सर्वोच्च-शक्तिसत्ता है। वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों में ही नहीं रहता है, वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों से अलग
रहने वाला है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों का उत्पत्ति-कर्ता-रचयिता है। जब यह ब्रह्माण्ड
नहीं था तब भी वह वैसा ही था जैसा अब है फिर उस परमपिता परमात्मा-परमेश्वर-भगवान-खुदा-गॉड
का प्रतिमा कैसा? प्रतिमा भगवदवतार का होता है,
भगवान् का नहीं।
४०. जिज्ञासु:- परमात्मा जब धरती पर अवतरित हो जाता है
तब सृष्टि का चालन-संचालन कैसे होता है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- जार्ज बुश यदि अमेरिका छोड़कर
भारत में आयें, अथवा अटल बिहारी भारत से
इंग्लैण्ड जायें तो क्या उनका शासन-प्रशासन बन्द हो जायेगा?
प्रधानमन्त्री यदि लन्दन में रहेंगे तो उनकी एक
आफिस तो उसके साथ ही सटा रहेगा। वहीं से सारा शासन-प्रशासन होता रहेगा और वह भारत
से पूरा का पूरा सम्बन्ध बनाये रहेंगे। यदि कोई बात या आपात स्थिति पैदा हो जाती
है तो वह अपने प्रोग्राम को स्थगित कर तत्काल भारत वापस भी आ जायेंगे।
४१. जिज्ञासु:- जो शक्ति सारे ब्रह्माण्ड को
चालित-संचालित कर्ता है वह जन्म तो नहीं लेता?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- यह तो वह कहता है जो अपने
शरीर में रहने वाले जीव को ही नहीं जनता-देखता है तो फिर उस सर्वोच्च-सर्वोत्कृष्ठ
एवं सर्वोत्तम परम शक्ति-सत्ता के विषय में क्या जानेगा?
अर्थात् कुछ नहीं जानेगा। लेकिन जो जीव तो जीव है,
ईश्वर को भी तथा उसके उत्पत्ति कर्त्ता परमेश्वर (उस सर्वोच्च शक्ति-सत्ता) को भी
जनता-देखता और बात-चीत करता है, वह तो
यही कहेगा कि परमात्मा-परमेश्वर जन्म नहीं लेता बल्कि अवतरित होता है।
४२. जिज्ञासु:- यदि श्रीकृष्ण और श्रीराम परमात्मा के
अवतार होते तो आज उनके नगरी में धर्म के नाम पर इतना खून-खराबा नहीं होता। और
परमात्मा के अवतार के बारे में वेद भी समर्थन नहीं देता !
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- असत्य-सत्य की लड़ाई,
अधर्म-धर्म की लड़ाई तो हमेशा से होती रही है। वेद में भी देवासुर संग्राम का वर्णन
है। और जब श्रीराम-कृष्ण थे तो असत्य-अधर्म को समाप्त कर सत्य-धर्म संस्थापित कर
दिये ही थे तब टकराव कहाँ रह गया था। फिर इस असत्य-अधर्म-अन्याय-अनीति की दुनिया
में जहाँ चारों तरफ असत्य-अधर्म-अन्याय-अनीति ही भरा हो,
ऐसे दुनिया में जहाँ सत्य-धर्म स्थापित होगी वहीं न ये असत्य-अधर्म वाले अपने प्रतिकूल अर्थात् सत्य-धर्म वाले से ही तो टकरायेंगे—और यह टकराव वहीं होगा
जहाँ सत्य-धर्म का संस्थापित केन्द्र होगा। इसके बावजूद भी सत्य-धर्म स्थिर बना
रहे—यही तो उसकी सत्यता का पुष्ट प्रमाण है।
रही बात वेद के अवतार सम्बन्धी समर्थन का,
तो आप महाभारत में ईसा-मूसा-मोहम्मद का वर्णन खोजें तो मिलेगा?
नहीं। तो क्या यीशु-मूसा-मोहम्मद गलत हो गये?
श्रीमद्भागवत् पुराण में आप बुद्ध-कबीर-शंकाराचार्य आदि को खोजें तो मिलेंगे?
नहीं। तो क्या बुद्ध कबीर-शंकराचार्य आदि को खोजें तो मिलेंगे?
नहीं। तो क्या बुद्ध कबीर-शंकराचार्य आदि गलत हो गये?
आप रामायण में श्रीकृष्ण जी का वर्णन खोजें तो वहाँ नहीं पायेंगे तो श्रीकृष्ण जी
गलत हो गये? पूर्व ग्रन्थों में पश्चात् गाथाओं-कथानकों का वर्णन कैसे हो सकता है?
वेद आदि-ग्रन्थ हैं, अवतार उसके बाद में हुआ है।
४३. जिज्ञासु:- आग कितने लोगों को बताती है कि मैं आग
हूँ, सूर्य कहाँ कहता है कि मैं सूर्य हूँ,
लेकिन दुनिया उनको जान जाती है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- सवाल ये है कि दो विभाग
है---जड़ और चेतन। जड़ में गतिशीलता होती है क्रियाशीलता नहीं। क्रियाशीलता चेतन से
है। आग और सूर्य तो जड़ पदार्थ हैं। उन्हें तो यही नहीं मालूम कि ‘मैं
आग हूँ’ या ‘मैं
सूर्य हूँ’। वे क्या बतायेंगे कि 'मैं सूर्य हूँ' या 'क्या हूँ' वह तो दुनिया है जो सूर्य को जानती है वह भी किसी से ज्ञान अर्थात्
जानकारी प्राप्त करके ही।
जिज्ञासु:- पाषाण भी जड़ पदार्थ है,वह
भी नहीं बोलता, फिर जल क्यों चढ़ाते हैं?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- जल पाषाण पर नहीं चढ़ाते बल्कि शिव को चढ़ाते हैं। पिक्चर ट्यूब, आईसी, ट्यूनर, सर्किट, ट्रांसफार्मर, ट्रांजिस्टर, कैवीनट आदि सब मिलकर टी॰वी॰ कहलाता है किन्तु आप टी॰वी॰ नहीं देखते हैं। देखते हैं दिल्ली में बोलते प्रधानमन्त्री को। टी॰वी॰ से उन्ही का प्रतिविम्ब आता है जिसे ‘इमेजेज आफ द ओरिजनल्स’ कहते हैं जो ओरिजनल से प्रवाहित होने वाली सूक्ष्म शक्ति से लिन्क में है। उसी प्रकार सूक्ष्म क्षमता शक्ति प्रवाहित है उस पाषाण (शिव लिंग) में। क्षमता शक्ति तो सभी परमाणु में ही प्रवाहित है।
४४. जिज्ञासु:- सद्गुरुदेव तो सद्गुरुदेव जी होते हैं।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- सद्गुरु कैसा?
जो अपने को जनता ही नहीं, वो सत्य
क्या बतायेगा? जिस सतपाल को अपने हम का अता ही पता नहीं है, जीव का पता है सतपाल को?
जीव क्या होता है? कैसा होता है?
जिसको हम जीवो का पता ही नहीं। अरे वो गुरु ही नहीं हुआ,
सद्गुरु कैसे हो जायेगा? यही
ज्ञान सत्यज्ञान है? कि सब भगवान् हैं। तो सतपाल ही
भगवान् तो आप क्यों नहीं? आप भी
तो सोsहँ की शरीर है। सतपाल भी तो सोsहं ही की शरीर है। हर जीवित प्राणी सोsहँ
की शरीर है। ये लड़के-बच्चे भी सोsहँ की
शरीर है। तो ये लड़के-बच्चे भगवान् क्यों नहीं,
ये सतपाल ही भगवान् कैसा? आप
भगवान् क्यों नहीं? एक भगवान् ज्ञानी,
एक भगवान् अज्ञानी ! भगवान् दो। एक सोsहँ
अज्ञानी, दूसरा सोsहँ
ज्ञानी। ये धूर्तबाजी है,
धूर्तबाजी। ये छलावा है इन गुरुओं का। ये छलावा है,
धूर्तबाजी है, क्या नारद बाबा सोsहँ-हँस
नहीं थे? क्या शंकर जी हँस नहीं थे?
क्या उस समय सोsहँ वाले लोग नहीं थे?
जो सब मिलकर पुकार किये---जय जय सुरनायक जनसुखदायक,
प्रणतपाल भगवंता। ये सोsहँ वालों
की पुकार पर वो आकाशवाणी किसकी थी? कि जनि
डरपहु मुनि सिद्ध सुरेशा,
तुम्हहिं लागि धरिहउनरवेसा।। ये आकाशवाणी किसकी थी?
सोsहँ कि थी?
ये सोsहँ की थी?
४५. जिज्ञासु:- परमब्रह्म की।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- परमब्रह्म की थी। वो
परमब्रह्म कौन था? ये सोsहँ
वालों से तो ऊपर था न? वो भगवान् है कि ये सोsहँ
भगवान् है?
४६. जिज्ञासु:- भगवान् तो परमब्रह्म भगवान् है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी :- जब सब सोsहँ
भगवान् है तो अवतार कैसा? अवतार
किसका? सोsहँ
का कहीं अवतार होता है? सोsहँ
तो एक क्रिया है, सोsहँ
तो एक सहज स्थिति है किसकी? आत्मा
की जीवमय पतन और विनाश में जाने वाली। सोsहँ
एक बात गौर कीजिये। मान लीजिये आप स्वास-निःस्वास की क्रिया बता रहे हैं। स्वास के
माध्यम से सः अन्दर आता है। हं बनकर के बाहर जाता है। तो सः अहं बन रहा है न?
सः आकर के अन्दर हं बन रहा है न?तो
ये अहंकार बढ़ाने वाली क्रिया है कि ये अहंकार मिटाने वाली?
बाहर से सत्ता-शक्ति आकर के हम को मिलेगा तो हम बलवान होगा कि कमजोर होगा। हम लोग
पुछ रहे हैं उसकी बात कीजिये। सः रूपी सत्ता-शक्ति अन्दर आकर हम को जब मिल रही है
तो हम रूपी अहंकार तो बढ़ेगा ही बढ़ेगा न? तो
अहंकार बढ़ाने की जरूरत है कि मारने की? जो पूछ
रहे हैं अहंकार मारना है कि बढ़ाना?
४७. जिज्ञासु:- अहंकार मारने के लिये।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अहंकार मारने गये थे न। अरे
उस गुरु की बात कह रहे हैं जो सद्गुरु जी
कह रहे हैं। वो साधना, ये स्थिति अहंकार बढ़ाने वाली है,
पतन-विनाश को ले जाने वाली है कि आपको कल्याण करने वाली है कि आपको कल्याण करने
वाली है?
४८. जिज्ञासु:- जो स्वास लेते हैं वो ठंडी है। अहंकार
को मारते हैं, हं जो है बाहर निकलता है,
बाहर जाता है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- एक बात गौर करेंगे। हैं तो आप
हम ही न? हम आके हम मरा।
४९. जिज्ञासु:- हम तो भागा जा रहा है महाराज।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- कहाँ भाग कर जा रहा है?
५०. जिज्ञासु:- स्वास के द्वारा भाग कर जा रहा है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- कहाँ जा रहा है भागकर?
५१. जिज्ञासु:- वातावरण में।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अब जब हम भाग ही गया तो ये
बोल कौन रहा है?
५२. जिज्ञासु:- जीव है वो बोल रहा है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- जीव हो तो हम है। भागकर कहाँ
जा रहा है?
५३. जिज्ञासु:- चक्कर चल रहा है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- किसका चक्कर चल रहा है?
५४. जिज्ञासु:- ईश्वर का।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- ईश्वर का चक्कर नहीं,
ये परमेश्वर का चक्कर होता है। ये स्वास आ कहाँ से रहा है?
५५. जिज्ञासु:- ब्रह्माण्ड से?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- ब्रह्माण्ड में कहाँ से?
५६. जिज्ञासु:- उसी की देन है सब।
संत ज्ञानेश्वर जी:- किसकी?
५७. जिज्ञासु:- प्रभु की।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- वो प्रभु कौन है?
५८. जिज्ञासु:- संसार का रचयिता वही है सब।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- जब वह कोई है न। ये सोsहँ
तो नहीं है वह?
५९. जिज्ञासु:- नहीं।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- तो सोsहँ
को भगवान् मानकर क्यों चल रहे हैं? जब सोsहँ
भगवान् ही नहीं है तो ये सतपाल कहाँ से भगवान् आ गया?
६०. जिज्ञासु:- महामंत्र है महाराज।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- महामंत्र तो इन साधु लोगों का,
इन उल्टा जाप करने वाले मतिभ्रम लोगों का है न,
ये तो मतिभ्रष्टता है न? सोsहँ
साधना एक मतिभ्रष्टता है, कोई
साधना तो है नहीं? कोई ऐसी साधना होती है जो
पतन-विनाश को ले जाय। सः हं बनकर के और शरीरमय हो रहा है,
ये तो पतन विनाश नहीं तो और क्या है? सः का
अहं होता हुआ इन्द्रियों को बल देना, शरीर को
बलवान बनाना, शरीर को सामर्थ्यवान् बनाना,
ये पतन विनाश नहीं है तो और क्या है? सः का
हं बनना, सः सरलमय ऊर्जा बनना ये पतन
विनाश नहीं है तो उत्थान है क्या? अरे
शरीर को हं बनाना है, अहं को सः बनाना है,
सः को परमप्रभु में मिलाना है। तब न उत्थान कल्याण होता। ये तो पतन और विनाश है।
नहीं है, क्या लग रहा है आपको?
तो ये भगवान् कैसे हो जायेगा?
६१. जिज्ञासु:- माध्यम है महाराज।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- किसका माध्यम ?
जिज्ञासु :- अपने आप के माध्यम से।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- किसका माध्यम ?
जिज्ञासु :- अपने आप के माध्यम से।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:-
नहीं, नहीं, नहीं, डाकिया कहीं पिता बन
जायेगा, रुपया
देने वाला। वह है एक डाकिया, यानी रुपया है पिताजी का बेटा के लिये। बीच में एक
नौकर है गुरु,
डाकिया। वो पिताजी वाला रुपया लाकर बेटे को देता है। ज्ञान है भगवान् का मिलेगा
कृपापात्रों को,
जिज्ञासुओं को, गुरु
तो एक डाकिया है। भगवान् का ज्ञान भगवान् के कृपा पात्रों को मिलना है। तो गुरु
कहाँ से आ गया बीच में?
६२. जिज्ञासु:- महाराज जब तक माध्यम नहीं होगा कैसे
होगा?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- माध्यम अगर भगवान् नहीं
चाहेगा तो हम हो कौन जायेंगे?
भगवान् चाहेगा तभी हम गुरु बन पायेंगे। भगवान् हमें
ज्ञान ही नहीं देगा तो हम ज्ञान किसका दे देंगे?
भगवान् हमारा ज्ञान ही ले लेगा तो हम ज्ञान कहाँ से लाकर देंगे आपको?
भगवान् की कृपा से ही भगवान् का ज्ञान मिलना है और वही ज्ञान हमको आपको देना है तो
ज्ञान हमारे बाप-दादा का हो गया क्या? ज्ञान
तो भगवान् का है। मिलना भगवत् कृपा पात्र को है। ये हम अपने आपको भगवान् कहके बीच
में बिचोलिया घुसेड़ दें। ये बिचोलिया घुसेड़ दें। इसका माने क्या?
६३. जिज्ञासु:- वेद,
शास्त्रों में महाराज............
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- वेद-शास्त्रों के विरुद्ध मैं
बोल रहा हूँ क्या? देखिये वेद और उपनिषद्,
पुराण में कहीं सोsहँ जपने का नहीं है।
६४. जिज्ञासु:- तुलसीदास जी ने भी कहा है
कि...............
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हम जो बोल रहे हैं। इसको
सुनने का कोशिश कीजिये। वेद, उपनिषद्
और पुराण में कहीं सोsहँ जपने का विधान नहीं है। कोई
दिखा दे। ये सब वेद विरुद्ध है।
६५. जिज्ञासु:- हमें उतना अध्ययन नहीं है महाराज।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- अध्ययन वालों को बुला लीजिये।
अध्ययन वालों को बुला लीजिये। सतपाल सिवान में ये असुर मिला था,
सन् 79-80 में। ये जो है मिला था और मुश्किल से 10 मिनट के वार्ता के बाद प्रेमनगर
आइये न, प्रेमनगर आइये न। कुल इसकी
हेंकड़ी ही गायब हो गयी। क्या जानता है ये?
सिवाय शोषण, दोहन के समाज का ठगी,
बटमारी के सिवाय और क्या कर सकता है? हम आप
से पूछ रहे हैं। आश्रम शिष्यों का है कि सतपाल का है?
६६. जिज्ञासु:- शिष्यों का है महाराज।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- शिष्यों का है तो शिष्यों को
टिकट कैसा? अपने घर में घुसने का अपने टिकट?
अपने घर में घुसने का अपने टिकट? बिना
टिकट के घुस जायेंगे क्या उसमें? कैसा
आपका? कैसा आपका?
६७. जिज्ञासु:- हर जगह तो नहीं है लेकिन हरिद्वार में
मेला है इसलिये........
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- मेला माने क्या?
मेला है तो अपने घर में नहीं जायेगा? आप
हमारे लोगों से पूछिये कि हरदम तुम-तड़ामकर रहे हैं,
डांट रहे हैं किन्तु क्यों नहीं अकड़ के रहते हो?
क्यों यहाँ रह-रहाते हो? अभी-अभी
आया है थोड़ा लेट हुआ है। इन सबों को डांट ही तो रहे थे। ये जो पीछे बैठा है ये सब
जो कर-करा रहे हैं। इन सबों को डांट ही तो रहे थे कि आप लोग क्यों नहीं यहाँ रहते
हो? ये असली घर है। तुम लोगों का असली घर है। अब
यही सब कर-करा रहे हैं और यही इन सब से टिकट लूँ?
ये आश्रम में है कोई टिकट का? ये
आश्रम में है कोई टिकट का? अपने घर
घुसने के लिये अपने को टिकट?
६८. जिज्ञासु:- बहुत विशाल जनसमुदाय है महाराज।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- विशाल जनसमुदाय का मतलब
लूटपाट? विशाल परिवार माने लूटपाट?
६९. जिज्ञासु:- व्यवस्था बहुत मुश्किल है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- व्यवस्था माने क्या?
अरे शिष्य दे ही रहे हैं, चन्दा आ
ही रहा है, रसीदे कट ही रही हैं। तो
व्यवस्था में क्या लेकिन? वो नहीं
घर है, चन्दा तोहरे नाम पर कट ही रहा
है। वो अपने आ ही रहा है। लग रहा है ये कौन बात हो गयी?
ये तो ठगाई के विभिन्न माध्यम है न?
एक बात बता दीजिये कि आखिर इस संस्था में किसी ने
रसीद नाम का कोई चीज किसी से जाना-सुना है?
रसीद किस बात का? जब शिष्य को ही सब करना-कराना है,
वो करेगा, करेगा। ये चन्दा कि क्या जरूरत?
जब रसीदें कटी है तो टिकट किस बात का? कहाँ
कार्यक्रम की रसीदें पहले नहीं कट जाती?
कार्यक्रम की सभी रसीदें तो पहले ही कट जाती है। ये आने पर लूटपाट कैसा?
७०. जिज्ञासु:- महाराज आया हूँ,
छोड़कर सामान कोई इधर-उधर ले जायेगा। सब पूरा बिखरा पड़ा है लेकिन एक इधर से उधर
नहीं हुई।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- सुनिये। सवाल है कि उनको तो
रोज कुछ मिल ही रहा है आप कुछ पाने के लिये आये हैं। तो आपके समनवे आपके चुरा ले
गये तो आपको खुश होना चाहिये कि जो हमारा नहीं था,
वो ले गया और जो आपका होगा वो आपका होगा वो कोई लेगा ही नहीं। जो आपका होगा कोई
लेगा नहीं, यदि कोई ले लिया इसका मतलब वो
आपका था नहीं, वो ले गया। इसलिये जो है वेद
विरुद्ध है। ये सही है कि कबीर ने इसी का प्रचार किया। ये सही है कि तुलसी ने किया,
सहजो ने किया। नानकदेव जी ने किया। असल में अन्त में जाकर के सब मिसिंग कर जाते
हैं। नानकदेव जी ने कहा है एक पद है कि.........
शब्द ही धरती,
शब्द ही आकाश, शब्द ही शब्द भयो प्रकाश।
सगली सृष्टि शब्द के पाछे,
जब ये सृष्टि ही शब्द के बाद की है,
जब कोई था ही नहीं, तो सोsहँ
कहाँ था? जब कोई आदमी रहेगा तब न भीतर सोsहँ
रहेगा। जब कोई था ही नहीं, तो सोsहँ
कहाँ था? बिना आकृति का सोsहँ
शब्द बनेगा? जब सब सृष्टि पाछे हुई है तो
उसके पहले जो था, वो कहाँ था और नानक शब्द घटाघट
आछे।। तो वो घटा-घट था कहाँ? जब
सृष्टि थी ही नहीं तो ये घट कहाँ था? जब शरीर
ही नहीं थी तो था कहाँ? सोsहँ
तो शरीरधारी है न? शरीर में ही तो ये क्रिया होगी,
जब शरीर थी ही नहीं, तो ये कहाँ था?
तो लास्ट में जाकर के मिसिंग हो जाती है। ये तीनों पंक्तियाँ एकदम सही है। शब्द ही
धरती, शब्द ही आकाश। शब्द ही शब्द भयो
प्रकाश, सगली सृष्टि शब्द के पाछे,
नानकदेव जी साधारण व्यक्ति नहीं थे,
अंशावतारी थे, अंश रूपी अवतार थे,
आद्यशंकराचार्य अंश रूपी अवतार थे, कबीर
अंश रूपी अवतार थे ईसा मसीह, लेकिन
लास्ट में सब उपदेश देते-देते लास्ट में मिसिंग हो गई है,
जहाँ परमात्मा परमेश्वर का संकेत करना है,
वहीं ये लोग भूल किये, मिसिंग किये और जाने-अनजाने
भगवान् बनने की ललक में,
परमात्मा बनने की ललक में। जो नहीं होना चाहिये था। ये याद रहना चाहिये था कि ये
वर्णन किया गया है कि परमात्मा परमेश्वर अकाल पुरुष है,
सत्पुरुष है, वो परमात्मा परमेश्वर है,
कोई शरीर नहीं।
जब तक चिन्तन रहेगा तब तक योग-योग है ही नहीं। जब
तक चिन्तन रहेगा, विचार-चिन्तन रहेगा योग-योग हो ही नहीं सकता। वहाँ तो कोई योग की क्रिया भी नहीं है। वहाँ तो बत्ती जला दिया,
वो धुआँ करती है कि नहीं? हम जो
पूछ रहे हैं उसको बोलो न वो डिब्बा बैट्री वाली खरीदी है कि सुराख वाली बिन्दी
वाली, बैट्री वाली?
बिजली वाला। वो बिजली वाला डिब्बा जो आप लगाती हैं और उसमें जो छेद जो रोशनी उसकी
अति है उसी को न देखती हो, वही न
ध्यान क्रिया है?
७१. जिज्ञासु:- वो तो हम घर बैठकर नहीं देखते।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- वो मैं नहीं पूछ रहा हूँ,
वो डब्बा लायी है कि नहीं लाई है?
७२. जिज्ञासु:- नहीं,
वो मैं अभी नहीं लाई।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- वो दिवलवा पर टांगी है कि
नहीं?
७३. जिज्ञासु:- वो
तो तस्वीर छपी हुई थी उसे दिखाया गया।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- है
न। वो डब्बा के सुरखवा में न दिखाया जाता है। जो रोशनी अति है।
७४. जिज्ञासु:- हाँ।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- वो
ध्यान की क्रिया है? ये ध्यान
की क्रिया है? ये तो परसियन क्रिया है,
जो पारसी समाज करता है, मोमबत्ती जला दिया और उसकी लौ पर
ध्यान करना। लोगों को त्राटक देखना शुरू कर दिया। ये त्राटक है कि ये ध्यान है? ये तो त्राटक क्रिया है ये ध्यान कहाँ
है?
७५. जिज्ञासु:- सब सम्बन्धों का
मूल, आत्म स्वरूप में स्थित होकर, बुद्धि में ज्योतिबिन्दु परमात्मा शिव की स्नेह युक्त स्मृति रखना ही
वास्तविकता योग है। योग स्मृति का नाम है? बुद्धि में स्मृति
रखना योग होता है?
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- हम
जो पूछ रहे हैं, बुद्धि में स्मृति
रखना योग होता है? ये कोई योग की क्रिया होती है? और देखो यानी छोटी ज्योति आत्मा और बड़ी ज्योति परमात्मा? ये है न? छोटी ज्योति आत्मा है, बड़ी ज्योति परमात्मा है? यही न? शिव तो ज्योतिबिन्दु का नाम है न? ज्योति रूपी
बिन्दु है उसका न नाम शिव है परमात्मा है? तो क्या उस बिन्दु
रूपी ज्योति से छोटी कोई ज्योति होती है? बिन्दु रूपी जो
ज्योति है जो शिव परमात्मा है उससे भी छोटी कोई ज्योति है क्या? उससे सूक्ष्म तो कोई ज्योति होगी क्या? नहीं होगी न? तो फिर आत्मा क्या है? जब ज्योति बिन्दु रूप
परमात्मा है तो ये छलावा, धोखा-धड़ी है कि नहीं? छोटी ज्योति आत्मा, बड़ी ज्योति परमात्मा। कोई
ज्योति होगी तो बिन्दु से बड़ी होगी न? कोई ज्योति का बिन्दु
होगा तो ज्योति तो बिन्दु से बड़ा ही होगा न? ये
आत्मा-परमात्मा समाज का छलावा, धोखा है कि नहीं? ये ज्योति को ही आत्मा और परमात्मा कहना और ज्योति बिन्दु रूप शिव
परमात्मा होता है तो ये कोई ज्योति से बड़ी ज्योति है कि बड़ी ज्योति है?
७६. जिज्ञासु:- है तो पर इसे
करने से अनुभव होता है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:-
चूँकि ज्ञान पायी नहीं हो तो जो पाई हो वो सही है। जानना-जाँचना जरूरी है कि नहीं
जो पाये हैं सही है कि गलत है? एक
बार जाँच तो करना चाहिए न? और हम क्या कर रहे हैं करने को? जो पाई हो वो सही है कि गलत है इतना जानना जरूरी है कि नहीं? ये जानना जरूरी है कि नहीं?
७७. जिज्ञासु:- नहीं, जानना जरूरी है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- तो
और मैं क्या कह रहा हूँ? ये जानने
को कह रहा हूँ कि ये गलत है, झूठ है। हम करें जो कह रहे हैं
वो गलत है झूठ है। सही उसके जगह पर क्या है? एक बार जानकर
दोनों कि तुलना कर लो।
७८. जिज्ञासु:- बस हमने तो मठ
का नाम लिया, हमें तो दर्शन हुये बस
हमने तो यही सोच लिया कि बहुत बढ़िया देखा था।
सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी
सदानन्द जी परमहंस:- सब लक्ष्मी ही बस हो और वो कौन सी हैं? उनकी सरस्वती?
उनकी सरस्वती कौन सी हैं? जो प्रिय सेविका थी। सब तो लक्ष्मी
है तो वो कौन से चीज है? सब नारायण हैं तो लेखराज कौन हैं? ब्रह्मा का भी कहीं अवतार होता है? ब्रह्मा का कहीं
अवतार होता है? अवतार तो भगवान् का होता है न? ब्रह्मा का अवतार कैसा?
७९. जिज्ञासु:- वे श्रीकृष्ण
जी बने थे।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- ये
धोखा है न? कृष्ण जी का नाम लेना, आप अपने संग्रहालय में देखी हो कि नहीं? कृष्ण
भगवान् नहीं है। ये तो जन्म ले रहा है। भगवान् अजन्मा है। कृष्ण भगवान् नहीं है।
ये तो खेल रहा है। भगवान् तो सबको खेलाता है। खिलाड़ी
है। कृष्ण भगवान् नहीं है। ये तो पढ़ने जा रहा है संदीपन के यहाँ। भगवान् तो
सर्वज्ञ होता है। तो एक तरफ तो भीतर जो घुसेगा तो कृष्ण भगवान् नहीं है और बाहर
फोटो खिंचाया जायेगा कि कृष्ण भगवान् है। इतनी धूर्तबाज घृणित संस्था है ये। ये
मुखौटा लगाती है भगवान् कृष्ण का और भीतर कृष्ण को नकार कर के लेखराज को ला देती
है। क्या ये झूठ है कि गलत है या सही है? बाहर
सारा मुखौटा है भगवान् कृष्ण का और भीतर जैसे घुस जाइये तो कृष्ण को नकार करके लेखराज
को करके रख दिया गया। ऐसा है कि नहीं? ऐसा
होना चाहिये?जब लेखराज भगवान् है तो बाहर भी
लेखराज का प्रचार करो। जब लेखराज ही भगवान् है तो अपने बाहर भी गेट पर भी लेखराज
का प्रचार करो और जब बाहर गेट पर कृष्ण का प्रचार..............
८०. जिज्ञासु:- आत्मा को ही बताया है,
आत्मा ही भगवान् है।
सन्त ज्ञानेश्वर जी:- वो आत्मा न,
जीव क्या है? जीव कुछ नहीं?
जन्म-मृत्यु किसका होता है? नरक,
पाप-पुण्य किसको होता है? जीव को
होता है न, जीव जानने को मिला?
जीव देखने को मिला? तो और क्या मिलेगा?
जब जीव ही नहीं मिला तो और क्या मिलेगा?
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